मृत्यु ही ब्रह्म है
सत् नहीं, असत् नहीं, वायु नहीं, आकाश नहीं, कोई दिशा नहीं, कोई गति नहीं, कोई आधार नहीं, मृत्यु नहीं, अमरता नहीं, न रात, न दिन, न प्रकाश, न अंधकार। नहीं, अंधकार तो था। उबलता हुआ अंधकार! तरल! अपने में ही छिपा हुआ! अंधकार तो था। परंतु इस अंधकार से पहले, तब जब अंधकार भी नहीं रहा होगा, जब कुछ न रहा होगा, तब क्या था? कुछ नहीं होने को क्या कहते याज्ञवल्क्य? उसे अंधकार कहना ठीक नहीं लग रहा था और उन्हें उस अवस्था के लिए कोई शब्द नहीं मिल रहा था। तभी उनकी कल्पना के सामने उपस्थित उस अंधकार से ही जैसे एक शब्द फूटा, कुछ यूं कि जैसे अंधकार ही सिमटकर शब्द बन गया हो – मृत्यु।
जब कुछ नहीं था, तब मृत्यु थी – जैसे कोई समझा रहा हो उन्हें परमगुरु की भांति। मृत्यु का कोई रूप या आकार तो है नहीं। अस्तित्व का अभाव ही तो मृत्यु है। रूप का, आकार का, क्रिया का, गति का, किसी का भी न रह जाना। यदि किसी का अस्तित्व था ही नहीं तो वह अंधकार भी नहीं रहा होगा। मृत्यु ही रही होगी। अंधकार का भी रूप उसी ने लिया होगा। सब कुछ मृत्यु से निकला है, मृत्यु ही जीवन का गर्भ है, सृष्टि का मूल। मृत्यु से ही सब ढंका हुआ था। क्षुधा से ही आवृत था सब कुछ। मृत्यु क्षुधा का ही दूसरा नाम तो है। सब कुछ तो निगलती चली जाती है यह। परम क्षुधा। अमिट और अनंत भूख। इसी का कभी अंत नहीं होता। सृष्टि से पहले भी यही थी और सृष्टि के बाद भी यही क्रियाशील रहेगी। कभी गर्भ में छिपी और कभी अपने को ही उद्घाटित करती। अपने से बाहर आकर अपने को ही ग्रसती।
अनंत भूख। यही तो मृत्यु की लालसा है। और इसी से सब कुछ पैदा हुआ। मृत्यु की इसी लालसा से ही। इस मृत्यु से यह जीवन कैसे निकल आया? हुआ यह कि उस परम मृत्यु के जी में आया कि वह आत्मा से युक्त हो जाए। इसके लिए उसने लंबे समय तक अर्चन किया। अब इससे क या जल उत्पन्न हुआ। यह जल सामान्य जल नहीं था। इसमें द्रव भी था और स्थूल भी, वायु भी और तेज भी। आकाश भी उसी में विद्यमान था और दिशाएं भी उसी में मिली हुई थीं। यह कारणजल पंचविपाक था। सभी घुलकर द्रव में बदल गए थे। यही वह तरल अंधकार था। अपने आप में सिमटा हुआ, निगूढ़, घनीभूत, अपने उत्ताप में तपता हुआ, पर अपने ही दबाव में इतना कसा हुआ कि उफनने का भी अवकाश नहीं।
और फिर इसके अपने ही ताप से इसी का शर या स्थूल भाग एकत्र हो गया। जम गया। यही जमकर पृथ्वी बन बन गया। यह पृथ्वी शर भाग से बनी। अत: यही प्रजापति का प्रथम शरीर हुआ। फिर? वह जो तप रहा था उसके स्थूल अंश के अलग हो जाने पर उसके उस ताप का क्या हुआ? उससे अग्नि-रस या द्रवित ऊष्मा अलग हुई, वही अग्नि बन गई। यही प्रजापति ही पहली शरीरी हुआ। पर इसमें बहुत लंबा समय लगा। बहुत लंबा। फिर इसके बाद? उस प्रजापति ने अपने को तीन भागों में विभक्त कर दिया। इसका एक तिहाई वायु हो गया। एक तिहाई आदित्य। यह पूर्व दिशा ही उस प्रजापति का सिर है। ईशानी और आग्नेयी दिशाएं उसकी भुजाएं हैं। पश्चिम दिशा उसका पुच्छ भाग है और वायव्य व नैऋत्य दिशाएं उसकी जंघाएं। दक्षिण और उत्तर दिशाएं उसके पार्श्व हैं। द्युलोक पृष्ठभाग, अंतरिक्ष उदर और यह पृथ्वी उसका हृदय है। यह अग्नि रूप प्रजापति पहले द्रव रूप में ही था और इसलिए जल में ही उसका निवास है।
उसने फिर कामना की कि उसका एक और रूप उत्पन्न हो। उसने वाणी की मिथुन रूप में भावना की और इससे संवत्सर की उत्पत्ति हुई। इससे पहले संवत्सर नहीं था। संवत्सर की जो अवधि है उतने समय तक मृत्यु-रूपी प्रजापति ने उसे गर्भ में धारण किए रखा। फिर उसे उत्पन्न किया। उत्पन्न करने के बाद उसने उसका मुंह फाड़ा। उसका मुंह फटते ही भाण् की आवाज़ निकली। इसी से वाक् की उत्पत्ति हुई। अब उसने उस वाणी और मन के संयोग से ऋग, साम, यजुर्वेद को, छंदो को, और ये जो प्रजा और पशु हैं उनको रचा। परंतु प्रजापति स्वयं ही मृत्यु रूप हैं। अत: उसने जिनको भी रचा, उन सभी को खाने का विचार किया। इसीलिए मृत्यु को ही अदिति भी कहते हैं।
- भगवान सिंह की किताब उपनिषदों की कहानियां में मृत्यु ही ब्रह्म है शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत चिंतन-कथा के संपादित अंश
जब कुछ नहीं था, तब मृत्यु थी – जैसे कोई समझा रहा हो उन्हें परमगुरु की भांति। मृत्यु का कोई रूप या आकार तो है नहीं। अस्तित्व का अभाव ही तो मृत्यु है। रूप का, आकार का, क्रिया का, गति का, किसी का भी न रह जाना। यदि किसी का अस्तित्व था ही नहीं तो वह अंधकार भी नहीं रहा होगा। मृत्यु ही रही होगी। अंधकार का भी रूप उसी ने लिया होगा। सब कुछ मृत्यु से निकला है, मृत्यु ही जीवन का गर्भ है, सृष्टि का मूल। मृत्यु से ही सब ढंका हुआ था। क्षुधा से ही आवृत था सब कुछ। मृत्यु क्षुधा का ही दूसरा नाम तो है। सब कुछ तो निगलती चली जाती है यह। परम क्षुधा। अमिट और अनंत भूख। इसी का कभी अंत नहीं होता। सृष्टि से पहले भी यही थी और सृष्टि के बाद भी यही क्रियाशील रहेगी। कभी गर्भ में छिपी और कभी अपने को ही उद्घाटित करती। अपने से बाहर आकर अपने को ही ग्रसती।
अनंत भूख। यही तो मृत्यु की लालसा है। और इसी से सब कुछ पैदा हुआ। मृत्यु की इसी लालसा से ही। इस मृत्यु से यह जीवन कैसे निकल आया? हुआ यह कि उस परम मृत्यु के जी में आया कि वह आत्मा से युक्त हो जाए। इसके लिए उसने लंबे समय तक अर्चन किया। अब इससे क या जल उत्पन्न हुआ। यह जल सामान्य जल नहीं था। इसमें द्रव भी था और स्थूल भी, वायु भी और तेज भी। आकाश भी उसी में विद्यमान था और दिशाएं भी उसी में मिली हुई थीं। यह कारणजल पंचविपाक था। सभी घुलकर द्रव में बदल गए थे। यही वह तरल अंधकार था। अपने आप में सिमटा हुआ, निगूढ़, घनीभूत, अपने उत्ताप में तपता हुआ, पर अपने ही दबाव में इतना कसा हुआ कि उफनने का भी अवकाश नहीं।
और फिर इसके अपने ही ताप से इसी का शर या स्थूल भाग एकत्र हो गया। जम गया। यही जमकर पृथ्वी बन बन गया। यह पृथ्वी शर भाग से बनी। अत: यही प्रजापति का प्रथम शरीर हुआ। फिर? वह जो तप रहा था उसके स्थूल अंश के अलग हो जाने पर उसके उस ताप का क्या हुआ? उससे अग्नि-रस या द्रवित ऊष्मा अलग हुई, वही अग्नि बन गई। यही प्रजापति ही पहली शरीरी हुआ। पर इसमें बहुत लंबा समय लगा। बहुत लंबा। फिर इसके बाद? उस प्रजापति ने अपने को तीन भागों में विभक्त कर दिया। इसका एक तिहाई वायु हो गया। एक तिहाई आदित्य। यह पूर्व दिशा ही उस प्रजापति का सिर है। ईशानी और आग्नेयी दिशाएं उसकी भुजाएं हैं। पश्चिम दिशा उसका पुच्छ भाग है और वायव्य व नैऋत्य दिशाएं उसकी जंघाएं। दक्षिण और उत्तर दिशाएं उसके पार्श्व हैं। द्युलोक पृष्ठभाग, अंतरिक्ष उदर और यह पृथ्वी उसका हृदय है। यह अग्नि रूप प्रजापति पहले द्रव रूप में ही था और इसलिए जल में ही उसका निवास है।
उसने फिर कामना की कि उसका एक और रूप उत्पन्न हो। उसने वाणी की मिथुन रूप में भावना की और इससे संवत्सर की उत्पत्ति हुई। इससे पहले संवत्सर नहीं था। संवत्सर की जो अवधि है उतने समय तक मृत्यु-रूपी प्रजापति ने उसे गर्भ में धारण किए रखा। फिर उसे उत्पन्न किया। उत्पन्न करने के बाद उसने उसका मुंह फाड़ा। उसका मुंह फटते ही भाण् की आवाज़ निकली। इसी से वाक् की उत्पत्ति हुई। अब उसने उस वाणी और मन के संयोग से ऋग, साम, यजुर्वेद को, छंदो को, और ये जो प्रजा और पशु हैं उनको रचा। परंतु प्रजापति स्वयं ही मृत्यु रूप हैं। अत: उसने जिनको भी रचा, उन सभी को खाने का विचार किया। इसीलिए मृत्यु को ही अदिति भी कहते हैं।
- भगवान सिंह की किताब उपनिषदों की कहानियां में मृत्यु ही ब्रह्म है शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत चिंतन-कथा के संपादित अंश
Comments
राजेश अग्रवाल
cgreports.blogspot.com
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हमारे जैसे का क्या होगा जिसने कुछ To Do List के कुछ काम अगले जन्म के हवाले करने का मन बनाना शुरू कर दिया है?! :-)