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Showing posts from August, 2007

पीछे पड़े लेफ्ट को क्यों झिड़कता है मध्यवर्ग?

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मध्यवर्ग के आखिर कौन-से ऐसे सरोकार हैं, जिनको लेकर हमारे देश की लेफ्ट पार्टियां चिंतित नहीं होतीं! जब-जब पेट्रोल, डीजल या रसोई गैस के दाम बढ़े हैं, उन्हें वापस लेने के लिए सबसे ज्यादा आंदोलन लेफ्ट ने ही किया है। सब्जियों के दाम बढ़ते हैं या किसी भी तरह की महंगाई आती है, लेफ्ट पार्टियां मोर्चा निकालती हैं। पढ़े-लिखे नौजवानों को नौकरी नहीं मिलती तो लेफ्ट उनकी आवाज़ उठाने में सबसे आगे रहता है। यहां तक कि तमाम विरोध के बावजूद उसने बीपीओ और कॉल सेंटर कर्मचारियों के अधिकारों के लिए यूनियन बनाने की पहल कर डाली। लेकिन मध्यवर्ग का बहुमत लेफ्ट को अपना नहीं मानता। मध्यवर्ग को भ्रष्टाचार से हमेशा शिकायत रहती है। जहां दूसरी पार्टियों के नेता या तो खुद भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं या भ्रष्टाचार में लगे अफसरों को बचाते हैं, वहीं लेफ्ट पार्टियां वार्ड से लेकर प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ रैलियां निकालती हैं। लेफ्ट का एक भी नेता नहीं है, जिस पर भ्रष्टाचार के बड़े आरोप लगे हों। लेफ्ट के लिए महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी लड़ाई के शाश्वत मुद्दे हैं। इन तीनों ही मुद्दों का वास्ता ...

आम हूं, इसीलिए इतना खास हूं

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आम आदमी हूं। अपने ही नहीं, औरों के भी भगवान से डरता हूं। क्या पता कब किसी मंदिर के इष्टदेव बुरा मान जाएं, मज़ार में बैठा पीर-औलिया किसी बात पर खफा हो जाए, किसी पेड़ में बसा देव नाराज़ हो जाए। इसीलिए हर किसी को आंख बंद करके प्रणाम करता हूं। अपना क्या जाता है! हां, किसी से कुछ कहने में, मांगने में ज़रा-सा भी नहीं डरता। बाबूजी कहा करते थे – अरे कोई भीख नहीं देगा तो तुमड़ी तो नहीं फोड़ देगा। इसलिए बेहिचक अपनी बात कह दिया करो। तो उनकी ये बात हमने आज तक गांठ बांध रखी है। भूतों से डरता हूं। इतना बड़ा हो जाने के बाद भी अंधेरे में अकेले जाने से घबराता हूं। सपने में भी भूत-पिशाच, डाइन-चुड़ैल दिख जाए तो हनुमान चालीसा या गायत्री मंत्री का जाप करने लगता हूं। आज में जीता हूं, आनेवाले कल से डरता हूं, बीते हुए कल को याद करता हूं। वैसे तो सभी पर यकीन करता हूं, लेकिन कहीं कोई ऊंच-नीच न हो जाए, कोई ठग न ले, इस बात से हमेशा भयभीत रहता हूं। मैं नहीं जानता ऐसा क्यों है। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि अंग्रेजों ने दो सौ सालों तक आम हिंदुस्तानियों को दबाकर रखा और हमारे बाप-दादा खास तो थे नहीं। वो भी डरते थे तो मैं...

मन्नू की नहीं सुनी तो किसकी सुनेंगे?

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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आज रात 9 बजकर 40 मिनट पर मुंबई पहुंच रहे हैं और कल वो मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और उनकी सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक करेंगे जिसमें राज्य के चार कृषि विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर भी शिरकत करेंगे। बैठक में महाराष्ट्र में खेती-किसानी की हालत की समीक्षा की जाएगी, विचार किया जाएगा कि ऐसे क्या उपाय हो सकते हैं जिनसे 10 % सालाना औद्योगिक विकास दर वाले राज्य में कृषि की विकास दर को 1 % से उठाकर 4 % के राष्ट्रीय लक्ष्य तक पहुंचाया जा सके। लेकिन खास मुद्दा होगा कि प्रधानमंत्री ने साल भर पहले किसानों की आत्महत्या से जूझ रहे विदर्भ के लिए 3,750 करोड़ रुपए का जो पैकेज घोषित किया था, उसका अभी तक क्या हश्र हुआ है। आइये देखते हैं इस बाबत भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट क्या कहती है। असल में सीएजी ने विदर्भ के 11 तालुकों का रैंडम सर्वे करने के बाद जो हकीकत पता लगाई है, वह हमारी अफसरशाही को झापड़ मारने का पर्याप्त आधार देती है। तय हुआ था कि विदर्भ के छह जिलों के 60,000 ऐसे चुनिंदा किसानों को कृषि लागत सामग्रियां और उपकरण मुहैया कराए जाएंगे, जिनके...

रास्ते में कहां रह गया राजकुमार?

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अभी तक कोई राजकुमार सात घोड़ों पर सवार होकर आया ही नहीं। पता नहीं कहां रह गया है रास्ते में... अगर आप पुरुष हैं तो बहुत मुमकिन है कि इन पंक्तियों को पढ़कर आपके मन में खास कुछ भी न हो, कोई सिहरन न हो। लेकिन अगर आप लड़की हैं, शादी की उम्र हो गई है या कहें कि शादी की उम्र फिसलती जा रही है तो मनमीत न मिल पाने की यह पीड़ा मन के किस गहरे कोने से कैसी सघनता से उठी होगी, आसानी से पहचान सकती हैं। मैंने भी घूमते-टहलते गलियों में, सड़कों पर, यात्राओं में, बसों में, ट्रेनों में, घरों में, रिश्तेदारियों में कभी-कभार इस पीड़ा को पढ़ा है। सुदर, सलोने चेहरों के पीछे परतों में छिपी तड़प को देखा है, पहचाना है। आंखों के अंदर से झांकती पुतलियों में, आपको आरपार पारदर्शी कांच की तरह भेदती निगाहों में। लगता है उम्रकैद पा चुका कोई निरपराध कैदी काल-कोठरी में भेजे जाने के ठीक पहले किसी अपने की तलाश कर रहा हो। दलदल में डूबने के ठीक आखिरी पल कोई किनारे खड़े शख्स से आंखों ही आंखों विदा मांग रहा हो। ये पीड़ा सहन नहीं होती। ऐसे मौकों पर लगता है, कृष्ण ने अगर सचमुच हज़ारों गोपियों से प्रेम किया होगा, उनसे रासलीला रचा...

कहते हैं शब्दों को नहीं, भावना को समझो!

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भारत-अमेरिका परमाणु समझौते का सच इतना टेक्निकल और उलझा हुआ है कि उसकी तह तक पहुंचना मेरे जैसे आम इंसान के लिए बहुत मुश्किल है। मैं तो बस यही कह सकता हूं कि इस बारे में जितनी ज्यादा जानकारियां सामने लाई जाएं, उतना ही अच्छा है क्योंकि पूरे सच को ही जानकर सार्थक बहस हो सकती है, सही नतीजे पर पहुंचा जा सकता है। मगर दिक्कत ये है कि इस मुद्दे पर अमेरिका की प्रचार लॉबी पूरी तरह सक्रिय हो गई है। और इस लॉबी से मुकाबला करना कितना मुश्किल है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक भी सबूत न मिलने के बावजूद इसने दुनिया से मनवा लिया था कि इराक में जनसंहारक हथियारों का जखीरा है। इस लॉबी के घनघोर प्रचार का ही नतीजा है कि इस बार राष्ट्रहित की बात करनेवाले लेफ्ट को ही ज्यादातर लोग राष्ट्रविरोधी और चीन के इशारों पर खेलनेवाला मानने लगे हैं। इस हद तक हल्ला मचाया गया कि बीजेपी और संघ से जुडे रहे बुद्धिजीवी सुधीर कुलकर्णी को लेफ्ट के बचाव में उतरना पड़ा। लेफ्ट से लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री और पत्रकार अरुण शौरी ने 123 समझौते और उससे जुड़े हाइड एक्ट के ‘टेक्स्ट’ के आधार पर ही कहा था कि इसमें भारतीय संप...

त्रि-शूल पर अटक गई है संधि

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खेमे बन चुके हैं। भारत-अमेरिका के बीच हुई परमाणु संधि पर पूरे देश का मुखर समाज तीन हिस्सों में बंट चुका है। सभी ने अपनी रूढ़ धारणाएं बना ली हैं। ऐसे में लगता है कि इस पर लिखने का कुछ फायदा है भी कि नहीं। वैसे भी जो मसले राष्ट्रवाद से जुड़ जाते हैं, उन पर सभी भावना में ही बहते हैं, तर्क कोई नहीं सुनता। फिर भी लिखने का मन हुआ और वादा भी कर रखा था तो सोचा कि लिख ही डालूं भले ही एक दिन देरी से। तो शुरुआत इस मुद्दे पर बंटे तीन खेमों से। कुछ दिनों पहले तक इन खेमों ने म्यान से तलवारें बाहर निकाल ली थीं। लेकिन अब सभी की तलवारें म्यान के भीतर जा चुकी हैं। मनमोहन सरकार के गिरने का फिलहाल कोई खतरा नहीं है। लेफ्ट बातचीत करने के मूड में है और बीजेपी भी अमेरिका के खिलाफ कोई बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहती। पहला खेमा है सरकार और उसकी तरफदारी कर रहे नेताओं और बुद्धिजीवियों का। इनका कहना है कि भारत-अमेरिका परमाणु संधि या 123 समझौते का मुख्य पहलू है भारत की परमाणु ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करना। अभी हम 2700 मेगावाट बिजली अपने परमाणु संयंत्रों से पैदा कर रहे हैं जो हमारे कुल बिजली उत्पादन का तीन फीसदी से भी कम ...

कितने फ्लेक्सिबल हैं हम और हमारे त्योहार

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रक्षाबंधन आज है। लेकिन मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में कई भाई-बहनों ने परसों ही राखी मना ली। बहन भाई के घर गई या भाई बहन के घर आ गया। बहन ने भाई को अक्षत-रोली का तिलक लगाया, मिठाई खिलाई। भाई ने 101 या 501 रुपए का लिफाफा दे दिया। पूरी-मिठाई खाने के बाद एक-दो घंटे गपशप हुई और रक्षाबंधन खत्म। जो बाहर से आया था, वो अपने घर चला गया। बहन दूसरे शहर या गांव में है तो उसने हफ्ते भर पहले ही राखी भिजवा दी और भाई ने कोई और नहीं मिला तो अपनी बेटियों से राखी बंधवा ली। ये हैं जीवन-स्थितियों का दबाव। लेकिन देश-दुनिया का सर्वग्रासी बाज़ार सामूहिकता के एक भी मौके को हाथ से नहीं जाने देता। जैसे ही हमारी सामूहिकता का कोई प्रतीक नज़र आया, बाज़ार उसे पकड़ने के लिए लपक पड़ता है। गणेश पर एनीमेशन फिल्म आनेवाली है तो बाज़ार गणेश की राखियों से पटा पड़ा है, जबकि गणेश और राखी का वैसे कोई लेना-देना नहीं है। इसी तरह पिछले सालों में जादू और हनुमान की राखियों की धूम थी। हालत ये है कि चीन हमारे त्योहारों के लिए पहले से तैयारी कर लेता है। नितांत भारतीय त्योहार रक्षाबंधन में मिल रही हैं मेड-इन चाइना राखियां। ये है बाज़...

चीन ने फिर कहा – हम तो भाई-भाई हैं

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जब पूरे देश में चर्चाएं गरम है कि चीन भारत को कमज़ोर देखना चाहता है, इसीलिए वह भारत-अमेरिका परमाणु संधि में रोड़े अटका रहा है, तब खुद चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ (नाम का असली उच्चारण अभी-अभी चीन की यात्रा पूरी कर चुके अज़दक बता सकते हैं) ने आज बयान दिया कि चीन और भारत को एक-दूसरे से कोई खतरा नहीं है। उन्होंने कहा कि भारत-चीन के रिश्तों की मुख्य धारा दोस्ती की है। इन दोनों देशों के बीच दो हज़ार सालों से ज्यादा के दोस्ताना संबंध हैं, जबकि रिश्तों में आई खटास की मियाद महज दो से तीन साल की रही है। चीनी प्रधानमंत्री के मुताबिक दोनों देशों का विकास एक दूसरे का पूरक है। यह दोनों की समृद्धि और ताकत हासिल करने का मौका देगा, न कि एक दूसरे के लिए खतरा पैदा करेगा। उन्होंने कहा कि इस साल जब भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चीन की यात्रा पर आएंगे तो उनका जबरदस्त स्वागत किया जाएगा। इस ‘बिग इवेंट’ के लिए अभी से तैयारियां शुरू हो गई हैं। दिक्कत ये है कि भारतीय जनमानस में चीनी नेताओं के बयानों को अब भी संदेह की निगाह से देखा जाता है, क्योंकि हिंदी-चीनी भाई-भाई का सबक पूरा देश 1962 में युद्ध के रूप ...

24 घंटे में डेढ़ लाख हिट!

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जी हां। न्यूयॉर्क में रहनेवाली स्विटजरलैंड की ब्लॉगर टीना रॉथ आइजेनबर्ग को अपनी एक 'सिली पोस्ट' पर 24 घंटे में डेढ़ लाख हिट मिले हैं। वो स्विसमिस नाम का एक डिजाइन ब्लॉग चलाती हैं। उन्होंने कुछ नहीं किया, बस नीचे लगी फोटो twentyonepictures.com से साभार उठाई और उस यह शीर्षक जड़ दिया... Every morning I am tempted to go right... वैसे एक बात तो है कि जिन्होंने भी ये हिट किए हैं, वो सभी हम और आप जैसे ही लोग हैं जो सोमवार को ऑफिस के अलावा कहीं भी और जाना पसंद करेंगे। शनिवार-रविवार के बाद सोमवार का आना वाकई बड़ा भारी सरदर्द है। आपने शायद बैंगल्स का ‘मैनिक मंडे’ गाना सुना हो। अगर नहीं तो अब देख-सुन लीजिए।

टीम इंडिया किसकी? इसकी या उसकी?

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अब आएगा मज़ा। मामला हाईकोर्ट पहुंच गया है। फैसला होना है कि बीसीसीआई से जुड़ी क्रिकेट टीम को ही टीम इंडिया क्यों माना जाए, नई बनी इंडियन क्रिकेट लीग (आईसीएल) को क्यों नहीं। इस पर अदालत में कल यानी सोमवार को विचार होना है। आईसीएल ने दिल्ली हाईकोर्ट में दायर अपनी याचिका में दूसरी बातों के अलावा ये भी गुजारिश की है कि बीसीसीआई को देश के झंडे और नाम का इस्तेमाल करने से रोका जाए क्योंकि बोर्ड खुद सुप्रीम कोर्ट के सामने मान चुका है कि वह एक प्राइवेट बॉडी है। और सच भी यही है कि बीसीसीआई चेन्नई में रजिस्टर्ड एक प्राइवेट क्लब है जो ब्रिटेन की एक लिमिटेड कंपनी आईसीसी से संबद्ध है। भारतीय क्रिकेट पर बीसीआईआई के एकाधिकार और राष्ट्रीय भावना को भुनाने की उसकी कोशिशों पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। खुद मैंने सवाल उठाया है। लेकिन पहले मुझे अपना सवाल हवा में छोड़े गए तीर जैसा लगता था। लेकिन जब ज़ी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा को राष्ट्रवादी भावना के इस उफान की कीमत समझ में आई तो उन्होंने भी एक नई संस्था बना डाली, इंडियन क्रिकेट लीग, जिसका मुखिया बनाया भारत को विश्व कप दिलानेवाले कप्तान कपिलदेव को। यही नह...

सुब्बण्णा, संगीत और मुक्ति

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हमारे शास्त्रीय संगीत और आध्यात्मिक मुक्ति में बड़ा गहरा नाता है। संगीत के स्वर नाड़ी तंत्र में ऐसा अनुनाद पैदा करते हैं कि आपको लगता है अंदर के तनाव और हर दुखती रग पर किसी ने प्यार से मरहम लगा दिया हो। संगीत और मुक्ति के इसी जीवंत रिश्ते को स्थापित करता है ज्ञानपीठ से सम्मानित जानेमाने कन्नड़ कथाकार मास्ति वेंकटेश अय्यंगार का लघु उपन्यास सुब्बण्णा। सुब्बण्णा का छोटा-सा अंतिम अध्याय... मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यदि मुक्ति कोई चीज़ है तो वह सुब्बण्णा ने अवश्य प्राप्त की होगी। मैंने एक बार पूछा था, “सुब्बण्णा जी, संगीत में सात स्वरों का प्रयोग क्यों होता है?” वे बोले थे, “यदि हम सात समझें तो सात हैं वैसे देखें तो सौ, करोड़ों स्वर हो सकते है, नहीं तो एक ही।” जब वे बेला बजाते थे तो उनकी यह बात कुछ समझ में आती थी। और एक बार मैंने पूछा था, “सुब्बण्णा जी, अद्वैत अच्छा है या द्वैत?” तब उन्होंने कहा था, “मेरी स्थिति से देखें तो अद्वैत ठीक लगता है। पर उनकी स्थिति से देखें तो द्वैत ठीक लगता है।” मैं चुप हो गया। उनकी बातचीत का ढंग ही कुछ वैसा था। मैं जानता था कि आदरसूचक ‘उनके’ शब्द का प...

वाह रे तेज़ी कि फु्र्ती भी शरमा जाए

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वाकई, माया मेमसाहब ने गज़ब की तेज़ी दिखाई है। 3 अगस्त को नई कृषि नीति बनाई और 23 अगस्त को उसे वापस भी ले लिया। यानी, जन्मने के बीस दिन बाद ही कृषि-प्रधान उत्तर प्रदेश ने कृषि नीति को दफ्न कर दिया। मुख्यमंत्री कहती हैं कि उनकी सरकार ने इस नीति को बनाया तो था बहुत सोच-समझ कर, लेकिन फिर सोच-समझ ही राज्य के खुफिया विभाग से कहा कि वो सभी 70 जिलों में जाकर पता लगाए कि किसान इस नीति को कितना पसंद कर रहे हैं। और कमाल की बात ये है कि दो हफ्ते में ही खुफिया विभाग ने दो लाख 36 हज़ार 286 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले राज्य में अपने सूत्रों से पता लगा लिया कि 60 फीसदी किसान इस नीति के खिलाफ हैं। बस, यह पता लगते ही सरकार ने नई कृषि नीति को वापस लेने का फैसला ले लिया क्योंकि वह किसानों की इच्छाओं के खिलाफ कभी जाने की सोच ही नहीं सकती। धन्य है मायावती का यह किसान-प्रेम! इस कृषि नीति में साफ-साफ मेरिट के आधार पर कृषि जोत में 12.5 एकड़ की सीलिंग सीमा में छूट देने की बात कही गई थी, लेकिन अब मायावती कह रही हैं कि विपक्षी अफवाह फैला रहे थे कि नई नीति में सीलिंग की सीमा घटाई जा रही है। क्या वाकई उत्तर प्...

सुख की संजीवनी है सत्ता-संपन्नता

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सुख क्या है, सुखी कौन है? यह एक शाश्वत सवाल है। लेकिन कल जब विमल ने काहे की मुक्ति में अपनी चाहत का इजहार किया कि मेरे पास सारी ऐशोआराम की चीज़ें हों, सिर पर कोई ज़िम्मेदारी न हो, बात करने के लिए ढेर सारे दोस्त हों तो मुझे लगा कि इस शाश्वत सवाल का जवाब देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष है। मेरे बाबा परम संतोषी जीव थे। कहा करते थे : गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान, जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान। लेकिन ये किसान अर्थव्यवस्था और परिवेश का सुख था। आज के महानगरीय जीवन में ढेर सारे दोस्तों का होना मर्सिडीज होने से कम बड़ी बात नहीं है। लेकिन हमारे समय और देश के मौजूदा हालात में मुझे लगता है कि इम्पावरमेंट, सत्ता संपन्नता सुख की बुनियादी शर्त है। ज़रा याद कीजिए कि प्रधानमंत्री रहने के दौरान अटल बिहारी बाजपेयी का चेहरा कैसा चमकता था, चलने में दिक्कत थी, लेकिन उतनी नहीं। नरसिंह राव से लेकर कब्र में पैर लटकाए मोरारजी देसाई कैसे प्रधानमंत्री बनते ही हरे-भरे हो गए थे! बुढ़ापे में भी नारायण दत्त तिवारी के चेहरे से कैसा नूर टपकता है। मायावती के भी चेहरे की रौनक सत्ता में वापसी के बाद दिन-ब-दिन निखरती जा ...

हमें आदत है स्वांग को सच समझने की

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आर के नारायणन ने जब गाइड उपन्यास लिखा होगा और 1965 में विजय आनंद ने इस पर शानदार फिल्म बनाई होगी तो ज़रूर सोचा होगा कि इससे भारतीय अवाम की स्वांग को सच समझने की आदत बदल सकती है। इस फिल्म को बहुतों ने देखा और सराहा, लेकिन 42 साल बाद भी हालत जस की तस है। आर्म्स एक्ट में छह साल के कठोर कारावास की सज़ा भुगत रहा मुजरिम संजय दत्त जब जेल से बेल पर छूटता है तो उसे देखने के लिए लोगों का तांता लग जाता है। यहां तक कि पुलिसवाले भी उससे हाथ मिलाने को बेताब नज़र आते हैं। हम संजय दत्त को मुन्नाभाई से अलग हटकर खलनायक मानने को तैयार ही नहीं है। यही हाल शाहरुख खान का है। चक दे इंडिया बॉक्स ऑफिस पर हिट हो गई है। फिल्म में शाहरुख का किरदार कबीर खान भारतीय हॉकी टीम का कैप्टन था, लेकिन विश्व कप फाइनल में पाकिस्तान के खिलाफ पेनाल्टी स्ट्रोक को गोल में न बदल पाने पर उसे गद्दार करार दिया गया। एक दिन वही कबीर खान कोच बनकर भारतीय महिला हॉकी टीम को विश्व कप दिलवाने में कामयाब रहता है। इस रोल ने स्वदेश के शाहरुख की राष्ट्रवादी छवि को और चमका दिया है। लेकिन हम केवल यही देखते हैं। नहीं देखते कि वही शाहरुख खान इस सम...

ज़रूरतें हैं तो धंधे हैं, नहीं तो और क्या है?

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बेसिकली क्या है? हम हैं, हमारे लोग हैं, हमारा परिवार है और हमारी, हम सबकी ज़रूरतें हैं। बाकी सब तो इन्हीं ज़रूरतों को पूरा करने का धंधा है। कोई हमारे खाने-पीने रहने की ज़रूरत पूरी करता है, कोई मनोरंजन की ज़रूरत पूरी करता है। हम भी अपने और अपने परिवार के अलावा दूसरों की ज़रूरतें पूरी करते हैं। चीजें और सुविधाएं सीमित हैं। इससे भी बड़ी बात है कि हम सभी में भारी ग्रीड है, लालच है। इसको कंट्रोल करने के लिए काम-धंधे बना दिए गए, मुद्रा बना दी गई। काम के बदले हमें नोट मिलते हैं ताकि हम अपनी और अपनों की ज़रूरतें पूरी कर सकें। यही सब ज़ीरो-सम गेम चल रहा है। और क्या है? अच्छा काम, बुरा काम, ऊंचा ओहदा, नीची पोस्ट। ये सब कुछ खाली-पीली का चोंचला है। इसलिए कि एक दूसरे को काट कर आगे बढ़ने की आदम चाहत बनी रहे। लोग सक्रिय रहें, ज़िंदगी में गति बनी रहे। साहित्य, संस्कृति, सिनेमा, विज्ञापन सभी हमारी ज़रूरतों की थाह लेते हैं। सर्वे कराते है ताकि हमारी सटीक ज़रूरतों की पहचान हो सके ताकि वो उसे भुनाकर अपने हिस्से के नोट कमा सके। अपने अफसरों, कर्मचारियों को बांट सकें जिससे ये सभी अपनी और अपनों की जरूरतें पूर...

रिश्ता तलवार की धार और कविता का

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यकीनन मैं कविता का विरोधी नहीं हूं। मैं बहुत सारी देसी-विदेशी कविताओं का ऋणी हूं जिन्होंने मुझे ऐसी अनुभूतियों के दर्शन कराए जो अपनी पूरी ज़िंदगी मैं अपने दम पर नहीं कर सकता था। सच कहूं तो मेरे लिए कवि ज़िंदगी से लबालब भरा वो इंसान है, वो आदर्श है, जहां तक पहुंचने की मैं सोच भी नहीं सकता क्योंकि मैं अपने अंदर उस धैर्य, बेचैनी, सच्चाई और प्राकृतिक न्याय के प्रति समर्पण और उस जीवट का अभाव पाता हूं जो किसी कवि की ही थाती हो सकती है। मैं तुकांत-अतुकांत कविता लिख सकता हूं, लेकिन पाश की आग कहीं से उधार नहीं ला सकता। नागार्जुन का बालसुलभ उत्साह मैं खरीदकर नहीं ला सकता। गोरख पांडे की निष्छल आंखें मैं कहीं से ट्रांसप्लांट नहीं करा सकता। मैं समझता हूं कि कवि कर्म के जरूरी शर्त है सच्चा होना, अपने प्रति ईमानदार होना। कवि हमेशा नई ज़मीन तलाशता है, पाताल भी तोड़कर नई अनुभूतियां निकाल ले आता है। वह स्वभाव से ही क्रांतिकारी होता है। इसीलिए कवि बनना बड़ा मुश्किल है। वाकई तलवार की धार पर उसे चलना पड़ता है। अंदर भी जूझना पड़ता है और बाहर भी। लेकिन कोई यह सब न करे तो कवि बनना बड़ा आसान भी है। बिना जमकर प...

आलोचनाएं सुनीं तो अब सफाई भी सुन लें

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मजाक-मजाक में मजमा लग गया। तो, अब थोड़ा सीरियस हो लिया जाए। पहली बात, जो सच्चे सहृदय लोग, गृहणियां, कामकाजी लोग, भावुक नवयुवतियां या नौजवान अपनी कोमल भावनाओं को कविता के रूप में कलमबद्ध करते हैं, उनको अगर मैं फ्रॉड कहूं तो यकीनन मैं कुंभीपाक नरक का अधिकारी हूं। चंदू जैसे तमाम मित्र जो कविता को साधना की तरह साधते हैं, उनकी भावनाओं पर संदेह करना भी ब्रह्म-हत्या के दोष से कम नहीं है। मैं तो उन कवियों की बात कर रहा था जो जनता और जनवाद के नाम पर कविता की दुकान चलाते हैं। ऐसे कई समकालीन कवियों के नाम मेरी जुबान पर हैं। लेकिन शिष्टाचारवश मैं उनके नाम नहीं ले सकता। वैसे, आपको बता दूं कि मैंने कोई अनोखी बात नहीं कही है। साहित्य से मेरा पहला परिचय गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनाओं के माध्यम से हुआ था। उन्होंने साहित्यिक की डायरी में 1954 से लेकर 1962 के बीच लिखे गए कई लेखों में इस तरह की बातें कही हैं। आप भी उनकी बानगी देख लीजिए। मेरी अपनी बात अगली पोस्ट में। - कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी शीर्षक वाले लेख में मुक्तिबोध ने यशराज नाम के एक चरित्र से कहलवाया है – हिंदी में बहुतेरी कविताएं हैं जो कि बि...

...आपत्तियां हैं मगर दमदार

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मैंने तो यूं ही वह बात लिख दी थी जो मैंने हाल ही में प्रमोद और उससे दो-तीन महीने पहले बोधिसत्व से कही थी। पहले भी कई सालों से ये बात मैं दोस्तों के बीच कहता रहा था। लेकिन मुझे वाकई नहीं पता था कि इसे पोस्ट पर चढ़ाकर मैं आग में हाथ डाल रहा हूं। चलिए, आग में हाथ डाल दिया तो मरहम भी खुद ही लगाएंगे। मेरी सफाई बाद में, पहले वो आपत्तियां जो कमेंट में पड़े-पड़े छुपी-सी रहती हैं। इसलिए उन्हें खुलकर पढ़िए और गुनिए। प्रियंकर ने कहा है : आपकी बात में तथ्य है पर पूरा सच नहीं है। बाज़ार के सर्वग्रासी विस्तार के इस धूसर समय में हो सकता कुछ कविताएं पर्म्यूटेशन-कॉम्बीनेशन की तकनीक से बन रही हों, पर कविता फ़कत पर्म्यूटेशन-कॉम्बीनेशन और शब्दों-भावनाओं को फेंटने-लपेटने का मामला नहीं है। न ही यह कोई दिव्य-अलौकिक किस्म का आसमानी ज्वार है। प्रथमतः और अन्ततः यह अपने समय और समाज के प्रति सच्चे होने का मामला है। यह संवेदनाओं और अनुभूतियों का मामला है और विचार का भी। यह ऐसा स्वप्न है जो तर्क की उपस्थिति में देखा जाता है। हां! यह उपलब्ध भाषिक-सांस्कृतिक उपकरणों के 'आर्टीकुलेशन' के साथ इस्तेमाल का भी मामल...

कविता हमारे समय का सबसे बड़ा फ्रॉड है?

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कल संजय तिवारी ने विस्फोटक सवाल उठाया कि क्या भाषा पर साहित्य बोझ है, खासकर हिन्दी में? आज अज़दक ने श्रीलाल शुक्ल की टिप्पणी के ज़रिए हिंदी पाठकों के ज्ञान की कलई उतार दी। तो, मैंने सोचा कि क्यों न बरसों से दबी हुई धारणा को उजागर कर दूं। मुझे पता है कि विद्वान साहित्यकारों को इससे मर्मांतक पीड़ा पहुंचे या न पहुंचे, वो मेरे अज्ञान पर ठठा कर ज़रूर हंसेंगे। लेकिन यह एक आम हिंदुस्तानी की सोच है, इसलिए इस पर गौर करना ज़रूरी है। मेरी राय में कविता हमारे समय का सबसे बड़ा फ्रॉड है। चार-पांच सौ शब्द हैं। ज्यादा से ज्यादा सौ-पचास कोमल अनुभूतियां या भावनाएं हैं। उन्हीं को फेंटते रहिए। जितने परमुटेशन-कॉम्बिनेशन बन सकते हैं, उतनी कविताएं तैयार हो जाएंगी। आखिरी वाक्य मेरा नहीं, बल्कि नक्सल आंदोलन के बड़े नाम विनोद मिश्रा का है। मैं अस्सी के दशक में कही गई उनकी इस बात से आज भी सहमत हूं। मुझे लगता है कि असल में जो जिंदगी में रिस्क नहीं ले सकता, वह कविता नहीं लिख सकता। धूमिल के शब्दों में कांख भी ढंकी रही और मुट्ठी भी तनी रहे, ऐसा संभव नहीं है। आज के दौर में जिन्होंने ये जोखिम उठाया है, उन्हीं की कविता...

पवार साहेब तो पू-रे युधिष्ठिर निकले!

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शरद पवार देश के कृषि मंत्री हैं। देश की कृषि और किसानों को आगे ले जाने का बोझ उनके कंधों पर है। उनके पास भले ही घोषित तौर पर 3.6 करोड़ की संपत्ति हो, लेकिन उनकी बेटी सुप्रिया सुले के परिवार के पास 41.5 करोड़ की संपत्ति है। पवार साहब की पूरी जायदाद का ब्यौरा खोजने में तो वक्त लगेगा। लेकिन महाराष्ट्र की को-ऑपरेटिव लॉबी के वो पुरोधा हैं और अब भी किसान नहीं तो बड़े फार्मर ज़रूर हैं। इसलिए खेती-किसानी का उनका निजी अनुभव है और इसीलिए इस मुद्दे पर वो जो भी बोलते हैं, उसे सच और केवल सच माना जाता है। उनका लोकसभा क्षेत्र बारामती है जो महाराष्ट्र के पुणे ज़िले में पड़ता है। वहां के लोग इन्हें साहेब कहते हैं। पिछले हफ्ते पवार साहेब पुणे आए तो सार्वजनिक तौर पर उन्होंने घोषित कर दिया कि अब खेती में कुछ नहीं रखा। यह घाटे का धंधा बन गई है और किसानों को जोतना-बोना जोड़कर दूसरे कामों में हाथ आजमाना चाहिए। एक किसान कृषि मंत्री की ईमानदारी तो देखिए कि उन्होंने यह तक नहीं सोचा कि देश की जिस कृषि को आगे बढ़ाने का बोझ उनके कंधों पर है, उसी कृषि के बारे में उसके मुंह से निकली ऐसी बात उनकी साख पर कितना बट्टा ल...

चर्चवाले ऐसा क्यों कर रहे हैं?

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जब देश भर में मठ, मंदिर, मस्जिद और चर्च हजारों-हज़ार करोड़ का टैक्स बचाने का ज़रिया बने हुए हों, तब ये खबर वाकई चौंकानेवाली है कि भारत का रोमन कैथोलिक चर्च कंपनियों के लिए कर बचाने के डबल टैक्सेशन एवॉयडेंस एग्रीमेंट्स (डीटीएए) रास्ते को बंद करने का देशव्यापी आंदोलन छेड़ने जा रहा है। अभी भारत सरकार ने दुनिया के साठ से ज्यादा देशों के साथ ऐसे समझौते कर रखे हैं। विदेशी कंपनियां इन समझौतों का जमकर फायदा उठाती हैं। इस मामले में सबसे बदनाम देश रहा है मॉरीशस, जहां अपना पंजीकरण दिखाकर तमाम एफआईआई (विदेशी संस्थागत निवेशक) करोड़ों-अरबों की कमाई करने के बावजूद एक धेले का भी टैक्स नहीं देते, न तो भारत में और न ही मॉरीशस में। इसके खिलाफ अदालत का भी दरवाजा खटखटाया जा चुका है। अब रोमन कैथोलिक चर्च कह रहा है कि कंपनियां इस तरह टैक्स बचाकर अनैतिक काम कर रही हैं, जिन आम लोगों के बल पर वो मुनाफा कमाती हैं, उस मुनाफे पर टैक्स न देकर वो उसी अवाम को उन सुविधाओं से महरूम रख रही है, जो उन्हें टैक्स के पैसे के इस्तेमाल से मिल सकती थीं। इससे पहले एनजीओ को भी चंदा देनेवाली कंपनियों की नीयत पर सवाल उठ चुके हैं। त...

जिज्ञासा चकरघिन्नी बना देती है इंसान को

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ज्वलंत जिज्ञासा और कुतुहलवाला आदमी चीज़ों को उलट-पुलट कर देखता चाहता है। अपनी आंखें वहीं गड़ाता है, जहां लोगों का ध्यान नहीं जाता। वह सामान्यत: ‘नास्तिक’ होता है। केवल धार्मिक अर्थों में ही नहीं, सभी अर्थों में। वह विरोधी और प्रतिरोधी भी हो उठता है। वह सोचने लगता है, निष्कर्ष पर आता है, निष्कर्ष बदल देता है। इसलिए वहां भी हमेशा ‘बिगिनर’ ही होता है। जिज्ञासा उसे नए-नए क्षेत्रों में ले जाती है। इसलिए उन-उन क्षेत्रों में वह नौसिखिया ही रहता है। वह चिरंतन ‘बिगिनर’, ज्ञान का चिरंतन उम्मीदवार, और इसीलिए भौतिक अर्थों में ज़िंदगी में असफल रहता है। वह भद्र और शिष्ट नहीं हो सकता। भद्रता और शिष्टता के लिए अपनी ही निजता से प्रसन्नता चाहिए, परिस्थिति से अच्छा-खासा सामंजस्य चाहिए। लेकिन जिज्ञासावाला आदमी उस जंगली बच्चे के समान होता है जिसे वस्तु या निज से इतनी अधिक प्रसन्नता अच्छी नहीं लगती। वह आदमी घड़ी के पुर्जे तोड़ना चाहेगा और उन्हें फिर जोड़ना और लगाना चाहेगा। उसकी एक विध्वंसक प्रवृत्ति होती है। उसकी निर्मायक वृत्ति होती है; किंतु निर्मिति दिखे या न दिखे, लोगों को उसकी विध्वसंक प्रवृत्ति पहले द...

दांत क्यों नहीं ठीक करवा लेते!

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मोती जैसे दांत हर किसी को कहां मयस्सर होते हैं। लेकिन कल डेंटिस्ट के यहां बैठा हुआ था तो सामने चिपके पोस्टर से पता चला कि आपके दांत कैसे भी आड़े-तिरछे, काले-पीले, टूटे-बिखरे हों, आप उन्हें सुंदर-सजीला और मोतियों जैसा बन सकते हैं। हां, इसमें थोड़े ज्यादा पैसे ज़रूर लगते हैं। इसे मैं अच्छी तरह जानता हूं क्योंकि इधर मैं अपने दांतों के स्वास्थ्य, स्वच्छता और सौदर्यीकरण अभियान में लगा हुआ हूं। कल डॉक्टर ने खाली नीचे के दांतों की सफाई के 800 रुपए ले लिये। ऊपर-नीचे के पूरे काम के लिए उसने करीब 35,000 रुपए का बजट पेश किया है। शायद इसीलिए विदेश में दांतों के कई तरह इलाज हेल्थ इंश्यो रेंस से बाह र रखे जाते हैं। लेकिन जिनके पास अकूत पैसे हैं, वे अपने दांत क्यों खराब रखते हैं? यह सवाल मेरे जेहन में सबसे पहले इफोसिस के चीफ मेंटर एनआर नारायणमूर्ति की तस्वीरों को देखकर उठा। आप भी देखिए उनके नीचे के दांत कैसे फैले-फैले और रिपल्सिव हैं, जैसे लगता है सड़क के किसी बूढ़े भिखारी के दांत हों। नारायणमूर्ति अरबपति हैं। दांत ठीक करवाने पर दस लाख भी लग जाएं तो उनकी जेब पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। फिर भी उनका ध्यान...

किन बूड़ा किन पाइयां गहरा गोता खाय?

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भारतीय शेयर बाज़ार को कोई भंवर नीचे ही नीचे खींचे लिये जा रही है। इसी 24 जुलाई को शेयरों की कीमत को दर्शानेवाला सेनसेक्स 15,869 के शिखर पर था। लेकिन तीन दिन बाद 27 जुलाई से बाज़ार के गिरने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह थमने का नाम नहीं ले रहा। कल मुंबई स्टॉक एक्सचेंज की तीस कंपनियों पर आधारित ये सूचकांक 14,358 पर बंद हुआ था। आज ट्रेडिंग शुरू हुई तो दोपहर 12.15 बजे के आसपास ये 578 अंक और गिरकर 13,780 तक आ गया। बाजार बाद में संभल कर 14,141 अंक पर बंद हुआ, फिर भी आज की गिरावट 216 अंकों की रही। इस तरह बीस दिनों में हुई करीब 2000 अंकों की गिरावट से शेयर बाज़ार में लगी दस फीसदी से ज्यादा पूंजी स्वाहा हो गई है। बाज़ार में मचे इस हाहाकार की कोई देसी वजह नहीं है। आज ही आंकड़े आए हैं कि बाज़ार और आम उपभोक्ता को परेशान करनेवाली महंगाई की दर 4.45 फीसदी से घटकर 4.05 फीसदी पर आ गई जो बाज़ार की उम्मीद 4.30 फीसदी से भी कम है। इस आधार पर शेयर बाज़ार को चहकना चाहिए था। लेकिन वह तो डूबा ही जा रहा है। इसकी दो खास वजहें हैं और दोनों ही विदेशी हैं। एक, अमेरिका के होमलोन बाज़ार के एक हिस्से में बढ़ता डिफॉल्ट और...

अर्द्ध-नारीश्वर और सोलमेट की तलाश

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भगवान शंकर का एक रूप अर्द्ध-नारीश्वर का भी है, जिसमें शरीर का आधा अंश शिव का है तो आधा पार्वती का। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि महान दार्शनिक प्लैटो ने भी 360 ईसा पूर्व में लिखी अपनी किताब सिम्पोजियम में इसी तरह का मिथ पेश किया है। उसके मुताबिक पृथ्वी पर सभी लोग पहले उभयलिंगी हुआ करते थे। फिर ईश्वर ने उन्हें दो हिस्सों में बांट दिया। उसी के बाद से हर हिस्सा अपने दूसरे हिस्से की तलाश में जुटा हुआ है। वह उस हिस्से की तलाश के लिए दुनिया भर में कहां-कहां नहीं भटकता। फिर अचानक किसी को देखकर लगता है कि हां, यही है मेरा दूसरा हिस्सा, यही है मेरा सोलमेट और वह उससे मिलने के लिए बेचैन हो उठता है, उसके प्यार में पड़ जाता है। प्लैटो के कहे की असली भावना पर जाएं तो हर किसी का सोलमेट कहीं न कहीं दुनिया में ज़रूर होता है। हो सकता है अपने देश में न हो, किसी पराये मुल्क में हो। हो सकता है वह अपनी भाषा नहीं बोलता हो, कोई और भाषा बोलता हो। लेकिन अगर मान लीजिए कि किसी को उसका सोलमेट मिल जाए तो उसे पहचानेगा कैसे? फिर अगर गलत पहचान हो गई तो! तो क्या आदमी ज़िंदगी भर अपना सोलमेट तलाशने के लिए ट्रायल एंड एरर पद...

मजे से दूधो नहाओ, पूतो फलो

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चिंता की कोई बात नहीं। ये आशीर्वाद अब बेधड़क दिया जा सकता है। आबादी का बढ़ना अब मुसीबत नहीं, भारत के लिए नेमत है। विकसित देशों की जनसंख्या वृद्धि दर ठहरी हुई है। कहीं-कहीं तो ये घटती जा रही है। जर्मनी में तो ज्यादा बच्चों पर इनसेंटिव दिया जाता है। आठ-दस बच्चे हो गए तो मियां-बीवी को नौकरी करने की कोई ज़रूरत नहीं। बच्चों की परवरिश के लिए सरकार से इतने यूरो मिल जाते हैं कि घर बैठे मौज कीजिए। अमेरिका, यूरोप और जापान से लेकर चीन तक बूढ़ों की तादाद बढ़ रही है, जबकि भारत की आधी से ज्यादा आबादी की उम्र 25 साल से कम है। कितना सुखद आश्चर्य होता है जब हम पाते हैं हमारी आधी से ज्यादा आबादी 1980 के बाद पैदा हुई है। दुनिया में जो डेमोग्राफिक तब्दीलियां आ रही है, उसमें हालत ये हो गई है कि विकसित देशों के पास तकनीक तो है, लेकिन काम करनेवाले लोग नहीं हैं। एक अनुमान के मुताबिक साल 2020 में दुनिया भर में 4.7 करोड़ कामगारों की कमी होगी, जबकि भारत के पास 4.5 से 5 करोड़ कामगार ज्यादा रहेंगे। अगर हमने ज़रूरी कौशल वाले कामगार तैयार कर लिये तो दुनिया की इस ज़रूरत को पूरा कर सकते हैं। विदेश में ही नहीं, देश में...

अंश भर अमरत्व की आस

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अमरत्व किसे नहीं चाहिए। वैज्ञानिक खोज में लगे हैं कि इंसान को कैसे अजर-अमर बनाया जा सकता है। कोई जब बताता है कि हिमालय की कंदाराओं में उसके कोई गुरु 500 सालों से तपस्या कर रहे हैं तो सुनकर बड़ा अचंभा होता है और कुतूहल भी। फिर, आम इंसान यह सोचकर तसल्ली कर लेता है कि चलो आत्मा तो अमर है। हम नहीं रहेंगे, मगर हमारी आत्मा तो रहेगी। वह सर्वदृष्टा है। सब कुछ देखती रहेगी। अमरता की इस अटूट चाहत का केंद्रीय भाव यही है कि हम बने रहें। जिंदा रहें तो लोग जानें-पहचानें और मर गए तब भी दुनिया हमें याद रखे। मैं अभी इसी अमरत्व की बात कर रहा हूं। गौतम बुद्ध अमर हो गए। कबीर अमर हो गए। महात्मा गांधी अमर हो गए। भगत सिंह अमर हो गए। इसलिए नहीं कि उनकी आत्मा जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परमात्मा के साथ मिलकर अब भी यहीं कहीं चक्कर काटती है। बल्कि इसलिए लाखों-करोड़ों लोग अब भी उनको याद करते हैं। दूसरों के दिमाग में जगह बनाना ही अमरता है। अमिताभ बच्चन जीते जी अमर हो गए हैं। मायावती तो जिंदा रहते अपनी मूर्तियां लगवा रही हैं ताकि लोग उन्हें याद रखें। वैसे, यह अमरता बड़ी सांसारिक किस्म की चीज़ है। और हर कोई इसे...

उर्दू में लिखा हुआ पढ़ते हैं मनमोहन

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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आज आज़ादी की 60वीं सालगिरह पर लाल किले की प्राचीर से बहुत सारी अच्छी-अच्छी बातें कीं। कुछ पुरानी घोषणाएं दोहराईं, कुछ नई घोषणाएं कीं। जैसे अनाज उत्पादन बढ़ाने के लिए खेती में 25,000 करोड़ रुपए लगाए जाएंगे। पांच नए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च, आठ नए आईआईटी, सात नए आईआईएम, 20 नए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी और 1600 नए आईटीआई खोले जाएंगे। सरकार सुनिश्चित करेगी कि हर साल एक करोड़ छात्रों को वोकेशनल ट्रेनिंग दी जाए। लेकिन जब सुबह मैं उन्हे भाषण देते देख रहा था तो मेरी नज़र के कैमरे ने वह सीन कैद कर लिया, जब वे अपने लिखित भाषण के पन्ने बाएं से दाएं नहीं, बल्कि दाएं से बाएं की तरफ पलट रहे थे और उनका भाषण हिंदी या अंग्रेजी में नहीं, बल्कि उर्दू में लिखा हुआ था। मेरा ध्यान मनमोहन सिंह की बातों से हट गया। मेरे जेहन में बचपन की बातें तैरनी लगीं। कैसे मेरे बाबूजी ने अलिफ-बे जैसे कई अक्षर सिखाने की कोशिश की थी। उनकी शुरुआती पढ़ाई उर्दू में ही हुई थी। मेरी बुआ ने भी मिडिल तक उर्दू में ही पढ़ा था। ये भी याद आया कि हमारे अवध के इलाके में आज...

आधा तीतर, आधा बटेर तो कभी मुर्गा छाप पटाखे

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इस समय देश की आधी-सी ज्यादा आबादी की उम्र 25 साल से कम है। इसी नौजवान पीढ़ी के एक प्रतिनिधि हैं मेरे सहकर्मी आदर्श कुमार । आज़ादी की साठवीं सालगिरह वो थोड़ा भावुक हुए तो काफी हद तक यथार्थपरक भी रहे। उन्होंने अपने संदेश में हमारी राजनीति की परत-परत दर खोलकर देखी है। संदेश बड़ा था, इसलिए उसे संपादित करके पेश कर रहा हूं। जिंदगी के 25 पतझड़-सावन-बसंत-बहार बीत चुके हैं, या यूं कहें कि मैंने अपनी उम्र की रजत जयंती मना ली है। ये पच्चीसवां पंद्रह अगस्त है, जो मेरी जिंदगी में आया है। इस पंद्रह अगस्त का कभी मुझे बेसब्री से इंतजार रहता था। बात सन् 1987 की है, पांच साल का मासूम था। पहली अगस्त से ही मेरे स्कूल में पंद्रह अगस्त की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। तब मैं भी देशभक्ति गीतों के रियाज और क्रांतिकारी नारे लगाने में मशगूल हो जाता, एकिक नियम जाए तेल बेचने। मैं अपने स्कूल में सबसे ज्यादा जोर से इंकलाब-जिंदाबाद के नारे लगाता था। वक्त बीतता गया। इसकी गूंज रूह में समाती चली गई। पारिवारिक माहौल राजनीतिक था, धीरे-धीरे देश की दिशा-दशा समझने लगा था। उन दिनों राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, उनके बारे में एक...