वही मैं, वही तुम, फिर भी इतना ज्यादा फर्क?
शहरों में नौकरी करनेवाला कौन ऐसा शख्स होगा जिसे गांवों का सरल जीवन और खेतों की हरियाली अपनी ओर न खींचती हो। मैं भी नगरों-महानगरों में पिछले अट्ठारह सालों से नौकरी करते-करते इतना ऊब गया हूं कि मन करता है कि अब अपने गांव जाकर खेती करवाऊं। दस-ग्यारह एकड़ खेत हैं। मिट्टी इतनी उपजाऊ है कि गेहूं और धान से लेकर गन्ना और अरहर तक हर फसल उगाई जा सकती है। कुछ साल पहले गांव से दस किलोमीटर दूर नई चीनी मिल भी लग गई है जो कहती है कितना भी गन्ना बोओ, हम खरीद लेंगे। ऊपर से बागों में रतनजोत (Jatropha) के पौधे लगाए जा सकते हैं जो पचास सालों तक बीज देंगे, बायो-डीजल बनाने के लिए जिसकी मांग बढ़ती जा रही है। अगर रतनजोत की खेती में खतरा और नुकसान है तो हर्बल खेती से भी अच्छी-खासी कमाई हो सकती है।
इधर गांव तक आने-जाने के साधन भी अच्छे हो गए हैं। डेढ़ किलोमीटर उत्तर से पक्की सड़क जाती है जिस पर प्राइवेट बसों से लेकर जीप तक चलती हैं। सुनता हूं कि गांव के बीच से भी एक पिचरोड निकल गई है। अक्सर कल्पना करता हूं कि गांव की गुनगुनी धूप में बैठा हूं। खेतों में गेहूं और सरसों की फसल लहलहा रही है। मेड से सरसों के पीले फूलों को लहराते हुए देखता हूं तो मन हुलस जाता है। लेकिन मुश्किल यही है कि मैं अभी बस इसकी कल्पना ही कर सकता हूं। गांव जाकर खेती नहीं करा सकता। सात साल से तो गांव ही नहीं गया हूं। थोड़ी-सी दिक्कत यह भी है कि खेती-किसानी का पूरा और व्यावहारिक ज्ञान नहीं है मुझे।
वहीं मुझसे से आठ साल छोटा भाई है। कृषि में उसने एमएससी कर रखा है। बी-कीपिंग का कोर्स भी उसने किया है। शुरू से ही गांव में रहा तो खेती-किसानी का व्यावहारिक ज्ञान भी है। आईएएस-पीसीएस की परीक्षाओं में कहीं चयन नहीं हुआ और अब कहीं नौकरी लगने के आसार भी नहीं हैं। तो, फिलहाल बेरोज़गार है। गांव से 15 किलोमीटर दूर एक मामूली गांवनुमा कस्बे में पिताजी के बनवाए घर में ही रहता है। शादी हो चुकी है। एक बेटी है। पिताजी और अम्मा बराबर गांव जाकर खेती करवाते रहते हैं। जुताई-बोवाई से लेकर सिंचाई तक का इंतज़ाम देखते हैं। लेकिन मेरा छोटा भाई कभी भी खेती में हाथ नहीं बंटाता। महीनों तक वहीं कस्बे में पड़ा रहता है, पर गांव का रुख नहीं करता।
सोचता हूं ऐसा क्यों है कि मैं गांव जाकर खेती कराने को लालायित हूं और वह गांव के पास रहते हुए भी खेती में दिलचस्पी नहीं लेता? बेरोज़गारी के बावजूद यह नहीं सोचता कि खेती से कुछ कमाई कर ली जाए? कम से कम मियां-बीवी और बेटी का खर्चा तो निकल आएगा। कल को बेटी को अच्छे स्कूल में पढ़वाना हो तो अभी से उसके लिए खेती की अतिरिक्त कमाई से पैसे बचाए जा सकते हैं। मन ही मन कुढ़ता रहता हूं कि भगवान इसको कब सदबुद्धि देगा। उससे सीधी बात करने की हिम्मत नहीं पड़ती क्योंकि एक बार कहा था तो चिढ़कर बोला कि आप पहले अपना देखो, मेरी चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। फिर मैंने कुछ कहना ही छोड़ दिया। फोन पर बात होती है तो बस घर-परिवार और गांव-जवार का हालचाल लेकर खत्म हो जाती है।
गांव जाकर खेती न कराने के उसके अपने तर्क हैं। कहता है कि खेती ही करानी थी तो इतना पढ़ने-लिखने की क्या ज़रूरत थी। फिर खेती कराने पर गांव के लोग ताना कसेंगे कि पढ़य फारसी, बेचय तेल। दूसरी तरफ गांव जाकर खेती कराने के मेरे अपने तर्क हैं। क्या दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही हैं? मुझे समझ में नहीं आता। क्या लोगों की बातें और दूसरी सामाजिक वजहें हमें अपनी जीविका का साधन अपनाने से रोक सकती हैं? क्या मेरी सोच हवा-हवाई है, जबकि वह गांवों और खेती की ज़मीनी हकीकत से वाकिफ है, इसीलिए खेती नहीं कराना चाहता? लेकिन मुझे उसकी बातें गलत लगती हैं।
मान लें कि गांववाले और पटीदार बुरे भी हैं तो उनसे हमें क्या लेनादेना। बाग और तालाब के पास कहीं फार्महाउस बनाएंगे। सुरक्षा और प्राइवेसी के लिए चारों तरफ बाड़ लगवा देंगे। तालाब में मछली पालेंगे। फार्महाउस में मुर्गीपालन भी करेंगे। ज़रूरत पड़ी तो सूअर-पालन भी कर लेंगे। क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा यही न कि जाति वाले बिरादरी से बाहर कर देंगे। तो इसकी परवाह कौन करता है? वैसे भी जाति-बाहर करने की उनकी औकात रह नहीं गई है। हां, दिल ही दिल में ज़रूर सोचेंगे और पीठ पीछे अनाप-शनाप बोलेंगे। लेकिन असली बात यही है कि मैं अपने भाई को अपनी सोच तक कैसे ले आऊं? इस सवाल का जवाब न तो मेरे अर्थशास्त्र के ज्ञान के पास है और न ही समाजशास्त्र की समझ इसमें मेरी कोई मदद कर पा रही है। अब आप ही बताइए, मैं क्या कर सकता हूं?
इधर गांव तक आने-जाने के साधन भी अच्छे हो गए हैं। डेढ़ किलोमीटर उत्तर से पक्की सड़क जाती है जिस पर प्राइवेट बसों से लेकर जीप तक चलती हैं। सुनता हूं कि गांव के बीच से भी एक पिचरोड निकल गई है। अक्सर कल्पना करता हूं कि गांव की गुनगुनी धूप में बैठा हूं। खेतों में गेहूं और सरसों की फसल लहलहा रही है। मेड से सरसों के पीले फूलों को लहराते हुए देखता हूं तो मन हुलस जाता है। लेकिन मुश्किल यही है कि मैं अभी बस इसकी कल्पना ही कर सकता हूं। गांव जाकर खेती नहीं करा सकता। सात साल से तो गांव ही नहीं गया हूं। थोड़ी-सी दिक्कत यह भी है कि खेती-किसानी का पूरा और व्यावहारिक ज्ञान नहीं है मुझे।
वहीं मुझसे से आठ साल छोटा भाई है। कृषि में उसने एमएससी कर रखा है। बी-कीपिंग का कोर्स भी उसने किया है। शुरू से ही गांव में रहा तो खेती-किसानी का व्यावहारिक ज्ञान भी है। आईएएस-पीसीएस की परीक्षाओं में कहीं चयन नहीं हुआ और अब कहीं नौकरी लगने के आसार भी नहीं हैं। तो, फिलहाल बेरोज़गार है। गांव से 15 किलोमीटर दूर एक मामूली गांवनुमा कस्बे में पिताजी के बनवाए घर में ही रहता है। शादी हो चुकी है। एक बेटी है। पिताजी और अम्मा बराबर गांव जाकर खेती करवाते रहते हैं। जुताई-बोवाई से लेकर सिंचाई तक का इंतज़ाम देखते हैं। लेकिन मेरा छोटा भाई कभी भी खेती में हाथ नहीं बंटाता। महीनों तक वहीं कस्बे में पड़ा रहता है, पर गांव का रुख नहीं करता।
सोचता हूं ऐसा क्यों है कि मैं गांव जाकर खेती कराने को लालायित हूं और वह गांव के पास रहते हुए भी खेती में दिलचस्पी नहीं लेता? बेरोज़गारी के बावजूद यह नहीं सोचता कि खेती से कुछ कमाई कर ली जाए? कम से कम मियां-बीवी और बेटी का खर्चा तो निकल आएगा। कल को बेटी को अच्छे स्कूल में पढ़वाना हो तो अभी से उसके लिए खेती की अतिरिक्त कमाई से पैसे बचाए जा सकते हैं। मन ही मन कुढ़ता रहता हूं कि भगवान इसको कब सदबुद्धि देगा। उससे सीधी बात करने की हिम्मत नहीं पड़ती क्योंकि एक बार कहा था तो चिढ़कर बोला कि आप पहले अपना देखो, मेरी चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। फिर मैंने कुछ कहना ही छोड़ दिया। फोन पर बात होती है तो बस घर-परिवार और गांव-जवार का हालचाल लेकर खत्म हो जाती है।
गांव जाकर खेती न कराने के उसके अपने तर्क हैं। कहता है कि खेती ही करानी थी तो इतना पढ़ने-लिखने की क्या ज़रूरत थी। फिर खेती कराने पर गांव के लोग ताना कसेंगे कि पढ़य फारसी, बेचय तेल। दूसरी तरफ गांव जाकर खेती कराने के मेरे अपने तर्क हैं। क्या दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही हैं? मुझे समझ में नहीं आता। क्या लोगों की बातें और दूसरी सामाजिक वजहें हमें अपनी जीविका का साधन अपनाने से रोक सकती हैं? क्या मेरी सोच हवा-हवाई है, जबकि वह गांवों और खेती की ज़मीनी हकीकत से वाकिफ है, इसीलिए खेती नहीं कराना चाहता? लेकिन मुझे उसकी बातें गलत लगती हैं।
मान लें कि गांववाले और पटीदार बुरे भी हैं तो उनसे हमें क्या लेनादेना। बाग और तालाब के पास कहीं फार्महाउस बनाएंगे। सुरक्षा और प्राइवेसी के लिए चारों तरफ बाड़ लगवा देंगे। तालाब में मछली पालेंगे। फार्महाउस में मुर्गीपालन भी करेंगे। ज़रूरत पड़ी तो सूअर-पालन भी कर लेंगे। क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा यही न कि जाति वाले बिरादरी से बाहर कर देंगे। तो इसकी परवाह कौन करता है? वैसे भी जाति-बाहर करने की उनकी औकात रह नहीं गई है। हां, दिल ही दिल में ज़रूर सोचेंगे और पीठ पीछे अनाप-शनाप बोलेंगे। लेकिन असली बात यही है कि मैं अपने भाई को अपनी सोच तक कैसे ले आऊं? इस सवाल का जवाब न तो मेरे अर्थशास्त्र के ज्ञान के पास है और न ही समाजशास्त्र की समझ इसमें मेरी कोई मदद कर पा रही है। अब आप ही बताइए, मैं क्या कर सकता हूं?
Comments
समाधान के लिये इन मुद्दों को देखा जाये।
then,
they better get their act together !
श्री कृष्ण भगवान् भी ख गए "तस्माद` उत्तिष्ठ कौन्तेय, " ....गीता की एक प्रति अवश्य भिजवा दीजियेगा ...क्या पता , सुधार हो जाए !
LEKIN YE BHI SACH HAI KI KRISHI ME NUKSAAN KOI NAHI HAI..BASTI JILE ME.N RAHNE VALE HAMARE MAMAJI NE ISE EK OCCUPATION KI TARAH CHUNA HAI..AUR KYA THAAT KI JINDAGI JI RAHEHAI.N
नीरज
आपके भाई के सामने यदि उनके जैसे ही किसी युवक के उसी परिवेश में रहकर खेती और उससे जुड़े ग्रामीण उद्योग-कारोबार में सफल होने और जिंदगी की तमाम खुशियां, सुख-साधन जुटा लेने का उदाहरण मौजूद हो तो उन्हें भी यह विश्वास जगेगा कि उन्हें भी ऐसा ही करना चाहिए। आपके अनुज की धर्मपत्नी उन्हें सबसे बेहतर तरीके से इसके लिए प्रेरित कर सकती हैं।
अपनी सोच, अपने कार्य की दिशा और अपने लक्ष्य के बारे में हर व्यक्ति को खुद ही निर्णय लेना होता है। दूसरा हर कोई केवल निमित्त बन सकता है, कुछ हद तक वैसी परिस्थितियां पैदा कर सकता है।
आपके भाई शायद एक बार गुजरात का चक्कर लगा लें जहाँ कई लोग MBA करने के बाद भी नौकरी करने की बजाय खेती कर रहे हैं और क्या बताऊं आपको करोड़ों में खेल रहे है। वर्णन नहीं कर सकता बस आप खुद एक बार जा कर देखें।
सुरत महानगर पालिका में दर्जनों कामदार ( रात में सड़क साफ करने वाले ) जो ऊंची ऊंची डिग्रीयों के धारक हैं।
यह लेख सिर्फ़ आपकी ही नहीं कई घरों की कहानी है/ हो सकती है। उस पर नीरज जी की टिप्पणी को पढ़ कर किसी कवि ( शायद नईम )की बहुत सालों पहले सुनी पंक्तियाँ याद आतीं हैं : आदमी भी अजब चीज़ है जो नहीं है उसे खोजता है जिसे पाता है उसे जब तक कहीं खो न दे कितना बैचैन रहता है/ गायब को हाज़िर और हाज़िर कि गायब में यूँ खोजता है जैसे खु़द खो गया हो।
अपनें भाई साहिब से सहृदयता से पेश आवें। और, गाँव में बसनें की कल्पना से पहले वहाँ जाना तो शुरु करें। सात साल से अलगाव ?? यह कैसा लगाव है?
मनोज