Sunday 15 July, 2007

और, वह जा गिरा अष्टधातु के कुएं में

जहां तक मुझे याद है, उसका नाम चंदन था। छह साल पहले दिल्ली में एक बस स्टैंड पर उससे मेरी मुलाकात हुई थी। बस के लिए 45-50 मिनट के इंतजार के दौरान उसने अपनी मनोदशा का जो हाल बयां किया, वह मैं आज आपको सुना रहा हूं। इसे सुनने के बाद मुझे लगा था कि उसने या तो कोई सपना देखा था या वह पागल होने की तरफ बढ़ रहा है। आपको क्या लगता है, ये चंदन का हाल जानने के बाद जरूर बताइएगा।
एक सुबह चंदन अपने घर के ईशान कोण के कोने में आलथी-पालथी मारकर बैठा था कि तभी किसी ने उसे अष्टधातु से बने सीधे-संकरे और गहरे अतल कुएं में उठाकर फेंक दिया। गिरने की रफ्तार या फेंके जाने की आकस्मिता से वह इतना संज्ञा-शून्य हो गया कि जब तक वह कुएं की अंधेरी तलहटी से नहीं टकराया तब तक उसे यही लगता रहा, मानो उसका शरीर धातु की बनी कोई मूर्ति हो जो कुएं की दीवारों से टकरा कर खन, खनाखन, टन-टनटन करती हुई बिना टूटे-फूटे नीचे गिरती जा रही हो। कई दिन और रात तक गिरते रहने के बाद वह अष्टधातु के इस अतल कुएं की तलहटी में जा पहुंचा।
कुएं का तल एकदम सूखा था। सख्त फौलाद जैसी धातु से बना था वह। चौड़ाई बस इतनी थी कि वह दोनों हाथों की कोहनियां भर उठा सकता था। कुआं अंदर से सुघड़ ज्यामितीय आकार के बेलन जैसा था। उसकी गहराई का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि तल में बैठकर चंदन को ऊपर का सिरा दिन में रोशनी के एक चमकते बिंदु के माफिक दिखता था, जबकि रात में तो कोहनियों या टखनों से टकरा कर आती खन-टन की आवाजें ही उसे कुएं की मौजूदगी का, उसके धातु से बने होने का अहसास कराती थीं।
चंदन को इस भयंकर गहरे कुएं की तलहटी में अकेलापन तो लग रहा था, पर अकुलाहट बिलकुल नहीं हो रही थी। सांस तो ऐसे साफ चल रही थी मानो उसे शुद्ध ऑक्सीजन से भरे सिलिंडर में बैठा दिया गया हो। अकेलापन भी उसे परेशान करनेवाला नहीं था। वह ऐसा ही था जैसे घनघोर हवन से उठे धुएं में आप किसी को देख नहीं पाते हैं और आंखें बंद रखना आपकी मजबूरी बन जाती है।
चंदन को न भूख लगती थी, न प्यास। समय बीतता गया। वह कभी खड़ा होता तो कभी अपनी जगह पर घूम-घूम कर नाच लेता। इस तरह बीत गए तकरीबन छह महीने। अचानक एक दिन कहीं से निश्चित अंतराल पर विशालकाय घंटों के बजने की आवाज़ें आने लगीं। हर आवाज़ अपने आखिरी स्पंदन तक गूंजती रहती। झंकृत होती आवाजें उसके करीब आती गईं और तभी उसे लगा कि कुएं की तलहटी एकदम सधी गति से धीरे-धीरे ऊपर उठ रही है। दिन का वक्त था। कुएं के ऊपरी छोर पर रोशनी का बिंदु बड़ा होता गया। सूरज के डूबने में यही कोई एक घंटे बचे रहे होंगे, जब वह जहां से गिरा था, घर के उसी कोने पर पहुंच गया। दुनिया का कारोबार सहज ढंग से चल रहा था। जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, जैसे वह कहीं गायब ही नहीं हुआ हो।
चंदन को लगा जैसे सूरज पर लगा ग्रहण छह महीने तक उस पर छाये रहने के बाद अब समाप्ति की ओर है। उसे सूरज पर बनी हीरा-जड़ित अंगूठी की आकृति साफ दिखाई दे रही थी। फिर से नौकरी पाने की उम्मीदें बलवती हो गई थीं। लेकिन वह सोचने लगा कि वह नौकरी पाने के लिए इतना बेचैन क्यों है? पैसे तो उसने इतने कमा लिए हैं कि वह राजधानी में कम से कम पांच साल ऐश से काट सकता है।
फिर, गांव की ज़मीन है, जहां वह जाकर मिट्टी का ज्यामितीय आकार का खुला-खुला बड़ा-सा घर बनाएगा, जिसके हर कमरे की छत पर वह मोटे कांच के टुकड़े लगाएगा। दिन भर घर के हर कमरे में सूरज की रोशनी और रात में लालटेन या ढिबरी का मद्धिम उजाला। बाहर बाग-बगीचे होंगे, तालाब होगा जिसमें बत्तख और मछलियां पाली जाएंगी। गांव के इस शांत-शीतल माहौल में वह बाकी उम्र पूरे सुकून से काट सकता है। लेकिन उम्र को काट ले जाना ही क्या जीवन का उद्देश्य रह गया है या इसका कोई और भी मतलब है। जो भी हो, नौकरी करना तो जीने का उद्देश्य नहीं हो सकता।
चंदन ने जब ये वाक्य कहा, तभी मेरी बस आ गई और मैं दूसरे दिल्लीवासियों की तरह बस की तरफ लपक गया, बिना कोई दुआ-सलाम किए।

1 comment:

अभय तिवारी said...

कु्छ काम में मुब्तिला होने की चलते मैं इस पोस्ट को पढ़ न सका.. देखा था पर सोचा कि आराम से पढ़ूँगा.. शीर्षक से ही एक विचित्र आकर्षण का बोध हुआ था.. एक अजीब दुनिया खींची है आप ने.. और समझने की उत्सुकता है इस दुनिया को .. पर चन्दन तो बस में चढ़ कर चला गया.. आप उस के बयान में कुछ कल्पना मिलाकर बढ़ा देते इस अनुभव को तो और रोचक हो जाता.. कुछ अधूरा सा लगता है..
फिर भी हैरानी है कि ऐसे अनोखी पोस्ट पर किसी ने भी टिप्पणी नहीं की.. ?