अक्सर आध्यात्मिक नहीं होते आस्तिक

कल शास्त्री जेसी फिलिप जी ने अपनी टिप्पणी में मुझे नास्तिक ठहरा दिया तो मुझे थोड़ा-सा गलत लगा क्योंकि मैं उस तरह से नास्तिक हूं नहीं। असल में नास्तिक तो वो है जिसकी आस्था भगवान से ही नहीं, हर किसी चीज से यहां तक कि खुद अपने ऊपर से उठ जाती है। और, मैं तो पूरी तरह आस्तिक हूं क्योंकि मुझे अपने ऊपर जबरदस्त आस्था है, दुनिया में अच्छे लोगों के होने पर आस्था है और मानवजाति के सुंदर भविष्य के प्रति आस्था है। असल में लोग आस्तिक होने, आध्यामिक होने और धर्म या ईश्वर को मानने को एक ही समझ लेते हैं, जबकि ऐसा है नहीं। मैं खुद इस पर कुछ लिखने से बेहतर समझता हूं कि परमहंस श्री नित्यानंद की कुछ बातें आपके सामने पेश कर दूं जो मैंने कई महीने पहले इकोनॉमिक टाइम्स में पढ़ी थीं।
हम बार-बार आध्यामिकता और धर्म को एक समझ लेते हैं। जैसा मैं पहले भी कह चुका हूं, एकदम बुनियादी स्तर पर आध्यात्मिकता का मतलब है आपके अंदर जागरूकता का खिलना, चेतना का आना। धर्म इसे हासिल करने का दावा तो करता है, लेकिन इस मायने में वो एक बहुत ही कमज़ोर बाहरी साधन है।
न्यूनतम स्तर पर धर्म अज्ञानता पर टिका हो सकता है। दुर्भाग्य से बहुत से धर्मों के साथ ऐसा ही है। वो जो भी कहते हैं, उस पर आपको बिना कोई सवाल उठाए यकीन करने को कहते हैं। वो कहते हैं कि भगवान ने ऐसा कहा है। वो आपको भगवान तक पहुंचने की आज़ादी नहीं देते। अज्ञानता पर आधारित धर्म आपको गुलाम बनाते हैं। जिस आस्था या विश्वास पर आप सवाल न उठा सकें, उसके साथ समस्या ये है कि उसके पीछे कोई जागरूकता नहीं होती और वह सेकंडों में खत्म हो सकती है।
नियमन पर आधारित अंधा अटूट विश्वास आपको केवल गुलामी तक पहुंचा सकता है। ऐसी गुलामी दूसरों और दूसरों के विश्वासों के प्रति हमें असहिष्णु बना देती है। हम इस कट्टर भाव से भर जाते हैं कि हम्हीं अकेले सही हैं। यहीं से आतंकवाद और मानवता के विरुद्ध सारे नकारात्मक कामों की शुरुआत होती है।
इस अज्ञानता को तोड़ने और अपने और अपने इर्दगिर्द की चीजों की उच्चतर समझ हासिल करने से हम अपने होने की उन्नत संवेदना का अहसास कर सकते हैं। यह काम एकाकीपन के धरातल पर ही किया जा सकता है। जब आपका ‘मैं’ उन 'सभी’ चीजों के साथ एकाकार हो जाता है जो इस ब्रह्माण्ड में हैं, तो आप मुक्त हो जाते हो। हां, ऐसा हो सकता है और यकीनन ऐसा होगा।
संस्थाएं आपके लिए ऐसा नहीं कर सकतीं। वो तो सीमाएं बनाती हैं, जबकि मुक्ति का मतलब सीमाओं को तोड़ना है। संस्थाएं विभाजित करती हैं ताकि वो नियंत्रण कर सकें, लेकिन आध्यामिकता का मूल काम जोड़ना है, एकीकरण है। अपने हर विश्वास पर सवाल करो। अगर ये विश्वास आज के समय और हालात में काम नहीं करते तो उन्हें छोड़ देने से आपका कुछ भी नहीं घटेगा।
नोट : थोड़ा कहा, ज्यादा समझना। नित्यानंद की सारी बातों से मैं सहमत नहीं हूं।

Comments

Sanjay Tiwari said…
देखिये शब्दों के साथ इतना छेड़छाड़ किये गये हैं कि शब्दों के मायने बदल गये है. धर्म, संप्रदाय और आध्यात्म तीनों ही शब्दों के अर्थ समझना हो तो थोड़ा आध्यात्मिक होना जरूरी है. बिना आध्यात्म को अपनाए इन शब्दों के अर्थ समझ में आनेवाले नहीं. धर्म और आध्यात्म से परे मुझे संप्रदाय शब्द बहुत प्रिय है. जहां सबको समान रूप से प्राप्ति होती हो वह हुआ संप्रदाय. और जहां समान रूप से भेदभाव रहित होकर वितरण होता भी होता. यह कोई वस्तु तो नहीं है जिसका वितरण हो रहा है और समानता का बोध बना हुआ है. निश्चितरूप से यह बुद्धि से थोड़ा नीचे और स्मृतियों से थोड़ा ऊपर है.

लेकिन इस शब्द का अर्थ क्या समझा जाता है आजकल, शायद किसी गाली से कम नहीं है यह शब्द.

जो थोड़ा आध्यात्मिक हो जाता है उसे धर्म भी समझ में आता है, संप्रदाय भी समझ में आता है, मनुष्यता भी समझ में आती है और चिति प्रकृति का रहस्य भी समझ में आने लगता है. यह तो चेतना का अलग ही धरातल है जहां मौन की मुस्कान है. अव्यक्त का आनंद है और द्वैत में छिपे अद्वैत का बोध है.
दोस्त, आपने लिखा "कल शास्त्री जेसी फिलिप जी ने अपनी टिप्पणी में मुझे नास्तिक ठहरा दिया तो मुझे थोड़ा-सा गलत लगा क्योंकि मैं उस तरह से नास्तिक हूं नहीं।"

मुझे बहुत अफसोस है कि मैं ने आपके लेख को गलत समझा. समस्या यह भी है कि हिन्दुस्तान में "नास्तिक" कई अर्थों में प्रयुक्त होता है. आज का आप का लेख पढा तो आप को कुछ और स्पष्टता से समझने का अवसर मिला. अच्छा लगा.

समझने में जो गलती हुई उसके लिए फिर से क्षमायापन !

-- शास्त्री जे सी फिलिप
शास्त्री जी, आप बड़े हैं, अनुभवी हैं, विद्वान हैं। ऐसे में क्षमायापन कहकर मुझे और ज्यादा छोटा न करें। मैं आपकी श्रेष्ठता का कायल हूं। विचारों का घात-प्रतिघात चलते रहना चाहिए। आप जिस तरह हिंदी की निस्वार्थ सेवा में लगे हैं, वह भी सराहनीय है।
अनिल, लिखते रहो. मैं पढ रहा हूं. विचारों का आदान प्रदान जरूर चलता रहेगा हमारे बीच -- शास्त्री जे सी फिलिप

आज का विचार: हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
इस विषय में मेरा और आपका योगदान कितना है??
नित्यानन्द का बढ़िया पीस छापा है आप ने.. लेकिन उनका भी सम्प्रदाय बना दिया उनके शिष्यों ने.. उनके शिष्य मुक्तानन्द भी गए अब कोई उनकी शिष्या हैं जो अमरीका के दुखीजनों के प्रति द्रवित हो कर वहीं रहतीं हैं.. गणेशपुरी के आश्रम में दुकान खुली है.. जाकर मोक्ष खरीद लीजिये..
Kautsa said…
अनिल जी, आपके विचार यहां आमन्त्रित हैं
http://saptashva-rath.blogspot.com

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