विजिटर हुए 22,242 पर पाठक तो 200 ही हैं!
डूब मरने की बात इसलिए भी है कि क्योंकि भले ही हिंदुस्तानी की डायरी के ‘पाठकों’ की संख्या 22,242 के फैंसी नंबर तक पहुंच गई है, लेकिन आप भी जानते हैं और मुझे भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि इन नंबरों में गज़ब का छलावा है क्योंकि असली पाठक ज्यादा से ज्यादा 200 ही होंगे। पाठकों का वही सेट है जो बार-बार हमारे ब्लॉग पर आता है। रोज़ के वही पाठकजी, मिश्राजी, पांडेजी, दलितजी, पिछड़ेजी, बंटी-बबली और उनके मम्मी-पापा। बार-बार इनके आने से साइटमीटर का आंकड़ा सुस्त रफ्तार से ही सही, बढ़ता रहता है और इस तरह बूंद-बूंद से घड़ा भरता जाता है। लेकिन हकीकत यही है कि हर महीने अपने ब्लॉग से बमुश्किल दस पाठक ही नए जुड़ते होंगे।
इस समय हिंदी ब्लॉगों की संख्या 2000 के करीब पहुंच चुकी है। ऐसे में अगर किसी ब्लॉग पर 10 फीसदी ब्लॉगर (यानी 200 पाठक) भी नियमित नहीं आते तो उस ब्लॉगर को अपने लेखन पर गहराई से विचार करना होगा। मान लीजिए हमने ब्लॉग को उत्पाद/सेवा मानकर उसकी मार्केटिंग रणनीति भी तैयार कर ली और दोस्तों को कहने से लेकर टैग से सर्जइंजन को खींचने की हर तिकड़म भिड़ा ली, तब भी क्या फायदा? ब्लॉग कोई फ्रिज, टेलिविजन या एसी जैसा उत्पाद तो है नहीं कि एक बार खरीद लिया तो ग्राहक कई सालों के लिए फंस गया। ये तो चाट/चाय की दुकान या अखबार की तरह है, जहां ग्राहक हर दिन आए, तभी कोई फायदा है। क्या अफीम की कोई ऐसी पुड़िया है जो पाठक को बार-बार हमारे ब्लॉग पर आने को मजबूर कर सकती है?
अंत में एक अनसुलझा सवाल। कल दिन में बातचीत के दौरान पत्नी ने बड़ा सहज और सामान्य-सा सवाल उठाया, जिसका ब्लॉगर्स से संबंध है भी और नहीं भी है। सवाल यह था कि लोगों में अटेंशन पाने की इतनी अकुलाहट क्यों रहती है? लोगबाग एप्रिसिएशन के इतने भूखे क्यों रहते हैं? मैंने यहां-वहां से लमतड़ानी झाड़ने की कोशिश की कि इंसान सामाजिक प्राणी है। कुनबे से लेकर कबीले तक कितने लोग उसे जानते-मानते हैं, इसी से उसकी शख्सियत बनती है। सदियों का वही सिलसिला आज आदमी को अटेंशन पाने की अकुलाहट तक ले गया है। वैसे भी बाज़ार के मौजूदा जमाने में ज्यादा से ज्यादा स्वीकृति वाली चीज़ ही चलती है। तो, अटेंशन या एप्रिसिएशन आज के दौर में अंतर्निहित बुनियादी सोच है। लेकिन इस जवाब से न तो मेरी पत्नी संतुष्ट हुईं और न ही मैं।
(नोट: ये पोस्ट बुधवार को रात लिखी थी, लेकिन वायरस अटैक में कंप्यूटर बैठ गया। कल गुरुवार को रात में कंप्यूटर को रीफॉर्मैट कराया गया। उसी के बाद आज सुबह इसे मामूली फेरबदल के साथ पेश कर रहा हूं)
Comments
बहुत कम लोग होते हैं जिनका होना भी न होने जैसा होता है. और आश्चर्य कि उन्हें इस बात का कोई दुख नहीं होता कि उनके बारे में अटेन्शन नहीं है. अटेंशन खींचने की ललक तो मेरे जैसे कमअक्लों में ज्यादा रहती है जो समझ के दायरे से बाहर निकल अपने आपको बुद्धिमान मान बैठते हैं.
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दूसरी बात यह कि गरिष्ठ लेखन या सदा गंभीर लेखन से एक खास पाठक वर्ग ही रेगुलर पाठक बनेगा खास से आशय है कि बुद्धिजीवी वर्ग। बाकी कतराकर निकल लेंगे।
यह दोनो बातें मैने साल भर ब्लॉगजगत मे रहकर ही सीखी है।
ब्लॉगर्स की संख्या से पाठक कहीं ज्यादा है और ऐसे पाठक और भी ज्यादा है जो टिप्पणियां बहुत ही कम करते हैं।
अक्सर मुझे ऐसे लोग टकराते हैं जो कहते हैं कि हां वह फलां-फलां के ब्लॉग्स पढ़ते हैं लेकिन कभी टिप्पणी नही करते, कुछ करना नही चाहते कुछ सोचते है कि हिंदी लिखना नही आता तो कैसे करें।
अटेंशन की ललक तो मुझ जैसे अधजल गगरी छलकत जाए वालों में कुछ ज्यादा ही होती है।