Sunday 8 July, 2007

मियां, तुम होते कौन हो!

सबीना जिस तरह इतिहास को खारिज कर रही थी, उससे लगता था कि इतिहास से कहीं उसको कोई गहरा व्यक्तिगत गुरेज हो, जैसे किसी इतिहास से उसका बहुत कुछ अपना छीन लिया हो। वह बोलती जा रही थी।
- मैं तो कहती हूं कि बच्चों को तब तक इतिहास नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, जब तक वे समाज को देखने-समझने लायक न हो जाएं। बारहवीं से भले ही इतिहास को कोर्स में रख दिया जाए, लेकिन उससे पहले बच्चों के दिमाग को पूर्वाग्रह भरी बातों से धुंधला नहीं किया जाना चाहिए। बच्चों को सेक्स पढ़ा दो, मगर इतिहास मत पढ़ाओ। उन्हें आज की हकीकत से जूझना सिखाओ, ज़िंदगी का मुकाबला करना सिखाओ, आगे की चुनौतियों से वाकिफ कराओ। बीती बातें सिखाकर कमज़ोर मत बनाओ। पुरानी बातों को लेकर कोई करेगा क्या? तुमने तो साइंस पढ़ा है। दिमाग में न्यूरॉन्स मरते रहते हैं, नए नहीं बनते। स्टेम कोशिकाएं वही रहती हैं, लेकिन इंसान का बाहरी जिस्म, उसकी शरीर की सारी कोशिकाएं चौबीस घंटे में एकदम नई हो जाती हैं। तो...मन को नया करो, उसे अतीत की कंदराओं में निर्वासित कर देने का, गुम कर देने का क्या फायदा!
- मगर चमड़ी का रंग-रूप तो आपके इतिहास-भूगोल और खानदान से तय होता है। फिर... इंसान कोई तनहा अलग-थलग रहनेवाला जानवर नहीं है। उसका तो वजूद ही सामाजिक है। वह समाज से कटकर अकेला रह सकता है। समाज भी उसकी अनदेखी कर दे, लेकिन जो समाज उसके अंदर घुसा रहता है, वह उसे कभी नहीं छोड़ता। इंसान अपने दिमाग का क्या करे। वह तो सामाजिक सोच से बनता है। और...इंसान का आज तो गुजर गए कल की बुनियाद पर ही खड़ा होता है।
- ये तुम जो सामाजिक सोच और कल की बुनियाद की बात कर रहे हो, इसी की शिनाख्त में तो लोचा है। इसे तय करते हैं सत्ता के लिए लगातार लड़ रहे सामाजिक समूह। यहां कुछ भी अंतिम नहीं होता। आज गांधी सभी के माफिक पड़ते हैं तो सब उनकी वाह-वाह करते हैं। यहां तक कि हिंदुस्तान के बंटवारे के लिए गांधी को दोषी ठहराने वाले संघ परिवार ने भी सत्ता में आने के लिए गांधीवादी समाजवाद का सहारा लिया था। लेकिन हो सकता है कि देश में किसी दिन ऐसे लोगों की सरकार आ जाए जो दलाली के दलदल मे धंसी आज की राजनीति के लिए सीधे-सीधे गांधी नाम के उस महात्मा को जिम्मेदार ठहरा दे और हर गली-मोहल्ले, यहां तक कि संसद से गांधी की मूर्तियों को हटवा दे। क्या चीन और रूस में ऐसा नहीं हुआ कि माओ की तस्वीरें हटा दी गईं, लेकिन की कब्र को तोड़ दिया गया।
सबीना ने महात्मा शब्द को थोड़ा जोर देकर कहा था। मतीन समझ नहीं पाया कि वह गांधी की तरफदार है या निंदक। उसने पेज-थ्री की सेलेब्रिटीज में शामिल हो चुकी अपनी बड़ी बहन की बातों को खास तवज्जो नहीं दी। वह तो अपने में ही खोया हुआ था।
बोला – आपा, मुझे इससे मतलब नहीं है कि कल क्या होगा, या क्या हो सकता है। मुझे तो अपनी परवाह है। आज मुझे नींद में भी डर लगता है कि कोई मुझे दाढ़ी पकड़कर घसीटता हुआ ले जाकर हवालात में बंद कर देगा। फिर अनाप-शनाप धाराएं लगाकर मुझे आतंकवादी ठहरा देगा। सड़क पर घूमते हुए मुझे लगता है कि हर कोई मुझे ही घूर रहा है। मौका मिलते ही सादी वर्दी में टहल रहा कोई सरकारी एजेंट मुझे दबोच लेगा। और, इसके लिए मैं अपने नाम मतीन मोहम्मद शेख, अपने मजहब इस्लाम और अपने खानदान से मिली पहचान को गुनहगार मानता हूं। मैं अभी तक बेधड़क जीनेवाला शख्स था, किसी से भी डरता नहीं था। लेकिन आज हर वक्त अनजाने डर के साये में जीता हूं। आपा, मैं पूरी शिद्दत से ऊपर वाले की दी हुई ये खूबसूरत जिंदगी बेखौफ जीना चाहता हूं, बेवजह मरना नहीं चाहता।
- नन्हें मियां, इतनी बेमतलब और खोखली बातें मत करो। मियां, तुम होते कौन हो, उस मजहब और खानदान पर तोहमत लगानेवाले, जिसने तुम्हें तुम्हारी पहचान दी है। इनके बगैर तुम आज जो कुछ भी हो, वो कतई नहीं होते। रही, खौफ, बहादुरी और जज्बे की बात तो एक बात जान लो कि इसे पीछे तुम्हारे शरीर का बिगड़ा हुआ हार्मोनल बैलेंस है। तुम्हारा गुबार, तुम्हारी घबराहट, सारी जेहनी उठापटक और तुम्हारा अकेलापन, इस सारी सेंटीमेंटल चीजों को तय करते हैं तुम्हारे शरीर के हार्मोन्स।
मतीन पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया। उसे लगा जैसे सरेआम चौराहे पर उसके सारे कपड़े उतार दिए गए हों। लगा, जैसे पांच फुट ग्यारह इंच का कद मोम की तरह पिघलकर सड़क किनारे गिरे हुए पत्तों के ढेर में गुम हो गया। वह सोचने लगा कि अगर ऐसा ही है तो उसका वजूद क्या है, उसके होने का मतलब क्या है। सब कुछ हारमोन्स ही तय करते है तो क्या वह कुदरत के हाथ की महज कठपुतली है? मतीन चाहकर भी इन बातों को हवा में नहीं उड़ा सका। ये बातें क्योंकि सबीना ने कही थीं, इसलिए इनकी अहमियत उसके लिए काफी ज्यादा थी। जारी...

2 comments:

मैथिली गुप्त said...

प्रतीक्षारत हैं....

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म, सही!!

वेटिया रहे हैं अगली किश्त को!