इटली में रहनेवाला यह कवि वाकई विशाल है
कल ही दिल्ली के सुभाष नीरव ने मुझे मेल में गवाक्ष का लिंक भेजा। मैंने इसे साहित्यिक रचनाओं की कोई साइट समझकर अनमने ढंग से खोला और वहां दर्ज कविताएं पढ़ीं तो यकीन मानिए, मन चहक उठा। सचमुच इटली में रहनेवाले विशाल ने जो कविताएं लिखी हैं, उनमें कहीं पाश का दम नजर आता है तो कहीं अपने जैसे घर से भागों की दास्तान। ये कविताएं मूलत: पंजाबी में लिखी गई है और इनका हिंदी रूपांतर सुभाष नीरव ने किया है। प्रस्तुत हैं इन कविताओं के छोटे-छोटे अंश। पूरी कविताएं आप गवाक्ष पर जाकर पढ़ सकते हैं।
1. अपने मठ की ओर
रकबा छोटा हो गया है मेरे फैलाव से
यह तो मेरे पानियों की करामात है
कि दिशाओं के पार की मिट्टी सींचना चाहता हूँ
जहाँ कहीं समुन्दर खत्म होते हैं
मैं वहाँ बहना चाहता हूँ।
2. नाथों का उत्सव
उन्होंने तो जाना ही था
जब रोकने वाली बाहें न हों
देखने वाली नज़र न हो
समझने और समझाने वाली कोई बात न बचे।
अगर वे घरों के नहीं हुए
तो घरों ने भी उन्हें क्या दिया
और फिर जोगियों, मलंगों, साधुओं,
फक्कड़ों, बनवासियों, नाथों के साथ न जा मिलते
तो करते भी क्या ...
फिर उन्होंने ऐसा ही किया
कोई धूनी नहीं जलाई
पर अपनी आग के साथ सेंका अपने आपको
कोई भेष नहीं बदला पर वे अंदर ही अंदर जटाधारी हो गए
किसी के साथ बोल–अलाप साझे नहीं किए
न सुना, न सुनाया, न पाया, न गंवाया
बस, वे तो अंदर ही अंदर ऋषि हो गए
खड़ाऊं उनके पैरों में नहीं, अंदर थीं।
उनके पैरों में ताल नहीं, बल्कि ताल में उनके पैर थे
भगवे वस्त्र नहीं पहने उन्होंने, वे तो अंदर से ही भगवे हो गए...
3. जब मैं लौटूंगा
माँ! जब मैं लौटूंगा
उतना नहीं होऊँगा
जितना तूने भेजा होगा
कहीं से थोड़ा, कहीं से ज्यादा
उम्र जितनी थकावट, युगों–युगों की उदासी
आदमी को खत्म कर देनेवाली राहों की धूल
बालों में आई सफ़ेदी
और क्या वापस लेकर आऊँगा...
... माँ जब मैं लौटूंगा
ज्यादा से ज्यादा क्या लेकर आऊँगा
मेरी आँखों में होंगे मृत सपने
मेरे संग मेरी हार होगी
और वह थोड़ा-सा हौसला भी
जब अपना सब कुछ गवांकर भी
आदमी सिकंदर होने के भ्रम में रहता है
और फिर तेरे लिए छोटे–छोटे खतरे पैदा करुँगा
छोटे–छोटे डर पैदा करुँगा
और मैं क्या लेकर आऊँगा।
1. अपने मठ की ओर
रकबा छोटा हो गया है मेरे फैलाव से
यह तो मेरे पानियों की करामात है
कि दिशाओं के पार की मिट्टी सींचना चाहता हूँ
जहाँ कहीं समुन्दर खत्म होते हैं
मैं वहाँ बहना चाहता हूँ।
2. नाथों का उत्सव
उन्होंने तो जाना ही था
जब रोकने वाली बाहें न हों
देखने वाली नज़र न हो
समझने और समझाने वाली कोई बात न बचे।
अगर वे घरों के नहीं हुए
तो घरों ने भी उन्हें क्या दिया
और फिर जोगियों, मलंगों, साधुओं,
फक्कड़ों, बनवासियों, नाथों के साथ न जा मिलते
तो करते भी क्या ...
फिर उन्होंने ऐसा ही किया
कोई धूनी नहीं जलाई
पर अपनी आग के साथ सेंका अपने आपको
कोई भेष नहीं बदला पर वे अंदर ही अंदर जटाधारी हो गए
किसी के साथ बोल–अलाप साझे नहीं किए
न सुना, न सुनाया, न पाया, न गंवाया
बस, वे तो अंदर ही अंदर ऋषि हो गए
खड़ाऊं उनके पैरों में नहीं, अंदर थीं।
उनके पैरों में ताल नहीं, बल्कि ताल में उनके पैर थे
भगवे वस्त्र नहीं पहने उन्होंने, वे तो अंदर से ही भगवे हो गए...
3. जब मैं लौटूंगा
माँ! जब मैं लौटूंगा
उतना नहीं होऊँगा
जितना तूने भेजा होगा
कहीं से थोड़ा, कहीं से ज्यादा
उम्र जितनी थकावट, युगों–युगों की उदासी
आदमी को खत्म कर देनेवाली राहों की धूल
बालों में आई सफ़ेदी
और क्या वापस लेकर आऊँगा...
... माँ जब मैं लौटूंगा
ज्यादा से ज्यादा क्या लेकर आऊँगा
मेरी आँखों में होंगे मृत सपने
मेरे संग मेरी हार होगी
और वह थोड़ा-सा हौसला भी
जब अपना सब कुछ गवांकर भी
आदमी सिकंदर होने के भ्रम में रहता है
और फिर तेरे लिए छोटे–छोटे खतरे पैदा करुँगा
छोटे–छोटे डर पैदा करुँगा
और मैं क्या लेकर आऊँगा।
Comments
पर यह कहा जाये कि - अच्छी और सोहती इसलिये हैं कि इटली से इम्पोर्टेड हैं तो मत भेद लाजमी है(राजनैतिक परिप्रेक्ष्य देखा जाये)। :-)
Roop Singh Chandel