पाकिस्तान की हार पर इतनी बल्ले-बल्ले?
दिल पर हाथ रखकर बताइए कि अगर ट्वेंटी-ट्वेंटी के फाइनल में भारत ने पाकिस्तान के बजाय ऑस्ट्रेलिया, साउथ अफ्रीका, इंग्लैंड, बांग्लादेश या श्रीलंका को हराया होता, तब भी क्या आप इतना ही बल्ले-बल्ले करते? यकीनन नहीं। क्यों? क्योंकि 60 साल पहले हुए बंटवारे का घाव हर भारतीय के अवचेतन में अब भी टीसता है। ऊपर से दंगों की राजनीति और चार युद्धों ने इस घाव को कभी भरने नहीं दिया है। फिर, इस विभाजक राजनीति को बराबर हवा देता है पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद। अगर पाकिस्तान को खेल के मैदान में हराने का यह जुनून दोनों तरफ के दिलों में पैठी नफरत के शमन (purging act) का काम करता तो मुझे अच्छा लगता। लेकिन आपत्ति इस बात पर है कि यह जुनून भयंकर युद्धोन्माद की ज़मीन तैयार करता है।
ऐसे में एक भावुक हिंदुस्तानी की तरफ से मेरा यह सवाल है और अपील भी कि क्या इतिहास की भयानक भूल को सुधारा नहीं जा सकता? क्या जर्मनी, ऑस्ट्रिया, कोरिया, यमन या वियतनाम की तरह भारत-पाकिस्तान कभी एक नहीं हो सकते? क्या यूरोपीय संघ की तरह कोई भारतीय महासंघ नहीं बन सकता? लेकिन जानकार लोग कहते हैं कि ऐसा संभव नहीं है और हमें अखंड भारत या भारतीय महासंघ के विचार को हमेशा के लिए दफ्न कर देना चाहिए।
इनका कहना है कि आज जिसे हम भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश कहते हैं, वह हमेशा से एक देश नहीं, महाद्वीप था, जिसमें शामिल रियासतें और राज्य हमेशा एक-दूसरे से लड़ते रहते थे। 1857 से पहले इन पर राजाओं और नवाबों का राज था। इसके बाद भारत ब्रिटिश उपनिवेश बन गया। ब्रिटिश साम्राज्य ने नौ दशकों के शासन के दौरान खंड-खंड बिखरे भारत को अंग्रेजी भाषा, रेलवे, न्यायपालिका और सेना के जरिए एकजुट किया। अंग्रेज शासकों के लिए ब्रिटिश इंडिया एक देश था। बाद में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों ने ब्रिटिश इंडिया की धारणा को आत्मसात किया। वो भारत को एक देश मानने लगे, जबकि हकीकत में 20 भाषाओं, अलग-अलग रियासतों और कई सरकारों वाले देश का चरित्र किसी महाद्वीप जैसा ही रहा।
अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ा तो उन्होंने एक देश के बजाय दो राष्ट्रों को सत्ता सौंप दी। भारत को पूर्ण आज़ादी के लिए अपना एक हिस्सा छोड़ना पडा़। पाकिस्तान को भी मुस्लिम-बहुल राज्यों के बजाय कृत्रिम रूप से बनाया गया मुस्लिम इलाका स्वीकार करना पड़ा। आज भारत और पाकिस्तान के बीच कोई समान सेतु नहीं है, इसलिए अखंड भारत की सोच को एक सिरे से खारिज़ कर देना चाहिए।
लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? क्या ढाका के किसी बंगाली और कोलकाता के किसी बंगाली में आप फर्क कर सकते हैं? क्या लाहौर या कराची के किसी बाशिंदे और हैदराबाद, मुरादाबाद या लखनऊ के किसी बाशिंदे की तहजीब में आप फर्क गिना सकते हैं? भारत के राष्ट्रगान और बांग्लादेश के राष्ट्रगान के रचयिता क्या गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर नहीं हैं? क्या भारत की पश्चिमी सीमा पाकिस्तान से और पूर्वी सीमा बांग्लादेश से नहीं जुड़ी हुई है? क्या पाकिस्तान के बड़े हिस्से में बोली जानेवाली उर्दू और हिंदी में बहुत ज्यादा फर्क है? आडवाणी की रग-रग में सिंध की संस्कृति दौड़ती है, मुशर्रफ की रगों में दिल्ली का दरियागंज बोलता है और मनमोहन सिंह के जेहन में पाकिस्तानी पंजाब के चकवाल ज़िले की माटी की खुशबू है।
आज दोनों देश आतंकवाद से लेकर विकास की एक जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। ऐसे में क्या यह संभव नहीं है कि हम आपसी नफरत और युद्ध के नुकसान की तुलना शांति के फायदे से करें। यकीनन, हम इतिहास को बदल नहीं सकते। लेकिन नया इतिहास रचने से हमें कौन रोक सकता है?
ऐसे में एक भावुक हिंदुस्तानी की तरफ से मेरा यह सवाल है और अपील भी कि क्या इतिहास की भयानक भूल को सुधारा नहीं जा सकता? क्या जर्मनी, ऑस्ट्रिया, कोरिया, यमन या वियतनाम की तरह भारत-पाकिस्तान कभी एक नहीं हो सकते? क्या यूरोपीय संघ की तरह कोई भारतीय महासंघ नहीं बन सकता? लेकिन जानकार लोग कहते हैं कि ऐसा संभव नहीं है और हमें अखंड भारत या भारतीय महासंघ के विचार को हमेशा के लिए दफ्न कर देना चाहिए।
इनका कहना है कि आज जिसे हम भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश कहते हैं, वह हमेशा से एक देश नहीं, महाद्वीप था, जिसमें शामिल रियासतें और राज्य हमेशा एक-दूसरे से लड़ते रहते थे। 1857 से पहले इन पर राजाओं और नवाबों का राज था। इसके बाद भारत ब्रिटिश उपनिवेश बन गया। ब्रिटिश साम्राज्य ने नौ दशकों के शासन के दौरान खंड-खंड बिखरे भारत को अंग्रेजी भाषा, रेलवे, न्यायपालिका और सेना के जरिए एकजुट किया। अंग्रेज शासकों के लिए ब्रिटिश इंडिया एक देश था। बाद में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों ने ब्रिटिश इंडिया की धारणा को आत्मसात किया। वो भारत को एक देश मानने लगे, जबकि हकीकत में 20 भाषाओं, अलग-अलग रियासतों और कई सरकारों वाले देश का चरित्र किसी महाद्वीप जैसा ही रहा।
अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ा तो उन्होंने एक देश के बजाय दो राष्ट्रों को सत्ता सौंप दी। भारत को पूर्ण आज़ादी के लिए अपना एक हिस्सा छोड़ना पडा़। पाकिस्तान को भी मुस्लिम-बहुल राज्यों के बजाय कृत्रिम रूप से बनाया गया मुस्लिम इलाका स्वीकार करना पड़ा। आज भारत और पाकिस्तान के बीच कोई समान सेतु नहीं है, इसलिए अखंड भारत की सोच को एक सिरे से खारिज़ कर देना चाहिए।
लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? क्या ढाका के किसी बंगाली और कोलकाता के किसी बंगाली में आप फर्क कर सकते हैं? क्या लाहौर या कराची के किसी बाशिंदे और हैदराबाद, मुरादाबाद या लखनऊ के किसी बाशिंदे की तहजीब में आप फर्क गिना सकते हैं? भारत के राष्ट्रगान और बांग्लादेश के राष्ट्रगान के रचयिता क्या गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर नहीं हैं? क्या भारत की पश्चिमी सीमा पाकिस्तान से और पूर्वी सीमा बांग्लादेश से नहीं जुड़ी हुई है? क्या पाकिस्तान के बड़े हिस्से में बोली जानेवाली उर्दू और हिंदी में बहुत ज्यादा फर्क है? आडवाणी की रग-रग में सिंध की संस्कृति दौड़ती है, मुशर्रफ की रगों में दिल्ली का दरियागंज बोलता है और मनमोहन सिंह के जेहन में पाकिस्तानी पंजाब के चकवाल ज़िले की माटी की खुशबू है।
आज दोनों देश आतंकवाद से लेकर विकास की एक जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। ऐसे में क्या यह संभव नहीं है कि हम आपसी नफरत और युद्ध के नुकसान की तुलना शांति के फायदे से करें। यकीनन, हम इतिहास को बदल नहीं सकते। लेकिन नया इतिहास रचने से हमें कौन रोक सकता है?
Comments
वैसे इस प्रतियोगिता में एशिया के इन परंपरागत प्रतिद्वंदियों ने बाकी टीमों से कहीं शानदार प्रदर्शन किया था। जहाँ पाकिस्तान की जबरदस्त गेंदबाजी का सबने लोहा माना वहीं हमारी टीम के मामूली खिलाड़ियों के चौतरफा प्रदर्शन ने हमारी जनता का दिल जीत लिया।
ये सच है कि कुछ लोग इस मौके का प्रयोग अपनी खुंदस निकालने में करते हैं पर ये आम सोच नहीं है, ऐसा मेरा मानना है।
इतने सालों बाद जीत हुई है, चाहे जिस किसी पर होती. इतनी ही खुशी मनाई जाती.
अब बधाई ले लें भारत की जीत की, पाकिस्तान की हार की नहीं. :)