बस एक ही मोदी काफी है इन पंथियों के लिए
क्या करूं, दिल से सच्चे लोकतांत्रिक भारत का हिमायती हूं। इसलिए गुजरात में नरेंद्र मोदी की जीत अभी तक पच नहीं पा रही। वजह ये भी है कि गुजरात के कुल लगभग 3.66 करोड़ मतदाताओं में से 1.07 करोड़ (29.35%) मतदाताओं ने ही मोदी को वोट दिया है। बाकी दो तिहाई से ज्यादा गुजराती मतदाताओं ने या तो वोट ही नहीं डाले या मोदी के खिलाफ वोट डाला। वोट न देनेवाले गुजराती मतदाताओं की संख्या करीब 1.47 करोड़ रही है। यानी जितने गुजरातियों ने मोदी को जिताया है, उससे 40 लाख ज्यादा मतदाता घर से वोट देने निकले ही नहीं। फिर जिन 2.18 करोड़ (59.76%) मतदाताओं ने वोट डाले, उनमें से 49.12% (1.07 करोड़) मतदाताओं ने मोदी को वोट दिया तो 50.88% (1.11 करोड़) मतदाता उनके खिलाफ रहे। अगर ये सारे वोट एक जगह पड़े होते तो आज मोदी के अंधभक्त भी उन्हें गुजराती अस्मिता का प्रतीक बताने की जुर्रत नहीं कर पाते।
साफ है कि मोदी की जीत निरपेक्ष नहीं, सापेक्ष है। वह हमारे लूले-लंगड़े लोकतंत्र का नतीजा है। देश में सचमुच का स्वस्थ व आधुनिक लोकतंत्र होता तो जीत का सेहरा मोदी के नहीं, किसी और के सिर पर बंधता। यह भी स्पष्ट है कि मौजूदा चुनाव प्रणाली के तहत भारत कभी भी लोकतांत्रिक गणराज्य नहीं बन सकता।
हमारे संविधान में भारत को सेक्यूलर या पंथनिरपेक्ष (जिसे हम लोग धर्मनिरपेक्ष कहते रहते हैं) भी कहा गया है। गुजरात चुनावों ने यह भी मौका मुहैया कराया है कि हम इस सेक्यूलर या पंथनिरपेक्ष होने को भी नए सिरे से परखें। अपने व्यवहार से वामपंथियों ने ही नहीं, कांग्रेस ने भी साबित कर दिया है कि वह असल में वह पंथनिरपेक्ष नहीं, बल्कि घनघोर पंथी है। और आज से नहीं, नेहरू के जमाने से ही इसी पंथवाद पर अमल करती रही है। इस पर कवि राजेश चेतन ने बड़ी सारगर्भित पंक्तियां लिखी हैं कि, “धोती बांधने के आग्रह पर केरल के मंदिर में नेहरू जी द्वारा आग बबूला हो जाना और निज़ामुद्दीन की दरगाह पर प्रसन्नतापूर्वक टोपी लगाना इसी का नाम है धर्मनिरपेक्षता निभाना।”
असल में नेहरू की अगुआई में कांग्रेस ने शुरू से ही पंथ या धर्म-निरेपक्षता के लिए राष्ट्रीयताओं की पश्चिमी अवधारणा पर अमल किया। उन्होंने भारत में इस्लाम और हिंदू धर्म के परस्पर गुंफित होते जाने की हकीकत की परवाह नहीं की। उन्होंने यह नहीं देखा कि भक्ति आंदोलन और सूफी आंदोलन के समय से हिंदुस्तान में एक समान तहजीब विकसित होती रही है, जिसके आधार पर ही अपनी विशिष्ट धर्मनिरपेक्षता बन सकती है। सरकार के नजरिये में कबीर जैसा दम होना चाहिए था कि एक साथ मुल्ला को मुर्गा और पंडित को भेड़ बता सकें। लेकिन कांग्रेस ने शुरू से ही एक साथ सारे धर्मों और संप्रदायों को पुचकारते रहने की नीति पर अमल किया।
इतिहास गवाह है कि मुस्लिम समुदाय को डराकर कांग्रेस खुद को उनका तारणहार साबित करती रही और जरूरत पड़ी तो हिंदुओं की सनातनी भावना को भी सहलाने से नहीं चूकी। वामपंथियों ने तो शुरू से ही अपनी हर सोच को मार्क्सवादी पोथियों के हवाले कर रखा है। उनकी सोच में अंतर्निहित विसंगति का सबूत है कि सच्चर आयोग के मुताबिक पूरे देश में मुस्लिम समुदाय की सबसे खराब हालत पश्चिम बंगाल में ही है। कांग्रेस और वामपंथयों के सेक्यूलरवाद का सच अगर भारत की ज़मीनी हकीकत से परे न होता और महज वोट बटोरने का ढकोसला न होता तो शायद मोदी इस बार ही नहीं, पिछली बार भी गुजरात में चुनाव नहीं जीत पाते।
आखिरी में उस विकास की बात, मोदी को जिसका मसीहा बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि मोदी पूरे गुजरात के विकास के लिए समर्पित हैं। इसी के दम पर उन्होंने लोगों का दिल जीता और चुनाव जीतना तो इसका बाई-प्रोडक्ट है। मैं एक बार फिर दोहराना चाहता हूं कि मुझे मोदी के ईमान पर कोई शक नहीं है। वे एक कुशल प्रशासक हैं और गुजरात में ज्यादा से ज्यादा पूंजी लाना चाहते हैं। लेकिन इस विकास के साथ ऐतिहासिक लोचा है। मैंने कल ही इकोनॉमिक टाइम्स में एक लेख पढ़ा, जिसमें बड़े मार्के का तथ्य बताया गया है कि 1930 के दशक में दुनिया के तीन देश अलग-अलग नेताओं और राजनीतिक विचारधाराओं के तहत धुआंधार रफ्तार से ‘विकास’ कर रहे थे। अमेरिका रूजवेल्ट की अगुआई में महामंदी से उबरने की राह पर था। जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में पहले विश्वयुद्ध की तबाही के बाद पुनर्निर्माण चल रहा था और रूस स्टालिन के फौलादी शासन में पश्चिमी ताकतों से मुकाबले की तैयारी में जुटा था।
इन तीनों नेताओं में दो चीजें समान थीं : आर्थिक विकास के लिए जुनूनी प्रतिबद्धता और जनता का जबरस्त जुनूनी समर्थन। बाकी सारे मामलों में वे भिन्न थे। उनकी राजनीतिक विचारधाराएं अलग थी। साफ है कि नेताओं के लिए विकास अपनी सत्ता को मजबूत बनाने का एक नारा है और वह किसी भी तरह की राजनीतिक विचारधारा के बावजूद व्यापक अवाम के लिए दूरगामी रूप से घातक बन सकता है। वैसे, मोदी की राजनीति कई मामलों में हिटलर से मिलती है। अल्पसंख्यक समुदाय पर निशाना साधकर उसे नफरत की चीज़ बना देना, लोकतांत्रिक संस्थाओं की अवमानना, करिश्माई व्यक्तित्व, देश के नाम पर नस्ल का महिमामंडन और ये साबित करना है कि उसके जैसा मजबूत नेता ही समृद्धि, खुशहाली और सुरक्षा ला सकता है। बल्कि एक मायने में मोदी हिटलर से भी आगे हैं। हिटलर के पास झूठ को सच बनाकर पेश करनेवाला एक ही ग्योबेल्स था, जबकि मोदी के पास ऐसे ढिढोरची बहुतेरे हैं।
साफ है कि मोदी की जीत निरपेक्ष नहीं, सापेक्ष है। वह हमारे लूले-लंगड़े लोकतंत्र का नतीजा है। देश में सचमुच का स्वस्थ व आधुनिक लोकतंत्र होता तो जीत का सेहरा मोदी के नहीं, किसी और के सिर पर बंधता। यह भी स्पष्ट है कि मौजूदा चुनाव प्रणाली के तहत भारत कभी भी लोकतांत्रिक गणराज्य नहीं बन सकता।
हमारे संविधान में भारत को सेक्यूलर या पंथनिरपेक्ष (जिसे हम लोग धर्मनिरपेक्ष कहते रहते हैं) भी कहा गया है। गुजरात चुनावों ने यह भी मौका मुहैया कराया है कि हम इस सेक्यूलर या पंथनिरपेक्ष होने को भी नए सिरे से परखें। अपने व्यवहार से वामपंथियों ने ही नहीं, कांग्रेस ने भी साबित कर दिया है कि वह असल में वह पंथनिरपेक्ष नहीं, बल्कि घनघोर पंथी है। और आज से नहीं, नेहरू के जमाने से ही इसी पंथवाद पर अमल करती रही है। इस पर कवि राजेश चेतन ने बड़ी सारगर्भित पंक्तियां लिखी हैं कि, “धोती बांधने के आग्रह पर केरल के मंदिर में नेहरू जी द्वारा आग बबूला हो जाना और निज़ामुद्दीन की दरगाह पर प्रसन्नतापूर्वक टोपी लगाना इसी का नाम है धर्मनिरपेक्षता निभाना।”
असल में नेहरू की अगुआई में कांग्रेस ने शुरू से ही पंथ या धर्म-निरेपक्षता के लिए राष्ट्रीयताओं की पश्चिमी अवधारणा पर अमल किया। उन्होंने भारत में इस्लाम और हिंदू धर्म के परस्पर गुंफित होते जाने की हकीकत की परवाह नहीं की। उन्होंने यह नहीं देखा कि भक्ति आंदोलन और सूफी आंदोलन के समय से हिंदुस्तान में एक समान तहजीब विकसित होती रही है, जिसके आधार पर ही अपनी विशिष्ट धर्मनिरपेक्षता बन सकती है। सरकार के नजरिये में कबीर जैसा दम होना चाहिए था कि एक साथ मुल्ला को मुर्गा और पंडित को भेड़ बता सकें। लेकिन कांग्रेस ने शुरू से ही एक साथ सारे धर्मों और संप्रदायों को पुचकारते रहने की नीति पर अमल किया।
इतिहास गवाह है कि मुस्लिम समुदाय को डराकर कांग्रेस खुद को उनका तारणहार साबित करती रही और जरूरत पड़ी तो हिंदुओं की सनातनी भावना को भी सहलाने से नहीं चूकी। वामपंथियों ने तो शुरू से ही अपनी हर सोच को मार्क्सवादी पोथियों के हवाले कर रखा है। उनकी सोच में अंतर्निहित विसंगति का सबूत है कि सच्चर आयोग के मुताबिक पूरे देश में मुस्लिम समुदाय की सबसे खराब हालत पश्चिम बंगाल में ही है। कांग्रेस और वामपंथयों के सेक्यूलरवाद का सच अगर भारत की ज़मीनी हकीकत से परे न होता और महज वोट बटोरने का ढकोसला न होता तो शायद मोदी इस बार ही नहीं, पिछली बार भी गुजरात में चुनाव नहीं जीत पाते।
आखिरी में उस विकास की बात, मोदी को जिसका मसीहा बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि मोदी पूरे गुजरात के विकास के लिए समर्पित हैं। इसी के दम पर उन्होंने लोगों का दिल जीता और चुनाव जीतना तो इसका बाई-प्रोडक्ट है। मैं एक बार फिर दोहराना चाहता हूं कि मुझे मोदी के ईमान पर कोई शक नहीं है। वे एक कुशल प्रशासक हैं और गुजरात में ज्यादा से ज्यादा पूंजी लाना चाहते हैं। लेकिन इस विकास के साथ ऐतिहासिक लोचा है। मैंने कल ही इकोनॉमिक टाइम्स में एक लेख पढ़ा, जिसमें बड़े मार्के का तथ्य बताया गया है कि 1930 के दशक में दुनिया के तीन देश अलग-अलग नेताओं और राजनीतिक विचारधाराओं के तहत धुआंधार रफ्तार से ‘विकास’ कर रहे थे। अमेरिका रूजवेल्ट की अगुआई में महामंदी से उबरने की राह पर था। जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में पहले विश्वयुद्ध की तबाही के बाद पुनर्निर्माण चल रहा था और रूस स्टालिन के फौलादी शासन में पश्चिमी ताकतों से मुकाबले की तैयारी में जुटा था।
इन तीनों नेताओं में दो चीजें समान थीं : आर्थिक विकास के लिए जुनूनी प्रतिबद्धता और जनता का जबरस्त जुनूनी समर्थन। बाकी सारे मामलों में वे भिन्न थे। उनकी राजनीतिक विचारधाराएं अलग थी। साफ है कि नेताओं के लिए विकास अपनी सत्ता को मजबूत बनाने का एक नारा है और वह किसी भी तरह की राजनीतिक विचारधारा के बावजूद व्यापक अवाम के लिए दूरगामी रूप से घातक बन सकता है। वैसे, मोदी की राजनीति कई मामलों में हिटलर से मिलती है। अल्पसंख्यक समुदाय पर निशाना साधकर उसे नफरत की चीज़ बना देना, लोकतांत्रिक संस्थाओं की अवमानना, करिश्माई व्यक्तित्व, देश के नाम पर नस्ल का महिमामंडन और ये साबित करना है कि उसके जैसा मजबूत नेता ही समृद्धि, खुशहाली और सुरक्षा ला सकता है। बल्कि एक मायने में मोदी हिटलर से भी आगे हैं। हिटलर के पास झूठ को सच बनाकर पेश करनेवाला एक ही ग्योबेल्स था, जबकि मोदी के पास ऐसे ढिढोरची बहुतेरे हैं।
Comments
:)
दूसरी तरफ़ यह भी लगता है कि क्यों मीडिया का एक हिस्सा मोदी की जीत को पचा नही पा रहा है ( हालांकि मुझे खुद पसंद नही आय उनका जीतना)। मीडिया अब भी विश्लेषण आदि में ही लगा है जैसे आप भी। भाई साहब, लोकतंत्र है अगर इस लोकतंत्र के बाद भी किसी की जीत पचाई न जाए मतलब ऐसे आंकड़े निकाले जाए इसका मतलब यह है कि हम ऐसे लोकतंत्र को ही पसंद नही कर रहे। इसका मतलब क्या यह हुआ कि अगर लोकतंत्र हमारे मनमाफिक नतीजे न दे तो वह सही ही नही है।
क्यों हम या हमारा मीडिया बीती बातों पर ही अटका है, मोदी जीत गएतो बजाय इसके कि उनके नए कार्यकाल पर ज्यादा अच्छे से नज़र रखें। मीडिया अभी तक लटका पड़ा है चुनावों पर ही।
आपकी आपत्ति इस हद तक ठीक है कि इस तरह का विश्लेषण केवल मोदी के संदर्भ में होना, और दूसरे राजनेताओं या राजनीतिक दलों की जीत के संदर्भ में न होना सम्यक नहीं है।
लेकिन इस मिथक को तथ्यों के आईने में रखकर झुठलाना जरूरी है कि भारत में कोई लोकतंत्र है। सच्चाई यही है कि भारत में अभी तक लोकतंत्र का सही मायने में विकास नहीं हो पाया है। जब तक हम इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की दिशा में सोचने और कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं हो सकेंगे।
यदि भारत की जनता और खासकर बौद्धिक वर्ग इस बात को आज समझ ले तो अगले पांच वर्षों के बाद शायद सच्चे लोकतंत्र को साकार हुआ हम देख सकते हैं।
दीपक भारतदीप
आपकी यह सबसे बड़ी विशेषता यही है कि आप अपनी बात कभी भी ठीक से नहीं कह पाते हैं।
पहली ही पंक्ति में आप लोकतन्त्र की झूठी कसम खाकर शुरू करते हैं और आगे लोकतान्त्रिक रूप से चुने नरेन्द्र को नहीं पचा पाते ( कहीं आप भी पद्मश्री के लिये 'तेल' तो नहीं लगा रहे?)
जरा ये बताइये कि जो लोग मतदान करने नहीं गये वे क्या सब नरेन्द्र मोदी के विरोधी थे? मैने तो भारत में ऐसे मुहल्ले देखें हैं जहाँ सौ-प्रतिशत वोट पड़ते हैं। बुरके को उठाकर आप देख भी नहीं सकते कि कौन वोट डाल रहा है? मुझे तो लगता है कि जिन्होने मत नहीं दिया वे सब नरेन्द्र मोदी के आलसी समर्थक हैं।
आज (विदेशी) सोनिया भारतमाता के सिर पर बैठी हुई है? उनकी पार्टी को कितने प्रतिशत मत प्राप्त हैं?