सांप का खून ठंडा, पुलिस का उससे भी ठंडा
एनकाउंटर का सच: जीतेंद्र दीक्षित के खुलासे का बाकी हिस्सा
एनकाउंटर के ठिकाने पर गाड़ी आकर रुकती है। एनकाउंटर करनेवाला अफसर पहले ही वहां पहुंच चुका होता है। दस्ते के सभी सदस्य अपना मोबाइल फोन बंद कर देते हैं। आसपास मुआयना किया जाता है कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा। अगर कोई फेरीवाला, भिखारी या इक्का-दुक्का राहगीर नजर आता है तो उसे डांट-डपट कर भगा दिया जाता है। जब पूरी तरह से तसल्ली हो जाती है कि आसपास कोई चश्मदीद नहीं है तो कार में बैठे आरोपी को बाहर निकलने को कहा जाता है। उसके हाथ अब भी हथकडी से बंधे हुए होते हैं। कार से बाहर निकलते वक्त आरोपी जोरों से रोता है, चिल्लाता है, जान बख्श देने की फरियाद करता है, लेकिन उसकी चीख पुकार ज्यादा देर तक कायम नहीं रहती।
फटाक...फटाक...फटाक...4 से 5 फुट की दूरी पर खडा अफसर अपनी सरकारी रिवॉल्वर से उस पर गोलियां बरसाने लगता है। खासकर आरोपी के पेट में, पैर में और सिर में गोली मारी जाती है। आरोपी गोलियां लगते ही गिर पडता है और उसकी सांसें कम होती जातीं हैं। खून से लथपथ आरोपी के हाथ में पिस्तौल या रिवॉल्वर पकडाई जाती है (जो आमतौर पर आरोपी के पास से ही पुलिस जब्त करती है)। उस हथियार से हवा में 2-3 गोलियां फायर की जातीं हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि ये बताया जा सके कि आरोपी ने भी पुलिस पर गोलियां चलाईं थीं।
कुछ ही देर में आरोपी तड़प-तड़पकर दम तोड देता है। आरोपी मरा है कि नहीं, इस बात की तसल्ली करने के लिए दस्ते के सदस्य उसकी नब्ज देखते हैं। नाक को दबाया जाता है ताकि अगर वो जिंदा है तो मुंह से सांस लेने की कोशिश करेगा। आरोपी की पीठ पर हाथ रखने से भी पता चला है कि उसकी सांसें चल रही हैं या नहीं। अगर रात के वक्त एनकाउंटर हुआ है तो आरोपी की आंखों पर लगातार टॉर्च की रोशनी डाली जाती है। अगर वो जिंदा हुआ तो उसकी आंखों की पुतलियां हिलती हैं।
एनकाउंटर के तुरंत बाद आरोपी की मौत की पुष्टि करना बेहद जरूरी होता है। खासकर चंद साल पहले हुए एक एनकाउंटर से मुंबई पुलिस ने ये सबक लिया है। मुंबई पुलिस के एक एनकाउंटर दस्ते ने छोटा राजन गिरोह के पांच शूटरों को एक एनकाउंटर में मारा था। उनमें राजन का खास साथी डी के राव भी था। जब सभी शूटरों के शव को अस्पताल ले जाया गया तो वहां हडकंप मच गया। डी के राव स्ट्रैचर पर से उठ बैठा और चिल्लाने लगा - “मैं मरा नहीं हूं। मुझे बचाओ। मुझे बचाओ।”
दरअसल राव ने योगासन का कोर्स कर रखा था और एनकाउंटर के ठिकाने से लेकर अस्पताल आने तक उसने अपनीं सांस रोके रखी। पुलिसवालों को लगा कि वो मर चुका है। इस मामले के बाद से एनकाउंटर दस्ते के सदस्य हमेशा एहतियात बरतते हैं कि उनकी गोली खानेवाला आरोपी कभी जिंदा अस्पताल न पहुंचे।
एनकाउंटर के बाद पुलिस कंट्रोल-रूम को फोन किया जाता है। कंट्रोल-रूम को जानकारी दी जाती है कि पुलिस टीम पर फायरिंग करने वाला एक गैंगस्टर जवाबी कार्रवाई में मारा गया। स्थानीय पुलिस थाने की टीम तुरंत मौके पर पहुंचती है और शव को अस्पताल भेजा जाता है। एनकाउंटर दस्ते के सभी सदस्यों की भूमिका तय होती है। एक अफसर पंचनामा करने में स्थानीय पुलिसकर्मियों की मदद करता है। पंच जान-पहचान के ही लोग होते हैं और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अफसर अपने लगभग सभी एनकाउंटरों में अपने भरोसे के इन्ही पंचों को बुलाता है। किसी सदस्य को जिम्मेदारी दी जाती है अखबारों और न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों को इत्तला करने की।
रिपोर्टरों को क्या कहानी बतानी है ये आला अफसरों के साथ मिलकर पहले ही तय कर लिया जाता है। अगर एनकाउंटर दिन में हुआ है तो आमतौर पर बताया जाता है कि मारा गया शूटर अमुक ठिकाने पर किसी बिल्डर, व्यापारी या फिल्मी हस्ती पर फायरिंग करने वाला था। अगर एनकाउंटर देर रात में हुआ है तो बताया जाता है कि वो अपने साथी से मिलने आया था। टीवी चैनलों से एनकाउंटर स्पेशलिस्ट या तो खुद बात करता है या फिर उसका डीसीपी।
पोस्टमार्टम ‘सही ढंग’ से करवाने की जिम्मेदारी किसी अफसर को दी गई होती है। इस अफसर की जिम्मेदारी होती है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट ऐसी तैयार करवाई जाए जिससे कि एनकाउंटर दस्ता आगे जाकर किसी मुसीबत में न फंसे। इसके लिए पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों को ‘खुश’ रखा जाता है। पोस्टमार्टम के दौरान कई बार डॉक्टर ‘एक्सट्रा इंजरी’ ( पकडे़ जाने पर आरोपी को मारे-पीटे जाते वक्त के घाव) छिपाने के लिए भी पैसे मांगते हैं। इन्हें संतुष्ट करने के लिए अलग से बजट रखा जाता है।
जिस जगह पर एनकाउंटर हुआ है, वहां का स्थानीय पुलिस थाना मामला दर्ज करके एनकाउंटर की ‘जांच’ शुरू करता है। मारे गये आरोपी के खिलाफ इंडियन पेनल कोड की धारा 307 (हत्या की कोशिश) और 353 ( सरकारी नौकर से दुर्व्यवहार) के तहत मामला दर्ज किया जाता है। उस पर आर्म्स एक्ट की धारा 25 (A) भी लगाई जाती है।
मारे गये गैंगस्टर के घरवालों को फोन या तार के जरिये इत्तला कर दिया जाता है। गैंगस्टर के शव के पास से बरामद पिस्तौल को फोरेंसिक लैब के लिए भेजा जाता है। लैब अपनी रिपोर्ट में बताती है कि पिस्तौल गोली चलाने के लायक थी या नहीं, उससे गोली चली या नहीं आदि।
एनकाउंटर के ठिकाने पर गाड़ी आकर रुकती है। एनकाउंटर करनेवाला अफसर पहले ही वहां पहुंच चुका होता है। दस्ते के सभी सदस्य अपना मोबाइल फोन बंद कर देते हैं। आसपास मुआयना किया जाता है कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा। अगर कोई फेरीवाला, भिखारी या इक्का-दुक्का राहगीर नजर आता है तो उसे डांट-डपट कर भगा दिया जाता है। जब पूरी तरह से तसल्ली हो जाती है कि आसपास कोई चश्मदीद नहीं है तो कार में बैठे आरोपी को बाहर निकलने को कहा जाता है। उसके हाथ अब भी हथकडी से बंधे हुए होते हैं। कार से बाहर निकलते वक्त आरोपी जोरों से रोता है, चिल्लाता है, जान बख्श देने की फरियाद करता है, लेकिन उसकी चीख पुकार ज्यादा देर तक कायम नहीं रहती।
फटाक...फटाक...फटाक...4 से 5 फुट की दूरी पर खडा अफसर अपनी सरकारी रिवॉल्वर से उस पर गोलियां बरसाने लगता है। खासकर आरोपी के पेट में, पैर में और सिर में गोली मारी जाती है। आरोपी गोलियां लगते ही गिर पडता है और उसकी सांसें कम होती जातीं हैं। खून से लथपथ आरोपी के हाथ में पिस्तौल या रिवॉल्वर पकडाई जाती है (जो आमतौर पर आरोपी के पास से ही पुलिस जब्त करती है)। उस हथियार से हवा में 2-3 गोलियां फायर की जातीं हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि ये बताया जा सके कि आरोपी ने भी पुलिस पर गोलियां चलाईं थीं।
कुछ ही देर में आरोपी तड़प-तड़पकर दम तोड देता है। आरोपी मरा है कि नहीं, इस बात की तसल्ली करने के लिए दस्ते के सदस्य उसकी नब्ज देखते हैं। नाक को दबाया जाता है ताकि अगर वो जिंदा है तो मुंह से सांस लेने की कोशिश करेगा। आरोपी की पीठ पर हाथ रखने से भी पता चला है कि उसकी सांसें चल रही हैं या नहीं। अगर रात के वक्त एनकाउंटर हुआ है तो आरोपी की आंखों पर लगातार टॉर्च की रोशनी डाली जाती है। अगर वो जिंदा हुआ तो उसकी आंखों की पुतलियां हिलती हैं।
एनकाउंटर के तुरंत बाद आरोपी की मौत की पुष्टि करना बेहद जरूरी होता है। खासकर चंद साल पहले हुए एक एनकाउंटर से मुंबई पुलिस ने ये सबक लिया है। मुंबई पुलिस के एक एनकाउंटर दस्ते ने छोटा राजन गिरोह के पांच शूटरों को एक एनकाउंटर में मारा था। उनमें राजन का खास साथी डी के राव भी था। जब सभी शूटरों के शव को अस्पताल ले जाया गया तो वहां हडकंप मच गया। डी के राव स्ट्रैचर पर से उठ बैठा और चिल्लाने लगा - “मैं मरा नहीं हूं। मुझे बचाओ। मुझे बचाओ।”
दरअसल राव ने योगासन का कोर्स कर रखा था और एनकाउंटर के ठिकाने से लेकर अस्पताल आने तक उसने अपनीं सांस रोके रखी। पुलिसवालों को लगा कि वो मर चुका है। इस मामले के बाद से एनकाउंटर दस्ते के सदस्य हमेशा एहतियात बरतते हैं कि उनकी गोली खानेवाला आरोपी कभी जिंदा अस्पताल न पहुंचे।
एनकाउंटर के बाद पुलिस कंट्रोल-रूम को फोन किया जाता है। कंट्रोल-रूम को जानकारी दी जाती है कि पुलिस टीम पर फायरिंग करने वाला एक गैंगस्टर जवाबी कार्रवाई में मारा गया। स्थानीय पुलिस थाने की टीम तुरंत मौके पर पहुंचती है और शव को अस्पताल भेजा जाता है। एनकाउंटर दस्ते के सभी सदस्यों की भूमिका तय होती है। एक अफसर पंचनामा करने में स्थानीय पुलिसकर्मियों की मदद करता है। पंच जान-पहचान के ही लोग होते हैं और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अफसर अपने लगभग सभी एनकाउंटरों में अपने भरोसे के इन्ही पंचों को बुलाता है। किसी सदस्य को जिम्मेदारी दी जाती है अखबारों और न्यूज चैनलों के रिपोर्टरों को इत्तला करने की।
रिपोर्टरों को क्या कहानी बतानी है ये आला अफसरों के साथ मिलकर पहले ही तय कर लिया जाता है। अगर एनकाउंटर दिन में हुआ है तो आमतौर पर बताया जाता है कि मारा गया शूटर अमुक ठिकाने पर किसी बिल्डर, व्यापारी या फिल्मी हस्ती पर फायरिंग करने वाला था। अगर एनकाउंटर देर रात में हुआ है तो बताया जाता है कि वो अपने साथी से मिलने आया था। टीवी चैनलों से एनकाउंटर स्पेशलिस्ट या तो खुद बात करता है या फिर उसका डीसीपी।
पोस्टमार्टम ‘सही ढंग’ से करवाने की जिम्मेदारी किसी अफसर को दी गई होती है। इस अफसर की जिम्मेदारी होती है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट ऐसी तैयार करवाई जाए जिससे कि एनकाउंटर दस्ता आगे जाकर किसी मुसीबत में न फंसे। इसके लिए पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों को ‘खुश’ रखा जाता है। पोस्टमार्टम के दौरान कई बार डॉक्टर ‘एक्सट्रा इंजरी’ ( पकडे़ जाने पर आरोपी को मारे-पीटे जाते वक्त के घाव) छिपाने के लिए भी पैसे मांगते हैं। इन्हें संतुष्ट करने के लिए अलग से बजट रखा जाता है।
जिस जगह पर एनकाउंटर हुआ है, वहां का स्थानीय पुलिस थाना मामला दर्ज करके एनकाउंटर की ‘जांच’ शुरू करता है। मारे गये आरोपी के खिलाफ इंडियन पेनल कोड की धारा 307 (हत्या की कोशिश) और 353 ( सरकारी नौकर से दुर्व्यवहार) के तहत मामला दर्ज किया जाता है। उस पर आर्म्स एक्ट की धारा 25 (A) भी लगाई जाती है।
मारे गये गैंगस्टर के घरवालों को फोन या तार के जरिये इत्तला कर दिया जाता है। गैंगस्टर के शव के पास से बरामद पिस्तौल को फोरेंसिक लैब के लिए भेजा जाता है। लैब अपनी रिपोर्ट में बताती है कि पिस्तौल गोली चलाने के लायक थी या नहीं, उससे गोली चली या नहीं आदि।
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पर पंजाब या माफिया/डाकुओं जैसा आतंकवाद, ऐसे एनकाउण्टर के बिना; अजगरी न्याय प्रक्रिया के भरोसे दूर हो सकता है?