Saturday 7 July, 2007

सात-सात-सात, कहां-कोई-साथ

मतीन ने अपने कागज-पत्तर संभाल लिए। एक सूटकेस, हैंडबैग...बस यही वह अपने साथ लेकर जानेवाला था। बड़े जतन से खरीदी गई ज्यादातर किताबें तक उसने वहीं अपने कमरे में छोड़ दीं। उसे पता था कि इस घर और इस कमरे में लौटना अब कभी नहीं होगा। फिर भी, उसने बहुत कुछ यूं ही बिखरा छोड़ दिया जैसे कल ही उसे लौटकर आना हो। वैसे, उसे ये भी यकीनी तौर पर पता था कि उसके चले जाने के बाद उसके कमरे में अम्मी के सिवाय कोई और नहीं आएगा, कमरे को उसके पूरे मौजूदा विन्यास के साथ किसी गुजर गए अपने की याद की तरह आखीर-आखीर तक सहेज कर रखा जाएगा।
यही कोई सुबह के चार-सवा चार बजे रहे होंगे, जब मतीन अपने कमरे से हमेशा-हमेशा के लिए नीचे उतरा। दिल्ली की गाड़ी सुबह आठ बजकर दस मिनट पर छूटती थी। लेकिन उससे घर में और ज्यादा नहीं रुका गया। नीचे उतरा तो अब्बू से लेकर अम्मी तक के कमरे की लाइट जली हुई थी। लेकिन कमरे में कोई नहीं था। अब्बू अम्मी को साथ लेकर कहीं चले गए थे। मतीन को लगा, ये अच्छा ही हुआ। नहीं तो बेवजह का रोनाधोना होता। वह वक्त से दो घंटे पहले हावड़ा स्टेशन पहुंच गया।
पुराना सब कुछ छोड़ने से पहले वह दिल्ली जा रहा था, अपनी बहन सबीना से मिलने क्योंकि वही तो है जो उसे इस घर में सबसे ज्यादा समझती है। सबीना राज्यसभा की सदस्य है। सरकारी बंगला मिला हुआ है। काफी पढ़ी-लिखी आधुनिक विचारों की है। पूरा दिन और पूरी रात के सफर के बाद वह सुबह जब दिल्ली पहुंचा तब तक उस्ताद अली मोहम्मद शेख उसे अपनी पूरी विरासत और जायदाद से बेदखल कर चुके थे। लेकिन इतना सब कुछ बदल जाने के बावजूद मतीन का घर का नाम नन्हें ही रहा।
सबीना हमेशा की तरह मतीन से दौड़कर नहीं मिली। उसने उसे आधे घंटे से भी ज्यादा इंतजार करवाया। असल में सबीना को भी सारा कुछ जानकर काफी ठेस लगी थी। अब्बू और अम्मी ने इस सिलसिले में उससे कई बार बात की थी। इसलिए आज वो मिलना चाहकर भी मतीन से नहीं मिलना चाहती थी। शायद अपने दिल के जज्बातों को संभालने के लिए थोड़ा वक्त चाहती थी। वैसे, बंगले के अंदर से बाहर दीवानखाने में आई तो पुराने अंदाज में ही बोली - तो नन्हें मियां को बहन की याद आ ही गई।
मतीन जैसे भरा बैठा था। इतनी मामूली-सी अपनापे की बोली सुनकर फफक कर रो पड़ा। सबीना भी अपने आंसू नहीं रोक पाई। करीब आधे घंटे तक प्यार-दुलार चलता रहा। फिर करीब एक घंटे तक मुंह-हाथ धोने और चायपानी का सिलसिला चला। इसके बाद फौरन असली मुद्दे पर बातचीत शुरू हो गई। सबीना ने दिन भर के सारे अप्वॉइंटमेंट रद्द कर दिए। बात चलती रही, लगातार। खूब जिरह हुई। लेकिन सबीना पर मतीन के तर्कों का कोई असर नहीं हुआ।
मतीन कह रहा था - मैं अपने इतिहास को इतना छोटा नहीं कर सकता। हम भले ही मुसलमान हो गए लेकिन अपना इतिहास तो काटकर नहीं फेंक सकते। क्या मोहम्मद साहब से पहले हमारी कोई वंशबेल नहीं थी? हम वेद, उपनिषद, महाभारत, गीता, रामायण या बुद्ध और महावीर को कैसे नकार सकते हैं? क्या मोहनजोदड़ो या हड़प्पा की सभ्यता से हमारा कोई वास्ता नहीं है? क्या हम कहीं आसमान से टपक कर नीचे आ गिरे? मैं खुद को इतना छोटा, इतना अकेला नहीं महसूस करना चाहता, न ही मैं ऐसा अब और ज्यादा कर सकता हूं।
लेकिन सबीना ने मतीन की बातों को फूंक मारकर उड़ा दिया।
- तुमसे किसने कह दिया कि इस्लाम धर्म में रहकर तुम छोटे और अकेले हो जाते हो। इस्लाम किसी को उसकी विरासत से अलग नहीं करता। अपने को दलित मानो या ब्राह्मण, इसकी आजादी तुम्हें है। हम तो आदम-हौवा से अपनी शुरुआत मानते हैं। पैगंबर मोहम्मद तो बस दूत थे, एक कड़ी थे। फिर हिंदू बनने की बात करते हो तो चले जाओ पाकिस्तान, क्योंकि सिंधु नदी अब वहीं बहती है और सिंधु नदी के किनारे बसने वालों को ही हिंदू कहा जाता था। वैसे, इन बातों से अलग हटकर मेरा मानना है कि इतिहास कुछ नहीं होता। इतिहास, खानदान या जिसे तुम वंशबेल कह रहे हो, इनकी बातें असल में वहीं तक सही हैं, जहां तक इनकी याददाश्त हमारे जींस में दर्ज होती है। बाकी सारा इतिहास तो सत्ता का खेल है। सत्ता के दावेदार अपने-अपने तरीके से इतिहास की व्याख्या करते हैं। बच्चों को वही पढ़वाते हैं, उनके दिमाग में वही भरवाते हैं, जो उनके माफिक पड़ता है।
सबीना ने मतीन के सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से कहा - नन्हें मियां, बावले मत बनो। इतिहास-उतिहास कुछ नहीं होता। इतिहास की टूटी कड़ियों या अतीत की याददाश्त की बातें अपने जींस पर छोड़ दो। बाकी सब बकवास है, दिमाग का फितूर है।
मतीन ने दोनों हाथों की उंगलियां आपस में फंसाकर चटकाईं, दीवारों पर जहां-तहां नज़र दौड़ाई। उसे कहीं गहरे अहसास हो गया कि बहन भी उसका साथ नहीं देनेवाली। जारी...

2 comments:

Sanjeet Tripathi said...

अखर नही रहा आपके एक दिन में इतने पोस्ट करना॰॰
अगली किश्त का इंतजार रहेगा!!

Udan Tashtari said...

सिंधु नदी के किनारे बसने वालों को ही हिंदू कहा जाता था। ----


बहुत खूब अनिल भाई...बहुत बहाव में हैं जारी रखें बहाव को...बहुत गहरे बहे जा रहे हैं आप. मजा आ गया..इन्तजार कर रहा हूँ अगली कड़ी का!! कब मिलता है इतना गहरा लेखन, वाह!!