पकड़े जाने का डर ही हमें नैतिक बनाए रखता है
नैतिकता की अवधारणा को समझने में दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों को भले ही देर लग जाए, लेकिन हम इसे अपनाते बड़ी जल्दी हैं। नर्सरी में जाते ही बच्चा सीख लेता है कि क्लास में खाना अच्छी बात नहीं है क्योंकि टीचर इससे मना करती हैं। अगर टीचर कह दे कि इसमें कोई बुराई नहीं है तो बच्चा खुशी-खुशी क्लास में खाने लगेगा। लेकिन वही टीचर अगर यह कह दे कि दूसरे बच्चे को कुर्सी से धकेल देने में कोई बुराई नहीं है तो बच्चा इसे नहीं मानता। वह कहेगा – नहीं, टीचर आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए। ध्यान दें, दोनों ही मामलों में बच्चे को सीख घर-परिवार और समाज के किसी बड़े से मिली है, लेकिन धकेलने के खिलाफ नियम तब भी कायम रहता है जब कोई बड़ा भी उसे तोड़ने को कहता है। यह अंतर है नैतिकता और सामाजिक मान्यता के बीच।
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चा इसे बड़ा होने के साथ-साथ आत्मसात करता जाता है। असल में यह भी सच है कि वही बच्चा अगर कोई न देखे और उसे पकड़े जाने का ज़रा-सा भी अंदेशा न हो तो वह किसी को धकेल भी सकता है और उसे अंदर से बुरा भी नहीं लगेगा। यही बात उन लोगों पर लागू होती है जो चोरी करते हैं या किसी की हत्या करते हैं। नैतिक मान्य़ताएं कमोबेश हर किसी इंसान में एक जैसी होती है, लेकिन लोगों का नैतिक बर्ताव अलग-अलग होता है। जिन नियमों को हम जानते हैं और मानते भी है कि वो सही हैं, फिर भी ज़रूरी नहीं है कि हम हमेशा उनका पालन करें।
सवाल उठता है कि अंदर का यह भान, यह अंतर्बोध आता कहां से है और हम उनका पालन करने में इतने इधर-उधर क्यों होते हैं? मनोवैज्ञानिक अभी तक इन सवालों का जवाब नहीं दे सके हैं। लेकिन इस गुत्थी से उन्होंने हार भी नहीं मानी है। वो मानव मस्तिष्क में उठनेवाली तरंगों की मैपिंग से इन्हें हल करने के सूत्र खोज रहे हैं। जानवरों के अध्ययन से उन्होंने कई सूत्र ढूंढ निकाले हैं। आदिवासियों के बर्ताव के विश्लेषण से तो उन्हें काफी सूत्र मिल चुके भी हैं। वैसे, वैज्ञानिक सारे सूत्र निकाल भी लें तब भी उससे हमारे व्यवहार पर खास फर्क नहीं पड़नेवाला। लेकिन इतना ज़रूर है कि इनसे हमें खुद को समझने में मदद मिल सकती है जो इंसान को वहशीपन से बाहर निकालने का छोटा ही सही, मगर महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
असल में नैतिकता जिस बुनियाद पर बनी है, वह है सहानुभूति (sympathy) नहीं, बल्कि परानुभूति (empathy) का गुण। औरों की स्थिति को समझने की, उसकी स्थिति में खुद को रखकर देखने की अनुभूति। यह अहसास कि जिससे मुझे दुख पहुंचेगा, वह औरों के लिए भी तकलीफदेह होगा। वैसे, मानव के सर्वश्रेष्ठ होने के अहं को एक किनारे रख दें तो वैज्ञानिकों के मुताबिक यह गुण कतिपय दूसरे प्राणियों में भी पाया जाता है। इंसान से काफी कम जटिल संरचना वाले जानवर ऐसा बर्ताव करते हैं जिसे परानुभूति का लक्षण माना जा सकता है। कुछ वैज्ञानिक तो परानुभूति को सौदेबाज़ी जैसा कुछ मानते हैं। इसे समूह के बनने की एक ज़रूरी शर्त मानते हैं। आज हम किसी का भला करते हैं, किसी को आश्रय देते हैं, खाना देते हैं तो कल को दूसरा भी हमें सहारा दे सकता है। झुंड में रहनेवाले जानवरों में मां में ही नहीं, बाकी सदस्यों में भी कुछ हद तक यह चलन पाया गया है।
मानवेतर जीवों में परानुभूति की तलाश में काफी महत्वपूर्ण काम रूसी पशु-वैज्ञानिक Nadia Kohts ने किया है। उन्होंने बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जानवरों के बर्ताव का अध्ययन किया था। नादिया ने एक चिम्पांजी पाल रखा था। जब चिम्पांजी घर की छत पर चला जाता तो उसे नीचे लाने के लिए बुलाने, डांटने, खाना देने जैसे आम तरीके कभी-कभी काम नहीं आते। लेकिन नादिया अगर नीचे बैठकर रोने का नाटक करतीं तो वह चिम्पांजी फौरन नीचे उतर आता। उन्होंने लिखा है कि, “वह मेरे इर्दगिर्द ऐसे दौड़ता जैसे मुझे रुलानेवाले को ढूंढ रहा हो। वह बड़े प्यार से मेरी ठुड्डी अपनी हथेली में ले लेता जैसे समझने की कोशिश कर रहा हो कि मुझे हुआ क्या है।”
वैज्ञानिक मानते हैं कि परानुभूति की क्षमता की बहुत सारी परतें हैं। जैसे-जैसे मानवजाति विकास करती गई, ये परते बढ़ती गईं। यही वजह है कि आज भी हमारी बहुत सारी परतें जानवरों से मिलती हैं। लेकिन नैतिकता का मसला सिर्फ इंसान की बायो-लॉजिकल संरचना का ही मामला नहीं है। सामाजिक तानेबाने के साथ इसका गहरा रिश्ता है। समाज के विकास के साथ हमारे अवचेतन में नैतिकता की पुरानी परत के ऊपर नई परत चढ़ती गई। सड़क पर कोई गिरा हो तो संभव है कि हम उसे देखकर आगे बढ़ जाएं, लेकिन वही अगर कोई अपना परिचित निकल आया तो हम किसी भी हालत में उसे छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकते। क्या यह अपने कबीले को बचाने के रिवाज से उपजी मानसिकता नहीं है? मेरा तो यही मानना है कि नैतिकता पूरी तरह एक सामाजिक मसला है और उसे मानव मस्तिष्क की बुनावट में नहीं उलझाया जाना चाहिए। लेकिन इस पर फिर कभी बाद में ...
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चा इसे बड़ा होने के साथ-साथ आत्मसात करता जाता है। असल में यह भी सच है कि वही बच्चा अगर कोई न देखे और उसे पकड़े जाने का ज़रा-सा भी अंदेशा न हो तो वह किसी को धकेल भी सकता है और उसे अंदर से बुरा भी नहीं लगेगा। यही बात उन लोगों पर लागू होती है जो चोरी करते हैं या किसी की हत्या करते हैं। नैतिक मान्य़ताएं कमोबेश हर किसी इंसान में एक जैसी होती है, लेकिन लोगों का नैतिक बर्ताव अलग-अलग होता है। जिन नियमों को हम जानते हैं और मानते भी है कि वो सही हैं, फिर भी ज़रूरी नहीं है कि हम हमेशा उनका पालन करें।
सवाल उठता है कि अंदर का यह भान, यह अंतर्बोध आता कहां से है और हम उनका पालन करने में इतने इधर-उधर क्यों होते हैं? मनोवैज्ञानिक अभी तक इन सवालों का जवाब नहीं दे सके हैं। लेकिन इस गुत्थी से उन्होंने हार भी नहीं मानी है। वो मानव मस्तिष्क में उठनेवाली तरंगों की मैपिंग से इन्हें हल करने के सूत्र खोज रहे हैं। जानवरों के अध्ययन से उन्होंने कई सूत्र ढूंढ निकाले हैं। आदिवासियों के बर्ताव के विश्लेषण से तो उन्हें काफी सूत्र मिल चुके भी हैं। वैसे, वैज्ञानिक सारे सूत्र निकाल भी लें तब भी उससे हमारे व्यवहार पर खास फर्क नहीं पड़नेवाला। लेकिन इतना ज़रूर है कि इनसे हमें खुद को समझने में मदद मिल सकती है जो इंसान को वहशीपन से बाहर निकालने का छोटा ही सही, मगर महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
असल में नैतिकता जिस बुनियाद पर बनी है, वह है सहानुभूति (sympathy) नहीं, बल्कि परानुभूति (empathy) का गुण। औरों की स्थिति को समझने की, उसकी स्थिति में खुद को रखकर देखने की अनुभूति। यह अहसास कि जिससे मुझे दुख पहुंचेगा, वह औरों के लिए भी तकलीफदेह होगा। वैसे, मानव के सर्वश्रेष्ठ होने के अहं को एक किनारे रख दें तो वैज्ञानिकों के मुताबिक यह गुण कतिपय दूसरे प्राणियों में भी पाया जाता है। इंसान से काफी कम जटिल संरचना वाले जानवर ऐसा बर्ताव करते हैं जिसे परानुभूति का लक्षण माना जा सकता है। कुछ वैज्ञानिक तो परानुभूति को सौदेबाज़ी जैसा कुछ मानते हैं। इसे समूह के बनने की एक ज़रूरी शर्त मानते हैं। आज हम किसी का भला करते हैं, किसी को आश्रय देते हैं, खाना देते हैं तो कल को दूसरा भी हमें सहारा दे सकता है। झुंड में रहनेवाले जानवरों में मां में ही नहीं, बाकी सदस्यों में भी कुछ हद तक यह चलन पाया गया है।
मानवेतर जीवों में परानुभूति की तलाश में काफी महत्वपूर्ण काम रूसी पशु-वैज्ञानिक Nadia Kohts ने किया है। उन्होंने बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में जानवरों के बर्ताव का अध्ययन किया था। नादिया ने एक चिम्पांजी पाल रखा था। जब चिम्पांजी घर की छत पर चला जाता तो उसे नीचे लाने के लिए बुलाने, डांटने, खाना देने जैसे आम तरीके कभी-कभी काम नहीं आते। लेकिन नादिया अगर नीचे बैठकर रोने का नाटक करतीं तो वह चिम्पांजी फौरन नीचे उतर आता। उन्होंने लिखा है कि, “वह मेरे इर्दगिर्द ऐसे दौड़ता जैसे मुझे रुलानेवाले को ढूंढ रहा हो। वह बड़े प्यार से मेरी ठुड्डी अपनी हथेली में ले लेता जैसे समझने की कोशिश कर रहा हो कि मुझे हुआ क्या है।”
वैज्ञानिक मानते हैं कि परानुभूति की क्षमता की बहुत सारी परतें हैं। जैसे-जैसे मानवजाति विकास करती गई, ये परते बढ़ती गईं। यही वजह है कि आज भी हमारी बहुत सारी परतें जानवरों से मिलती हैं। लेकिन नैतिकता का मसला सिर्फ इंसान की बायो-लॉजिकल संरचना का ही मामला नहीं है। सामाजिक तानेबाने के साथ इसका गहरा रिश्ता है। समाज के विकास के साथ हमारे अवचेतन में नैतिकता की पुरानी परत के ऊपर नई परत चढ़ती गई। सड़क पर कोई गिरा हो तो संभव है कि हम उसे देखकर आगे बढ़ जाएं, लेकिन वही अगर कोई अपना परिचित निकल आया तो हम किसी भी हालत में उसे छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकते। क्या यह अपने कबीले को बचाने के रिवाज से उपजी मानसिकता नहीं है? मेरा तो यही मानना है कि नैतिकता पूरी तरह एक सामाजिक मसला है और उसे मानव मस्तिष्क की बुनावट में नहीं उलझाया जाना चाहिए। लेकिन इस पर फिर कभी बाद में ...
Comments
पूरे लेख का निष्कर्ष यही था पर शायद यह बात नैतिकता जैसे भारी शब्द के बोझ में दब के रह गई..
हां, यह सही है कि भय का अभाव नैतिकता बोध को शिथिल कर देता है। 'शैतान' को कोई भय नहीं होता, उसमें empathy नहीं होती, इसलिए उसमें नैतिकता का कोई बोध भी नहीं होता।
जीवात्माओं में स्वतंत्रता की चेतना या मुक्ति की अनुभूति नैतिकता बोध के बगैर नहीं आती। नैतिकता, स्वतंत्रता की पूर्व शर्त है। स्वतंत्र या मुक्त हो चुकी चेतना में नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने और नैतिकता बरतने का अंतर्प्रेरित दबाव क्रियाशील नहीं रहता।
संसार में किसी भी जीव के प्रति हिंसा, प्रतिकार, कृतज्ञता अथवा कृतघ्नता का भाव-भार हमारी चेतना की मुक्ति के मार्ग में बाधक बनकर उपस्थित हो जाता है। पूरी तरह समत्व और मित्रभाव से ओतप्रोत चेतना में ही मुक्ति का पलायन वेग आ पाता है।
मुक्ति की नैसर्गिक बेचैनी ही चेतना को अपने चित्त में चिपके सभी प्रकार के प्रतिगामी भाव-भार को उतार देने के लिए उकसाती है और यही प्रक्रिया व्यक्ति की सोच और उसके व्यवहार में नैतिकता के रूप में अभिव्यक्त होती है।