तय करें आप किस खेमे में हैं? इधर या उधर
इस समय हमारे ब्लॉग जगत में दो तरह के लोग हैं। एक वो जो अपने अनुभवों की रोशनी में जीवन-जगत-समाज की गुत्थियों को सुलझाना चाहते हैं। ये लोग बेहद संजीदगी और ईमानदारी से लिखते हैं। इनके लिखे में कोई बनावट नहीं होती। कठिन से कठिन विषयों में भी गोता लगाते हैं तो कुछ ऐसा निकाल कर लाते हैं कि मामला सरल होता दिखता है। तकनीकी और दूसरी तरह की जानकारियां देनेवाले ब्लॉगर भी इसी श्रेणी में आते हैं। इस श्रेणी के ब्लॉगर निर्मोही होकर लिखते हैं।
दूसरी तरफ वो ब्लॉगर हैं जो किसी न किसी मोह से ग्रस्त हैं। यह मोह विचारधारा से भी हो सकता है, व्यक्ति से हो सकता है और खुद से भी। इन लोगों का व्यवहार से खास लेना-देना नहीं होता। इनको किसी नई चीज़ की तलाश नहीं होती। इनके पास बने-बनाए फॉर्मूले होते हैं। जो बातें व्यवहार में सुलझ रही होती हैं, उन्हें भी किताबों को उद्धृत करके इस अंदाज़ में पेश करते हैं कि सारा मामला और उलझ जाता है।
दिलचस्प बात ये है कि बोलने-लिखने वालों में यह खेमेबंदी, यह विभाजन आज से नहीं, सदियों से है। मुझे लगता है कि हमें साफ कर लेना चाहिए कि हम किस श्रेणी में आते हैं? कौन-सा खेमा हमारा है और कौन-सा उनका? क्योंकि दोनों का मन कभी एक नहीं हो सकता है।
संत कबीर यह बात बहुत पहले कह चुके हैं। अपने खिलाफ ज़बरदस्त लामबंदियों से शायद परेशान होकर उन्होंने लिखा था :
तेरा मेरा मनवा कैसे इक होई रे।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।।
मैं कहता निर्मोही रहियो, तू जाता है मोही रे।
जुगन-जुगन समुझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।।
मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुलझावन हारी, तू राख्यो उलझाई रे।।
सतगुरु धारा निर्मल बाहे, वा मय काया धोई रे।
कहत कबीर सुनो भई साधो, तब ही वैसा होई रे।।
दूसरी तरफ वो ब्लॉगर हैं जो किसी न किसी मोह से ग्रस्त हैं। यह मोह विचारधारा से भी हो सकता है, व्यक्ति से हो सकता है और खुद से भी। इन लोगों का व्यवहार से खास लेना-देना नहीं होता। इनको किसी नई चीज़ की तलाश नहीं होती। इनके पास बने-बनाए फॉर्मूले होते हैं। जो बातें व्यवहार में सुलझ रही होती हैं, उन्हें भी किताबों को उद्धृत करके इस अंदाज़ में पेश करते हैं कि सारा मामला और उलझ जाता है।
दिलचस्प बात ये है कि बोलने-लिखने वालों में यह खेमेबंदी, यह विभाजन आज से नहीं, सदियों से है। मुझे लगता है कि हमें साफ कर लेना चाहिए कि हम किस श्रेणी में आते हैं? कौन-सा खेमा हमारा है और कौन-सा उनका? क्योंकि दोनों का मन कभी एक नहीं हो सकता है।
संत कबीर यह बात बहुत पहले कह चुके हैं। अपने खिलाफ ज़बरदस्त लामबंदियों से शायद परेशान होकर उन्होंने लिखा था :
तेरा मेरा मनवा कैसे इक होई रे।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।।
मैं कहता निर्मोही रहियो, तू जाता है मोही रे।
जुगन-जुगन समुझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।।
मैं कहता आँखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुलझावन हारी, तू राख्यो उलझाई रे।।
सतगुरु धारा निर्मल बाहे, वा मय काया धोई रे।
कहत कबीर सुनो भई साधो, तब ही वैसा होई रे।।
Comments
Keep it up !!
आज आपनें जो ब्लाग जगत का classification किया है वह बेजोड़ है। आशा है वह उलझे हुए विचारों के एकालाप bloggers को आपकी दिखाई राह में ला पायेगा।
धन्यवाद.
पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात
अब तो मन हंसा, मोती चुनि-चुनि खात
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ऐसा लगा मेरे मन की बात है.
आपकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी.
दीपक भारतदीप
ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
हो जाता है डावां डो्ल कभी
मैं कहता सुलझावन हारी, तू राख्यो उलझाई रे।।
कबीर के इस दोहे को ही विस्तार दिया है आपने अपनी पोस्ट में...बहुत बढ़िया भाई वाह.... ये बताईये की लोग अपने को लेकर इतने शंकित क्यों हैं जो आप से पूछ रहे हैं की वो किस खेमें में हैं...
नीरज
मैं गहरी छाया भी अज्ञान की !
सरल मुस्कान हूँ मैं शैशव की
कुटिलता भी हूँ मैं मानव की !!
मानव प्रवृति के और भी कई रूप हैं, खेमों में बाँटना मुश्किल है... सब रूपों को सराहते हुए अपनी लेखनी को आनन्द लेने दीजिए. कवीर के दोहे पढ़कर अच्छा लगा.
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय॥
चंद्रभूषण जी सही कहते हैं खेमे बाजी करने जितनी संख्या शायद नहीं हमारी।
घुघूती बासूती
पोस्ट अच्छी है। मज़ेदार है । आनंददायक है।