शरीर हमारा है, लेकिन जीवन नहीं है हमारा
मानस का चरित्र गढ़ते वक्त मैं अपनी दो प्रस्थापनों पर बड़ा मुदित था। पहली यह कि जीवन एक बायोलॉजिकल फैक्ट है और दूसरी यह कि जानवर कभी आत्महत्या नहीं करते, इंसान ही आत्महत्या करता है। दोनों में ही आत्महत्या को सही ठहराने की कोशिश की गई है। जीवन को बायोलॉजिकल फैक्ट मानकर जीते चले जाने की बात ज़रूर आई थी, जिससे लग सकता है कि यह तर्क आत्महत्या का विरोध करता है। लेकिन असल में यह जीवन को जिंदा लाश जैसा ढोने का बहाना भर देता है। आज मुझे लगता है कि इन दोनों ही प्रस्थापनाओं में छिपी सोच सरासर गलत है। मानव शरीर यकीनन एक बायोलॉजिकल फैक्ट है, लेकिन हर किसी इंसान का जीवन एक सामाजिक हकीकत है। भगवान ने हमें बनाया, उसने किसी मकसद से हमें धरती पर भेजा है और यह शरीर ईश्वर की धरोधर है - ये सारी बातें पूरी तरह बकवास हैं। हम प्रकृति की रचना हैं और हमारे मां-बाप ने हमें पैदा किया है। वो न होते तो हमें यह शरीर नहीं मिलता। ये हाथ-पांव, मुंह-नाक, सुंदर सलोनी आंखें, खूबसूरत चेहरा हमें नहीं मिलता। इसलिए इस शरीर के लिए हम प्रकृति और अपने मां-बाप के ऋणी हैं। लेकिन हमारे जीवन और किसी आवारा कुत्ते या जंगली जानवर और पक