Sunday 1 July, 2007

एक अतीतजीवी मित्र को खत

प्यारे दोस्त,
मेरे पास तुम्हारे बहुत सारे पत्रों में से एक पत्र 23 सितंबर 1997 का है और एक पत्र 7 फरवरी 2007 का है। तुम्हारी इनटेन्सिटी का पता इसी से चलता है कि पहला पत्र तुमने रात के साढ़े तीन बजे लिखा था और दूसरा पत्र रात के 11 बजकर 18 मिनट पर लिखा था। इसके अलावा तुम्हारे कुछ ताजा एसएमएस भी मेरे मोबाइल के इनबॉक्स में हैं, जिनमें तुमने लिखा है :
1. जब भी चांद को देखना, याद करना हमें, ये सोचकर नहीं कि खूबसूरत है वो, ये सोचना कि तनहा है वो, वो भी सितारों के बीच में।
2. If care is a wave, I give you sea. If respect is a leaf, I give you tree. If trust is a planet, I give you a galaxy. If friendship is a life, I give you mine.
3. हमें तुमसे प्यार कितना, ये हम नहीं जानते, मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना। प्यारे भाई, जब भी वक्त निकल पाए बात कर सकते हो।
तुम्हारी शिकायत है कि पहले मैं तुम्हारे पत्रों का जवाब नहीं देता था और अब फोन ही नहीं उठाता। मित्र, मैं तुम्हारी भावनाओं को समझता हूं। तुम मेरी इतनी चिंता करते हो, मेरे स्वास्थ्य के बारे में मां की तरह चिंतित रहते हो, इसके लिए मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूं। लेकिन मेरी मुश्किल है कि मैं तुमसे क्या शेयर करूं, बात क्या करूं। तुमने तो 1997 के पत्र से ही हठी विक्रमादित्य का चोला पहन रखा है। उसमें तुमने उलाहना देते हुए लिखा था, 'तुम तो रेगिस्तान के मेघ की तरह चुप हो गए। ...अपनी दोस्ती की बासी कढ़ी में फिर से उबाल आना चाहिए।' दस साल बाद के पत्र में तुम फिर लिखते हो, 'तुमने तो दरवाजे खिड़कियां बंद कर ली हैं। सुनना तो खैर बाद का है, कहना भी नहीं हो पा रहा है।...मेरे लिए समय अपने बालसखा पर ही थमा है, जबकि इस बीच गंगा में बहुत पानी बह चुका, इतना कि पानी अब रहा ही नहीं।...उस बचपन का नास्टैल्जिया कहीं गया नहीं है। इसी से कहता हूं कि वक्त रुक गया है मेरे लिए।' आगे लिखते हो, 'गिनती के साल बचे हैं, हम पर है कैसे जीते हैं। इतने साल ठीक से, प्यार से, मिल-जुलकर जी नहीं सके, एक-दूसरे की पीड़ाएं, चिंताएं, सरोकार शेयर नहीं कर पाए, नियति का इतना दंड ही बहुत है हमारी नासमझियों को देखते हुए।'
मित्र, मैं तुम्हारी भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता। लेकिन कल से इस तरह चिपके रहना ठीक नहीं। बचपन के खूंटे से जो इलास्टिक तुमने अपने जिस्म-ओ-जेहन से बांध रखी है, वह तुम्हें कभी वर्तमान से ताकत भर लड़ने नहीं देगी। मेरे ख्याल से पैंतीस साल से ज्यादा वक्त गुजर चुका है हमारे बचपन की दोस्ती को। तुम घर-परिवार वाले हो, नौकरी-पेशा हो। हर दिन नई-नई चुनौतियां पेश करता है, उनसे जूझो। मेरे या किसी और के बहाने अतीत में झांक कर खुद को कमजोर मत बनाओ। वक्त तुम्हारे अंदर ठहरा है, बाहर नहीं। उससे टकराओगे नहीं, भागकर अतीत की यादों में सुकून तलाशोगे तो पछताओगे। हम सभी के सामने अपनी-अपनी समस्याएं हैं, चुनौतियां हैं। हम अगर कभी आमने-सामने मिल जाएं तो शायद एक-दूसरे को पहचान भी नहीं पाएंगे। फिर पैंतीस साल पुरानी छाया को पकड़कर क्यों बैठे हो?
अंत में बस इतना कहना चाहूंगा। जो कल था, आज नहीं है। जो आज है तो कल नहीं रहेगा। हर सुबह नई ज़िंदगी है, नया शरीर है। बस संज्ञा पुरानी है, नाम पुराना है, बाकी सब कुछ तो नया है।
तुम्हारे सुखद भविष्य की कामना के साथ...

4 comments:

अनूप शुक्ल said...

अपने मित्र के बहाने सबको सीख दी आपने!

Anonymous said...

Anil ji,
accidently seen your site and impressed by letter to a friend.dont know and dont care whohe is but sentiments are universal and everlasting. Friendship is and should be a lifelong matter. If it is more than three decades old it must go on.
with regards,
Dr. Manoj Chandel

Udan Tashtari said...

वाह, बहुत सुन्दर जीवन की सीख. सबक बहुत अच्छा लगा. आभार.

विजेंद्र एस विज said...

गहरी संवेदनाये और अभिव्य्क्ति लिये यह पत्र जीवन मे सीख दे रहा है..
आभार.