संभल के दोस्तों, ये दिमागी दासता का दौर है
हर तरफ से सूचनाओं की बमबारी। ये भी लो, वो भी लो। मनोरंजन की पूरी थाली सजा दी है। सीरियल हैं तो रीएलिटी शो भी। लाइफस्टाइल के अलग चैनल हैं। मूवी चैनलों पर दिन भर हॉलीवुड और बॉलीवुड की फिल्मों की भरमार। क्रिकेट देखना है तो देखिए न, इसका भी इंतज़ाम कर दिया है। समाचारों तक में मनोरंजन का तड़का है। सचमुच हम भारतीयों के लिए मनोरंजन का ऐसा विस्फोट पहले कभी नहीं हुआ था। फिर, कोई जबरदस्ती नहीं है। आप ही राजा है। रिमोट आपके हाथ में है, जब चाहे बटन दबाइए और जो चाहे देखिए। यहां आपकी मर्जी ही चलती है।
लेकिन क्या वाकई हमारी ही मर्जी चलती है? क्या हमें वह मिल रहा है जो हमें चाहिए? क्या हमें वो सूचनाएं मिल रही हैं जिनसे हम सदियों पुराने पूर्वाग्रहों को काट सकें? क्या हमें वह ज्ञान मिल रहा है जिनसे हम जीवन की अनसुलझी गुत्थियों को सुलझा सकें, हमें मानसिक स्तर पर मुक्त कर सके? अरे, हम तो राजनीति और सामाजिक मुद्दों पर बहस में अपनी सहज अभिव्यक्ति देखते थे। लेकिन तुमने तो इसकी विश्वसनीयता ही खत्म कर दी। इनके लिए आज मीडिया में कोई स्पेस ही नहीं बचा है। खबरों के अंबार में खबर गुम हो गई है। सच कहूं तो मीडिया ने आज हमसे हमारे शब्द छीन लिए हैं। हमें गूंगा बना दिया है।
हमें वो नहीं दिखाया जा रहा, जो हमें चाहिए। बल्कि हमें वह दिखाया जा रहा है जो उन्हें चाहिए, बाज़ार को चाहिए। कहा तो जाता है कि दर्शक ही मालिक है, ग्राहक ही राजा है, Consumer is the King... लेकिन असली मालिक और राजा तो बाज़ार है। इस राजा के राजमहल ने हमें अंध उपभोक्तावाद, अनियंत्रित भोगवाद, समाज-विरोधी व्यक्तिवाद और स्वार्थपरता की झोपड़ी में रहने को बाध्य कर दिया है। मीडिया इसी बाज़ार की सेवा में लगा है और उसने हमें विज्ञापन की मशीनरी का चारा बना दिया है।
बाज़ार को हमेशा ऐसे प्रतीकों की ज़रूरत होती है जिनके ज़रिए वह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके। इसीलिए जिसे ज्यादातर लोग जानते हैं, उसे वह सबको जनवाता है और उसके ज़रिए सबको अपनी बात सुनवाता है। वह छोटे से छोटे मौका भी हाथ से नहीं जाने देता। अमिताभ, शाहरुख, धोनी, सानिया या सचिन की बात छोड़िए, अब तो गीतकार जावेद अख्तर तक विज्ञापन करने लगे हैं, वह भी सीमेंट का। शायरी और सीमेंट का ये रिश्ता, है न कमाल का!!
असल में इस बाज़ारू ज़माने में नैतिकता बेमानी हो गई है। बस, आप ये करें कि अमीर बनने और कामयाब होने के किसी मौके को अपने हाथ से जाने न दें। फिर आपके सातों खून माफ हैं। आपको मिसाल के तौर पर पेश किया जाएगा। आप पर खबरें छपेंगी। वैसे, आजकल हर चीज़ डिस्पोजेबल हो गई है, यहां तक कि मूल्य भी। हमारे बाप की पीढ़ी में लोग एक ही नौकरी में सारी ज़िंदगी गुज़ार देते थे। लेकिन आज किसी के बायोडाटा में यह न दर्ज रहे कि उसने तीन-चार कंपनियों में काम किया है तो उसे बड़ी बेचारगी की नज़र से देखा जाता है। उसकी काबिलियत पर सवाल उठने लगते हैं।
अजीब-सी यह अकर्मक सभ्यता में रह रहे हैं हम, जो सिर्फ क्षणों में जीती है, जिसका इतिहास से कोई वास्ता नहीं है। इसको परवाह नहीं कि ऐसी हरकतों से समाज भी किसी दिन एक्सपायर हो जाएगा। बस अंधी दौड़ जारी है कि बाज़ार को जहां तक फैला सको, फैला दो। जहां भी गुंजाइश दिखे, ठंस लो। बाज़ार के इस विस्तारवाद में मीडिया बेहद खतरनाक भूमिका निभा रहा है। वह एक ऐसे ऑक्टोपस की तरह है जिसकी अष्टभुजाएं हमें कहीं न कहीं जकड़े हुए हैं। बहुरंगी संस्कृति वाले हमारे देश में हम पर एकरंगी संस्कृति थोपी जा रही है। फिल्मों से लेकर टीवी सीरियलों के ज़रिए विदेशी कार्यक्रमों की नकल या देश के गिने-चुने लोगों की ज़िंदगी का सच सबके गले उतारा जा रहा है।
एक जबरदस्त मानसिक गुलामी का दौर चल रहा है। मीडिया और मनोरंजन उद्योग हमारी मानसिक दासता का सामान जुटाने में लगा है। हमारे दिमाग पर कब्जा करने की रेस जारी है। हमारी सोच को तय किया जा रहा है, हमारी अभिरुचियों का फैसला हो रहा है। लेकिन तुर्रा यह कि कहा जा रहा है कि आप ही राजा हो, तुसि ग्रेट हो। हमें अपने ऊपर हो रहे इस सांस्कृतिक हमले से बचने की ज़रूरत है। हमें चाहिए आलोचनात्मक विवेक और ऐसा व्यवहारपरक ज्ञान जो हमें मुक्त कर सके। याद रखें, ज्ञान हमें मुक्त करता है, जबकि अनाप-शनाप अनर्गल सूचनाएं हमें सुन्न कर देती हैं।
संदर्भ : ब्राजील के विचारक और लेखक Frei Betto का लेख Emancipated Bodies, Subjugated Minds
लेकिन क्या वाकई हमारी ही मर्जी चलती है? क्या हमें वह मिल रहा है जो हमें चाहिए? क्या हमें वो सूचनाएं मिल रही हैं जिनसे हम सदियों पुराने पूर्वाग्रहों को काट सकें? क्या हमें वह ज्ञान मिल रहा है जिनसे हम जीवन की अनसुलझी गुत्थियों को सुलझा सकें, हमें मानसिक स्तर पर मुक्त कर सके? अरे, हम तो राजनीति और सामाजिक मुद्दों पर बहस में अपनी सहज अभिव्यक्ति देखते थे। लेकिन तुमने तो इसकी विश्वसनीयता ही खत्म कर दी। इनके लिए आज मीडिया में कोई स्पेस ही नहीं बचा है। खबरों के अंबार में खबर गुम हो गई है। सच कहूं तो मीडिया ने आज हमसे हमारे शब्द छीन लिए हैं। हमें गूंगा बना दिया है।
हमें वो नहीं दिखाया जा रहा, जो हमें चाहिए। बल्कि हमें वह दिखाया जा रहा है जो उन्हें चाहिए, बाज़ार को चाहिए। कहा तो जाता है कि दर्शक ही मालिक है, ग्राहक ही राजा है, Consumer is the King... लेकिन असली मालिक और राजा तो बाज़ार है। इस राजा के राजमहल ने हमें अंध उपभोक्तावाद, अनियंत्रित भोगवाद, समाज-विरोधी व्यक्तिवाद और स्वार्थपरता की झोपड़ी में रहने को बाध्य कर दिया है। मीडिया इसी बाज़ार की सेवा में लगा है और उसने हमें विज्ञापन की मशीनरी का चारा बना दिया है।
बाज़ार को हमेशा ऐसे प्रतीकों की ज़रूरत होती है जिनके ज़रिए वह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके। इसीलिए जिसे ज्यादातर लोग जानते हैं, उसे वह सबको जनवाता है और उसके ज़रिए सबको अपनी बात सुनवाता है। वह छोटे से छोटे मौका भी हाथ से नहीं जाने देता। अमिताभ, शाहरुख, धोनी, सानिया या सचिन की बात छोड़िए, अब तो गीतकार जावेद अख्तर तक विज्ञापन करने लगे हैं, वह भी सीमेंट का। शायरी और सीमेंट का ये रिश्ता, है न कमाल का!!
असल में इस बाज़ारू ज़माने में नैतिकता बेमानी हो गई है। बस, आप ये करें कि अमीर बनने और कामयाब होने के किसी मौके को अपने हाथ से जाने न दें। फिर आपके सातों खून माफ हैं। आपको मिसाल के तौर पर पेश किया जाएगा। आप पर खबरें छपेंगी। वैसे, आजकल हर चीज़ डिस्पोजेबल हो गई है, यहां तक कि मूल्य भी। हमारे बाप की पीढ़ी में लोग एक ही नौकरी में सारी ज़िंदगी गुज़ार देते थे। लेकिन आज किसी के बायोडाटा में यह न दर्ज रहे कि उसने तीन-चार कंपनियों में काम किया है तो उसे बड़ी बेचारगी की नज़र से देखा जाता है। उसकी काबिलियत पर सवाल उठने लगते हैं।
अजीब-सी यह अकर्मक सभ्यता में रह रहे हैं हम, जो सिर्फ क्षणों में जीती है, जिसका इतिहास से कोई वास्ता नहीं है। इसको परवाह नहीं कि ऐसी हरकतों से समाज भी किसी दिन एक्सपायर हो जाएगा। बस अंधी दौड़ जारी है कि बाज़ार को जहां तक फैला सको, फैला दो। जहां भी गुंजाइश दिखे, ठंस लो। बाज़ार के इस विस्तारवाद में मीडिया बेहद खतरनाक भूमिका निभा रहा है। वह एक ऐसे ऑक्टोपस की तरह है जिसकी अष्टभुजाएं हमें कहीं न कहीं जकड़े हुए हैं। बहुरंगी संस्कृति वाले हमारे देश में हम पर एकरंगी संस्कृति थोपी जा रही है। फिल्मों से लेकर टीवी सीरियलों के ज़रिए विदेशी कार्यक्रमों की नकल या देश के गिने-चुने लोगों की ज़िंदगी का सच सबके गले उतारा जा रहा है।
एक जबरदस्त मानसिक गुलामी का दौर चल रहा है। मीडिया और मनोरंजन उद्योग हमारी मानसिक दासता का सामान जुटाने में लगा है। हमारे दिमाग पर कब्जा करने की रेस जारी है। हमारी सोच को तय किया जा रहा है, हमारी अभिरुचियों का फैसला हो रहा है। लेकिन तुर्रा यह कि कहा जा रहा है कि आप ही राजा हो, तुसि ग्रेट हो। हमें अपने ऊपर हो रहे इस सांस्कृतिक हमले से बचने की ज़रूरत है। हमें चाहिए आलोचनात्मक विवेक और ऐसा व्यवहारपरक ज्ञान जो हमें मुक्त कर सके। याद रखें, ज्ञान हमें मुक्त करता है, जबकि अनाप-शनाप अनर्गल सूचनाएं हमें सुन्न कर देती हैं।
संदर्भ : ब्राजील के विचारक और लेखक Frei Betto का लेख Emancipated Bodies, Subjugated Minds
Comments
बहुत सही!
पर इस समस्या से सारी दुनिया ग्रस्त है.
खबरबाज लोग कंपनियों की दलाली करते हैं और कहते हैं कि पत्रकारिता कर रहे हैं. पहले यह सब होता तो कहा जाता कि भ्रष्टाचार हो रहा है. अब फर्क देखिए इसे ही शिष्टाचार कहा जा रहा है.