समाजवाद का फ्रॉड जारी क्यों रहे माई लॉर्ड!
इतिहास गवाह है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द तब जोड़ा गया, जब देश में लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया था। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा रखी थी। अपना निरंकुश चेहरा छिपाने के लिए ही इंदिरा गांधी ने 42वां संविधान संशोधन, 1976 पेश किया और संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ दिए। ध्यान देने की बात यह है कि संविधान सभा की बहसों के दौरान भी समाजवाद को संविधान में शामिल करने की मांग उठी थी, लेकिन बाबासाहब भीमराव अंबेडकर ने इसे यह कहते हुए खारिज़ कर दिया था कि, “इसका मतलब लोकतंत्र को पूरी तरह नष्ट कर देना होगा।” बाबासाहब की दूरदृष्टि का प्रमाण और क्या हो सकता है कि इस शब्द को संविधान में तब शामिल किया गया है जब देश में लोकतंत्र था ही नहीं।
उसके बाद हुआ यह कि 1989 में राजीव गांधी ने संसद में अपने पूर्ण बहुमत की बदौलत जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके अनिवार्य बना दिया कि जो पार्टियां खुद को समाजवादी घोषित करेंगी, वही देश में चुनाव लड़ सकती हैं। उस दौरान संसद में इस संशोधन पर हुई बहस में राजीव गांधी ने कहा था कि जो पार्टी भारतीय संविधान में पूर्ण आस्था नहीं रखती, उसे राजनीतिक पार्टी के रूप में मान्यता पाने का हक नहीं है। ज़ाहिर है कि आज जो भी पार्टी चुनाव लड़ती है, उसे संविधान में आस्था दिखाने के साथ ही परोक्ष रूप से स्वीकार करना पड़ता है कि वह समाजवाद में यकीन रखती है।
अब आप ही बताइए कि इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है? 1991 में उदार आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद कांग्रेस खुलेआम समाजवाद को सलाम बोल चुकी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिह समेत कांग्रेस के तमाम नेता नेहरू के समाजवाद के खिलाफ बोलते रहते हैं। आज की तारीख में कांग्रेस का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है। देश की दूसरी प्रमुख पार्टी बीजेपी ने एक समय गांधीवादी समाजवाद का नारा ज़रूर दिया था, लेकिन वह व्यापक राजनीतिक स्वीकृति बनाने के लिए किया गया उसका शुद्ध फ्रॉड था। मुलायम सिंह की पार्टी में समाजवादी शब्द जुड़ा हुआ है। लेकिन मुलायम सिंह के समाजवाद के सच को जानने के लिए किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं है। क्या कीजिएगा, कहने को तो लालू भी समाजवादी ही हैं।
अफसोस की बात यह है कि समाजवाद के नाम पर हो रहे इस खुल्लमखुल्ला फ्रॉड के बावजूद हमारा सुप्रीम कोर्ट इस शब्द को संविधान की प्रस्तावना से हटाने की याचिका पर गौर करने को तैयार नहीं है। अभी दो दिन पहले इसी मंगलवार (8 जनवरी, 2008) को मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता में बनी तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि, “आप समाजवाद को कम्युनिस्टों के परिभाषित संकीर्ण अर्थ में क्यों लेते हैं? व्यापक संदर्भों में इसका मतलब नागरिकों के लिए किए जानेवाले कल्याणकारी उपायों से है। ...इस शब्द का कोई निश्चित अर्थ नहीं है। अलग-अलग समय पर इसका अलग अर्थ होता है।”
असल में यही अलग-अलग अर्थ आज हमारी राजनीतिक पार्टियों को समाजवाद के नाम पर हर तरह का पाप करने की छूट दे रहे हैं। हर पार्टी के नेता इसी के नाम पर करोड़ों की निजी जागीर बना रहे हैं। कम से कम दलित समुदाय से आए मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन से तो उम्मीद थी कि वह राजनीति में चल रहे इस फ्रॉड को रोकेंगे। लेकिन वे भी तो इसी सत्ता प्रतिष्ठान के हिस्सा हैं। आखिर कैसे इसके खिलाफ जा सकते थे? शुक्र की बात यह है कि उन्होंने कोलकाता के एनजीओ Good Governance India Foundation की याचिका के उस हिस्से को स्वीकार कर लिया जिसमें जन प्रतिनिधित्व कानून में 1989 में किए गए संशोधन को चुनौती दी गई है। कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने यहां तक कहा कि वो उन राजनीतिक पार्टियों की मान्यता रद्द करने पर विचार करेगी जिन्होंने अपने असली उद्देश्यों के विपरीत चुनाव घोषणापत्र में गलत तरीके से समाजवाद से जुड़ाव की बात कही है। कोर्ट ने इस मसले पर केंद्र और चुनाव आयोग को नोटिस भी जारी किया है।
लेकिन पेंच यही है कि जब संविधान को मानना राजनीतिक पार्टियों के लिए मान्यता और चुनाव लड़ने की अनिवार्य शर्त है तो कोई पार्टी संविधान की प्रस्तावना को ही न मानने की घोषणा कैसे कर सकती है? और ऐसा न करने का मतलब ही होगा कि वह समाजवाद को स्वीकार कर रही है। संविधान और कानून के इसी किंतु, परंतु और ये भी ठीक, वो भी ठीक के चलते ही शायद पाश ने कहा था :
यह पुस्तक मर चुकी है, इसे न पढें
इसके शब्दों में मौत की ठंडक है
और एक-एक पृष्ठ ज़िंदगी के आखिरी पल जैसा भयानक...
उसके बाद हुआ यह कि 1989 में राजीव गांधी ने संसद में अपने पूर्ण बहुमत की बदौलत जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके अनिवार्य बना दिया कि जो पार्टियां खुद को समाजवादी घोषित करेंगी, वही देश में चुनाव लड़ सकती हैं। उस दौरान संसद में इस संशोधन पर हुई बहस में राजीव गांधी ने कहा था कि जो पार्टी भारतीय संविधान में पूर्ण आस्था नहीं रखती, उसे राजनीतिक पार्टी के रूप में मान्यता पाने का हक नहीं है। ज़ाहिर है कि आज जो भी पार्टी चुनाव लड़ती है, उसे संविधान में आस्था दिखाने के साथ ही परोक्ष रूप से स्वीकार करना पड़ता है कि वह समाजवाद में यकीन रखती है।
अब आप ही बताइए कि इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है? 1991 में उदार आर्थिक नीतियों को अपनाने के बाद कांग्रेस खुलेआम समाजवाद को सलाम बोल चुकी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिह समेत कांग्रेस के तमाम नेता नेहरू के समाजवाद के खिलाफ बोलते रहते हैं। आज की तारीख में कांग्रेस का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है। देश की दूसरी प्रमुख पार्टी बीजेपी ने एक समय गांधीवादी समाजवाद का नारा ज़रूर दिया था, लेकिन वह व्यापक राजनीतिक स्वीकृति बनाने के लिए किया गया उसका शुद्ध फ्रॉड था। मुलायम सिंह की पार्टी में समाजवादी शब्द जुड़ा हुआ है। लेकिन मुलायम सिंह के समाजवाद के सच को जानने के लिए किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं है। क्या कीजिएगा, कहने को तो लालू भी समाजवादी ही हैं।
अफसोस की बात यह है कि समाजवाद के नाम पर हो रहे इस खुल्लमखुल्ला फ्रॉड के बावजूद हमारा सुप्रीम कोर्ट इस शब्द को संविधान की प्रस्तावना से हटाने की याचिका पर गौर करने को तैयार नहीं है। अभी दो दिन पहले इसी मंगलवार (8 जनवरी, 2008) को मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता में बनी तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि, “आप समाजवाद को कम्युनिस्टों के परिभाषित संकीर्ण अर्थ में क्यों लेते हैं? व्यापक संदर्भों में इसका मतलब नागरिकों के लिए किए जानेवाले कल्याणकारी उपायों से है। ...इस शब्द का कोई निश्चित अर्थ नहीं है। अलग-अलग समय पर इसका अलग अर्थ होता है।”
असल में यही अलग-अलग अर्थ आज हमारी राजनीतिक पार्टियों को समाजवाद के नाम पर हर तरह का पाप करने की छूट दे रहे हैं। हर पार्टी के नेता इसी के नाम पर करोड़ों की निजी जागीर बना रहे हैं। कम से कम दलित समुदाय से आए मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन से तो उम्मीद थी कि वह राजनीति में चल रहे इस फ्रॉड को रोकेंगे। लेकिन वे भी तो इसी सत्ता प्रतिष्ठान के हिस्सा हैं। आखिर कैसे इसके खिलाफ जा सकते थे? शुक्र की बात यह है कि उन्होंने कोलकाता के एनजीओ Good Governance India Foundation की याचिका के उस हिस्से को स्वीकार कर लिया जिसमें जन प्रतिनिधित्व कानून में 1989 में किए गए संशोधन को चुनौती दी गई है। कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने यहां तक कहा कि वो उन राजनीतिक पार्टियों की मान्यता रद्द करने पर विचार करेगी जिन्होंने अपने असली उद्देश्यों के विपरीत चुनाव घोषणापत्र में गलत तरीके से समाजवाद से जुड़ाव की बात कही है। कोर्ट ने इस मसले पर केंद्र और चुनाव आयोग को नोटिस भी जारी किया है।
लेकिन पेंच यही है कि जब संविधान को मानना राजनीतिक पार्टियों के लिए मान्यता और चुनाव लड़ने की अनिवार्य शर्त है तो कोई पार्टी संविधान की प्रस्तावना को ही न मानने की घोषणा कैसे कर सकती है? और ऐसा न करने का मतलब ही होगा कि वह समाजवाद को स्वीकार कर रही है। संविधान और कानून के इसी किंतु, परंतु और ये भी ठीक, वो भी ठीक के चलते ही शायद पाश ने कहा था :
यह पुस्तक मर चुकी है, इसे न पढें
इसके शब्दों में मौत की ठंडक है
और एक-एक पृष्ठ ज़िंदगी के आखिरी पल जैसा भयानक...
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