जानते हैं, समय का काल कौन है?
अक्सर हमारे पास समय रहते हुए भी समय नहीं होता और समय न रहते हुए भी हम समय निकाल ही लेते हैं। ये कोई गूढ़ पहेली नहीं, बल्कि हमारी-आपकी रोज़ की ज़िंदगी का सच है। किसी बेरोज़गार से पूछ लीजिए या मैं ही बता देता हूं क्योंकि मुझे भी कुछ निजी कारणों से करीब साल भर बेरोज़गार रहना पड़ा था। सुबह से लेकर शाम और देर रात तक इफरात समय था, फिर भी किसी काम के लिए समय कम पड़ जाता था। हर समय व्यस्त रहता था, लेकिन काम क्या किया, ये दिखता नहीं था। फिर आठ घंटे की नौकरी पकड़ी तो दुख इस बात का था कि अपना लिखने का समय ही नहीं मिलता। अब दस घंटे की नौकरी कर रहा हूं और लिखने का समय भी मजे से निकल जा रहा है।
सोचता हूं कि यह सुलझा हुआ आसान-सा पेंच क्या है? जो समय असीमित है, वह हमारे लिए सीमित क्यों बन जाता है? हालांकि आइंसटाइन दिखा चुके हैं कि समय और आकाश (Time & Space) इतने विराट हैं कि हम इनकी कल्पना नहीं कर सकते, लेकिन इन दोनों का अंत है। आइंसटाइन ने यह भी निकाला कि आकाशीय समष्टि या Space की तीन ही विमाएं नहीं होतीं। लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई या गहराई के अलावा चौथी विमा है समय। स्थिरता ही नहीं, गति के सापेक्ष भी चीज़ों को देखना ज़रूरी है। सब कुछ समय सापेक्ष है। लेकिन यही समय हमारे संदर्भ में हमारे सापेक्ष हो जाता है। जिस समय को कोई मार नहीं सकता, उस समय को हम हर दिन अपने रवैये से मारते रहते हैं। हम काल कहे जानेवाले समय के भी काल हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के समय को बराबर खाते रहते हैं और फिर बार-बार अपने से ही पूछते हैं कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया।
मामला दुरूह है। पोस्ट दुरूह न हो जाए, इसके लिए एक कहानी* सुनते हैं। गुरुजी क्लास ले रहे थे। उन्होंने मोटे कांच का एक बड़ा-सा जार निकाल कर मेज पर रख दिया। फिर उसमें बड़े-बड़े पत्थरों के टुकड़े एक-एक करके डालने लगे। जब जार मुंह तक भर गया तो उन्होंने छात्रों से पूछा – क्या यह जार भर गया है। पूरी क्लास ने एक स्वर से कहा – हां। गुरुजी ने पूछा – सोच लो, क्या सचमुच ऐसा है। अब उन्होंने मेज के नीचे रखी बाल्टी से बजरी निकालकर जार में भरना शुरू किया। बजरी जब पत्थरों के टुकड़ों के बीच में भर गई तो उन्होंने फिर छात्रों से पूछा कि क्या यह जार भर गया है? छात्रों ने कहा - शायद नहीं। गुरुजी ने फिर एक बोरी से बारीक रेत निकाली और जार में डालने लगे। जार को हिलाते रहे तो रेत पत्थरों और बजरी के बीच में समाती गई।
रेती जार के मुंह तक आ गई तो गुरुजी ने फिर पूछा कि जार भर गया है क्या? छात्रों का जवाब था नहीं। गुरुजी ने कहा – बिलकुल सही। अब उन्होंने एक घड़े से पानी निकाला और धीरे-धीरे करके जार को लबालब भर दिया। ज़ाहिर है अब जार में कुछ और भरने की गुंजाइश नहीं थी। गुरुजी ने फिर पूरी क्लास से मुखातिब होकर पूछा – मैने आप लोगों को जो दिखाया, उससे क्या सबक मिलता है? मैक्कैन एरिक्सन के सीईओ प्रसून जोशी टाइप एक छात्र ने तपाक से कहा – यह कि आप कितने भी व्यस्त हों, आपका कार्यक्रम कितना ही टाइट हो, अगर आप कोशिश करें तो उसमें और भी तमाम चीज़ें कर सकते हैं। प्रसून जी इतनी बड़ी विज्ञापन एजेंसी के सीईओ होने के बावजूद फिल्मों में गीत लिखने के लिए समय निकाल ही रहे हैं न!!
खैर, उस छात्र का जवाब सुनने के बाद गुरुजी ने कहा – नहीं, असली सबक यह नहीं है। मैंने अभी-अभी आप लोगों को जो करके दिखाया, उसका मतलब यह है कि अगर आप बड़े पत्थरों को जार में पहले नहीं रखते तो बाद में उनके लिए जगह नहीं निकल पाएगी। आप ये तय कीजिए कि आपकी जिंदगी के ये ‘बड़े पत्थर’ क्या हैं? आपकी प्राधमिकताएं क्या हैं? वो कौन-से काम हैं जिन्हें आपके अलावा कोई और कर ही नहीं सकता? पहले इन कामों के लिए समय निकालने की गारंटी कर लीजिए, फिर छोटी चीजों के समय अपने-आप निकल आएगा।
मुझे लगता है कि गुरुजी की बात हम लोगों के लिए भी बहुत काम की है। देखिए, इतना तो तय है कि सामान्य होते हुए भी हम में से हर कोई किसी न किसी मायने में विशिष्ट है। लेकिन हम अपना विशिष्ट योगदान अक्सर नहीं दे पाते क्योंकि दूसरी ज़रूरी चीज़ों में हमारा सारा समय चला जाता है। इसलिए ज़रूरी चीज़ों में भी प्राथमिकता तय करना ज़रूरी है क्योंकि एक बार हाथ से निकल गया समय कभी वापस नहीं आता। टाइम मशीन जैसी बातें महज काल्पनिक उड़ान हैं। समय हमेशा आगे ही बढ़ता है। हम कभी भी समय में लौटकर पीछे नहीं जा सकते।
* यह कहानी टाइम मैनेजमेंट के गुरु Stephen R. Covey ने एक क्लास में सुनाई थी।
सोचता हूं कि यह सुलझा हुआ आसान-सा पेंच क्या है? जो समय असीमित है, वह हमारे लिए सीमित क्यों बन जाता है? हालांकि आइंसटाइन दिखा चुके हैं कि समय और आकाश (Time & Space) इतने विराट हैं कि हम इनकी कल्पना नहीं कर सकते, लेकिन इन दोनों का अंत है। आइंसटाइन ने यह भी निकाला कि आकाशीय समष्टि या Space की तीन ही विमाएं नहीं होतीं। लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई या गहराई के अलावा चौथी विमा है समय। स्थिरता ही नहीं, गति के सापेक्ष भी चीज़ों को देखना ज़रूरी है। सब कुछ समय सापेक्ष है। लेकिन यही समय हमारे संदर्भ में हमारे सापेक्ष हो जाता है। जिस समय को कोई मार नहीं सकता, उस समय को हम हर दिन अपने रवैये से मारते रहते हैं। हम काल कहे जानेवाले समय के भी काल हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के समय को बराबर खाते रहते हैं और फिर बार-बार अपने से ही पूछते हैं कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया।
मामला दुरूह है। पोस्ट दुरूह न हो जाए, इसके लिए एक कहानी* सुनते हैं। गुरुजी क्लास ले रहे थे। उन्होंने मोटे कांच का एक बड़ा-सा जार निकाल कर मेज पर रख दिया। फिर उसमें बड़े-बड़े पत्थरों के टुकड़े एक-एक करके डालने लगे। जब जार मुंह तक भर गया तो उन्होंने छात्रों से पूछा – क्या यह जार भर गया है। पूरी क्लास ने एक स्वर से कहा – हां। गुरुजी ने पूछा – सोच लो, क्या सचमुच ऐसा है। अब उन्होंने मेज के नीचे रखी बाल्टी से बजरी निकालकर जार में भरना शुरू किया। बजरी जब पत्थरों के टुकड़ों के बीच में भर गई तो उन्होंने फिर छात्रों से पूछा कि क्या यह जार भर गया है? छात्रों ने कहा - शायद नहीं। गुरुजी ने फिर एक बोरी से बारीक रेत निकाली और जार में डालने लगे। जार को हिलाते रहे तो रेत पत्थरों और बजरी के बीच में समाती गई।
रेती जार के मुंह तक आ गई तो गुरुजी ने फिर पूछा कि जार भर गया है क्या? छात्रों का जवाब था नहीं। गुरुजी ने कहा – बिलकुल सही। अब उन्होंने एक घड़े से पानी निकाला और धीरे-धीरे करके जार को लबालब भर दिया। ज़ाहिर है अब जार में कुछ और भरने की गुंजाइश नहीं थी। गुरुजी ने फिर पूरी क्लास से मुखातिब होकर पूछा – मैने आप लोगों को जो दिखाया, उससे क्या सबक मिलता है? मैक्कैन एरिक्सन के सीईओ प्रसून जोशी टाइप एक छात्र ने तपाक से कहा – यह कि आप कितने भी व्यस्त हों, आपका कार्यक्रम कितना ही टाइट हो, अगर आप कोशिश करें तो उसमें और भी तमाम चीज़ें कर सकते हैं। प्रसून जी इतनी बड़ी विज्ञापन एजेंसी के सीईओ होने के बावजूद फिल्मों में गीत लिखने के लिए समय निकाल ही रहे हैं न!!
खैर, उस छात्र का जवाब सुनने के बाद गुरुजी ने कहा – नहीं, असली सबक यह नहीं है। मैंने अभी-अभी आप लोगों को जो करके दिखाया, उसका मतलब यह है कि अगर आप बड़े पत्थरों को जार में पहले नहीं रखते तो बाद में उनके लिए जगह नहीं निकल पाएगी। आप ये तय कीजिए कि आपकी जिंदगी के ये ‘बड़े पत्थर’ क्या हैं? आपकी प्राधमिकताएं क्या हैं? वो कौन-से काम हैं जिन्हें आपके अलावा कोई और कर ही नहीं सकता? पहले इन कामों के लिए समय निकालने की गारंटी कर लीजिए, फिर छोटी चीजों के समय अपने-आप निकल आएगा।
मुझे लगता है कि गुरुजी की बात हम लोगों के लिए भी बहुत काम की है। देखिए, इतना तो तय है कि सामान्य होते हुए भी हम में से हर कोई किसी न किसी मायने में विशिष्ट है। लेकिन हम अपना विशिष्ट योगदान अक्सर नहीं दे पाते क्योंकि दूसरी ज़रूरी चीज़ों में हमारा सारा समय चला जाता है। इसलिए ज़रूरी चीज़ों में भी प्राथमिकता तय करना ज़रूरी है क्योंकि एक बार हाथ से निकल गया समय कभी वापस नहीं आता। टाइम मशीन जैसी बातें महज काल्पनिक उड़ान हैं। समय हमेशा आगे ही बढ़ता है। हम कभी भी समय में लौटकर पीछे नहीं जा सकते।
* यह कहानी टाइम मैनेजमेंट के गुरु Stephen R. Covey ने एक क्लास में सुनाई थी।
Comments
यह विषय अच्छा है. आईंसटाइन और गोपीनाथ कविराज दोनों एक ही बात कहते हैं. हम आइंसटाइन को तो जानते हैं लेकिन गोपीनाथ कविराज और उनके गुरू के बारे में नहीं जानते जो समय की और ज्यादा सटीक परिभाषा करते हैं.
एक बार काशी के कविराज बंगाल में अपने गुरू के पास गये थे. गुरू के एक शिष्य ने अपनी माला उनके हाथ में दे दी. कहा गुरू जी इसे गूंथ दीजिए. गुरूजी ने हाथ में मनिया और धागा लिया और फूंक मारते ही माला तैयार. गोपीनाथ कविराज ने कहा कि मैं इसे चमत्कार मानने को तैयार नहीं. मुझे इसका वैज्ञानिक कारण बताईये.
गुरूजी ने बताया समय क्या है और यह कैसे परिभाषित किया जा सकता है. उन्होंने यह भी बताया कि समय का फ्रेमवर्क होता है. अलग-अलग योनियों में समय का अलग-अलग फ्रेमवर्क होता है. आइंसटाइन ने भी यही कहा और पूरा विज्ञान इसे मानने भी लगा है. यहीं से एक तर्कबुद्धि गोपीनाथ कविराज हो गये. उन्होंने देखा बाहर की खोज के सारे जवाब हमारे अंदर ही छिपे हुए हैं.
और समय - वह तो वास्तव में विलक्षण निधि है। आप उसे या तो बरबाद कर सकते हैं, या जी सकते हैं। मन और समय को जोड़ कर विलक्षण प्रयोग किये जा सकते हैं।
खैर हम तो नौसिखिये हैं इस क्षेत्र में।