शुक्रिया ब्लॉगवाणी, सच्ची सूरत दिखाने के लिए
छि:, हिंदी समाज की सतह पर तैरती इस काई की एक झलक से ही घिन होती है, उबकाई आती है। इस काई का सच दिखाने के लिए ब्लॉगवाणी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। अजीब हालत है। आप गाली-गलौज करिए, किसी ब्लॉगर का नाम लेकर उकसाइए, कुछ विवाद उछाल दीजिए। बस देखिए, आपकी यह ‘अप्रतिम’ रचना सबसे ज्यादा पढ़ी जाएगी। कौन इन्हें पढ़ेगा? वो जो हिंदी के ब्लॉगर है और इन ब्लॉगरों में भी सबसे ज्यादा सक्रिय है। कमाल की बात यह है कि ये हमारे समाज की सबसे ज्यादा बेचैन आत्माएं हैं, जिनसे हम अपने ठहरे हुए लोक में नई तरंग लाने की उम्मीद पाले बैठे हैं।
एक नजर ताज़ा सूरते हाल पर। आज सबसे ज्यादा क्या पढ़ा गया – ब्लागवाणी का सर्वनाश हो (123 बार), चंदू भाई इन्हें माफ न करिए (85 बार), खीर वाले मजनूं (73 बार), ऑर्कुट वाली अनीताजी (66 बार), केरल से कुछ फोटू (54 बार), तरकश पुरस्कारों का सच (50 बार)...
आज की पसंद क्या है – केरल से कुछ फोटू (17 पसंद), ब्लागवाणी का सर्वनाश हो (14 पसंद), कलकतवा से आवेला (12 पसंद), चंदू भाई इन्हें माफ न करिए (12 पसंद), एक जिद्दी धुन पर रशेल कूरी को श्रद्धांजलि (10 पसंद), गालियों का दिमागशास्त्र (8 पसंद)...
सबसे ज्यादा पढ़े गए लेख और उस पर हिज हाइनेस की टिप्पणी को आप पढ़ लीजिए तो आपको इस भड़ास और भाषा पर मितली आने लगेगी। चंदू भाई के लिए आवाहन भी किसी भड़ासिए ने किया है। खीर वाले मजनूं में संयत तरीके से अपनी बात दो-टूक अंदाज़ में रखी गई है। केरल से फोटू तो अच्छे हैं। नहीं भी होते तो कबाड़खाना के तकरीबन तीस सदस्य ही इसे पसंद में चढ़ाने के लिए काफी हैं। भड़ास के कोने में ही करीब 50 लोग ठंसे हुए हैं। उनके लिए तो किसी को भी गिराना और उठाना आसान है। लेकिन दिक्कत यह है कि सूत न कपास, फिर भी लठ्ठम-लठ्ठ के अंदाज़ वाले ये लोग ट्रेंड-सेटर बनते जा रहे हैं।
कहने का मतलब यह है कि हमारे सामूहिक व्यक्तित्व में अजीब-सा उथलापन नजर आ रहा है। लगता है ज्यादातर लोगों को कोई तलाश ही नहीं है। सब शारीरिक और मानसिक तौर पर खाए-पिए अघाए हुए लोग हैं। इनको बस एक अलग चमक चाहिए। मोहल्ले या निजी दुकान का चमचमाता साइनबोर्ड चाहिए। तो, जिसको गाली से पहचान मिल रही है वो गाली दे रहा है और जिसकी कालिख गाज़ा पर गरजने से धुल रही है, वह वहां से नई सफेदी की टनकार ला रहा है। सभी परम-संतुष्ट नज़र आ रहे हैं। सेट फॉर्मूले हैं, जवाब तैयार है। कोई भी सवाल पेश कीजिए, दिक्कत नहीं आनेवाली।
नहीं समझ में आता कि ऐसा क्यों है? हमारा समाज तो हर तरफ से, हर तरह के सवालों से घिरा है और आज से नहीं, कम से कम 50 सालों से। मानता हूं कि हमारी जो फॉर्मल संरचनाएं हैं वो जड़ हो गई हैं, समझौतों ने शर्तें बांध रखी हैं। लेकिन ब्लॉगिंग तो एक इनफॉर्मल दुनिया है। यहां आखिर क्यों इतनी जकड़बंदी है। लोग फटाफट चुक जाते हैं। कुछ अवकाश पर चले जाते हैं, कुछ मक्खी मारने लगते हैं। कुछ को लगता है कि अब पोडकास्ट ही कर लिया जाए। हमारे समाज में एक सार्थक मंथन क्यों नहीं शुरू हो पा रहा? जबकि हिंदी ब्लॉगिंग की सतह पर छाई काई को हटाने के लिए यह मंथन निहायत ज़रूरी है।
एक नजर ताज़ा सूरते हाल पर। आज सबसे ज्यादा क्या पढ़ा गया – ब्लागवाणी का सर्वनाश हो (123 बार), चंदू भाई इन्हें माफ न करिए (85 बार), खीर वाले मजनूं (73 बार), ऑर्कुट वाली अनीताजी (66 बार), केरल से कुछ फोटू (54 बार), तरकश पुरस्कारों का सच (50 बार)...
आज की पसंद क्या है – केरल से कुछ फोटू (17 पसंद), ब्लागवाणी का सर्वनाश हो (14 पसंद), कलकतवा से आवेला (12 पसंद), चंदू भाई इन्हें माफ न करिए (12 पसंद), एक जिद्दी धुन पर रशेल कूरी को श्रद्धांजलि (10 पसंद), गालियों का दिमागशास्त्र (8 पसंद)...
सबसे ज्यादा पढ़े गए लेख और उस पर हिज हाइनेस की टिप्पणी को आप पढ़ लीजिए तो आपको इस भड़ास और भाषा पर मितली आने लगेगी। चंदू भाई के लिए आवाहन भी किसी भड़ासिए ने किया है। खीर वाले मजनूं में संयत तरीके से अपनी बात दो-टूक अंदाज़ में रखी गई है। केरल से फोटू तो अच्छे हैं। नहीं भी होते तो कबाड़खाना के तकरीबन तीस सदस्य ही इसे पसंद में चढ़ाने के लिए काफी हैं। भड़ास के कोने में ही करीब 50 लोग ठंसे हुए हैं। उनके लिए तो किसी को भी गिराना और उठाना आसान है। लेकिन दिक्कत यह है कि सूत न कपास, फिर भी लठ्ठम-लठ्ठ के अंदाज़ वाले ये लोग ट्रेंड-सेटर बनते जा रहे हैं।
कहने का मतलब यह है कि हमारे सामूहिक व्यक्तित्व में अजीब-सा उथलापन नजर आ रहा है। लगता है ज्यादातर लोगों को कोई तलाश ही नहीं है। सब शारीरिक और मानसिक तौर पर खाए-पिए अघाए हुए लोग हैं। इनको बस एक अलग चमक चाहिए। मोहल्ले या निजी दुकान का चमचमाता साइनबोर्ड चाहिए। तो, जिसको गाली से पहचान मिल रही है वो गाली दे रहा है और जिसकी कालिख गाज़ा पर गरजने से धुल रही है, वह वहां से नई सफेदी की टनकार ला रहा है। सभी परम-संतुष्ट नज़र आ रहे हैं। सेट फॉर्मूले हैं, जवाब तैयार है। कोई भी सवाल पेश कीजिए, दिक्कत नहीं आनेवाली।
नहीं समझ में आता कि ऐसा क्यों है? हमारा समाज तो हर तरफ से, हर तरह के सवालों से घिरा है और आज से नहीं, कम से कम 50 सालों से। मानता हूं कि हमारी जो फॉर्मल संरचनाएं हैं वो जड़ हो गई हैं, समझौतों ने शर्तें बांध रखी हैं। लेकिन ब्लॉगिंग तो एक इनफॉर्मल दुनिया है। यहां आखिर क्यों इतनी जकड़बंदी है। लोग फटाफट चुक जाते हैं। कुछ अवकाश पर चले जाते हैं, कुछ मक्खी मारने लगते हैं। कुछ को लगता है कि अब पोडकास्ट ही कर लिया जाए। हमारे समाज में एक सार्थक मंथन क्यों नहीं शुरू हो पा रहा? जबकि हिंदी ब्लॉगिंग की सतह पर छाई काई को हटाने के लिए यह मंथन निहायत ज़रूरी है।
Comments
aur kabhi na khatm hone wala show, shor sharaba
लेकिन जैसा स्वप्नदर्शी कह रही हैं शो और शोर-शराबे से अलग लोग कुछ और देखना चाहते हैं? पढ़ना?.. मगर पॉडकास्ट पर आप गुस्सा क्यों निकाल रहे हैं? मेरे पास कैमरा होता तो मैं रोज़-रोज़ वीडियो भी चढ़ा रहा होता..
इन ब्लॉग ratings का कोई ख़ास अर्थ नहीं है. सबसे अच्छे चिट्ठे (प्रमोद जी, ज्ञान जी, अनूप शुक्ल जी, आलोक पुराणिक जी, शिव कुमार जी इत्यादी इत्यादी) तो हमारी तरह कई लोगों ने बुकमार्क में जोड़ रखे होंगे. सीधे इन ब्लॉग पर जाकर पढ़ लेने से ब्लागवाणी का counter तो घूमने से रहा.
दूसरे कई लोग ब्लागवाणी की इन लिस्ट से भी चुन कर ब्लॉग पढ़ते हैं. अब देखिये कितना catchy टाइटल है: "ब्लागवाणी का सर्वनाश हो". तो भई यहाँ से क्लिक्कियाय कर पहुँच गए. लिस्ट में थोड़े ही लिखा होता है किस ब्लॉग पर ले जायेगी सवारी को. (वैसे नीचे status bar में ब्लॉग का पता ठिकाना आता तो है दबा हुआ सा, पर कितने लोग ध्यान देते हैं) जब भाषाई गहराही और वैचारिक उच्चता के दर्शन किए तो हकबकाए कर भाग लिए आपकी तरह. जो भी हो counter तो चढ़ ही चुका एक और बार.
तो अनिल जी परेशान न होइए, बस लगे रहिये. आपके कुछ आलेख भी बहुत अच्छे थे.
इसमें अच्छी भाषा -बुरी भाषा जैसे ही मुद्दे नहीं आते। वे लोग भी जो सच्चे मन से हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और जिन्हें लोग भी ऐसा करता मानते हैं,वे भी जब दल में काम करते हैं तो स्वाभाविक है दल में ही मत देंगे । किसी भी चुनाव या पसन्द नापसन्द के चुनाव में वही जीतेगा जो किसी दल का प्रतिनिधित्व कर रहा हो । इसपर यदि हम या आप आश्चर्यचकित रह जाएँ तो यह हमारी मूर्खता है । मुझे तो सच में आश्चर्य होता है जब कोई इसके विपरीत आशा रखता है ।
घुघूती बासूती
घुघूती बासूती
आज एक बेहतरीन आलीशान सीमेंटेड सड़क है घर के सामने..हमारे भी और उनके भी, जिन्होंने न तो चंदा दिया और न गढ़्ढे भरे थे. सड़क कोई भेदभाव नहीं कर रही. एक जैसी है सबके घर के सामने. अब हमारे इलाका शहर के समर्द्ध और विकसीत इलाकों में से एक है.
मालूम है, इससे प्रापर्टी के दाम भी बढ़ गये हैं हमारे भी और उनके भी. तो उन्होंने भी घर को रंग रोगन करा लिया है. कल देखा कि वो घर के सामने थोड़ी सफाई भी करवा रहे थे सड़क पर.
देखिये न, कितना कठीन था विकास का यह सफर.
न जाने क्यूँ, यह वाकिया अभी याद आया. हाँलाकि आपके लिखे का इससे क्या लेना देना है?
खैर, जो लिखा, वो यूँ ही है मेरे आलेखों की तरह.
हिन्दी तो हिन्दी है, विकास मार्ग पर है नेट जगत में. एक दिन समर्द्ध हो ही जायेगी नेट पर. तब तक के लिये शुभकामनायें.
दूसरी बात, जाहिर है कि अगर ‘परोसा गया भोजन देखने में बदसूरत हो और किसी अन्य़ का परोसा सुंदर व मनमोहक हो’ तो लोग उसी पर झपटेंगे। इसमें तो कोई दो राय ही नहीं कि शीर्षक catchy होना चाहिए। लेकिन गालियां भी catchy होती हैं। मुझे इनके इस्तेमाल पर ऐतराज है और इस पर भी कि जो आप शीर्षक लगाएं, सामग्री उसी हिसाब से होनी चाहिए। न कि शीर्षक से सनसनी फैला दें और अंदर सन्नाटा हो। मैंने पाया है कि पिछले कुछ दिनों से कई ब्लॉगर ऐसा ही कर रहे हैं, जिसे एक स्वस्थ रुझान नहीं कहा जा सकता।
अंत में आप सभी का शुक्रिया, जिन्होंने अपनी राय रखकर मेरा उत्साह बढ़ाया। खासकर समीर भाई का जिन्होंने एक उदाहरण के जरिए स्थापित किया कि, “हिन्दी तो हिन्दी है, विकास मार्ग पर है नेट जगत में. एक दिन समर्द्ध हो ही जाएगी नेट पर।”
मैंने इनमें से जिसके आपके जिक्र किये हैं सिर्फ अनिताजी वाला आलेख पड़ा है और उसमें ऐसा कुछ नही है बल्कि वो पहले से चल रहे लेख की दूसरी कड़ी है। बाकी लिंक में क्या है कह नही सकता, आप का ही ये आलेख जो अब तक १६३ बार पड़ा जा चुका है मैं अब पढ़ रहा हूँ।
हिंदी ब्लोगिंग भी एक भीड़ तंत्र का हिस्सा है यहाँ ये तो होना ही था। एग्रीगेटरस के साथ यही होता है कि लोग टाईटिल देख कर ही पड़ते हैं। अरविंदजी आप ही बतायें आप कितने Individual ब्लोग जाकर पढ़ते हैं और कितनों पर टिप्पणी करते हैं। ताली दोनों हाथों से बजती है।
@विमल जी, जिन सज्जन का आपने जिक्र किया है वो महानुभाव हम ही हैं, और वो जो किया था (बच्चो और एडल्ट वाला) वो दो अलग अलग आलेख थे जिसके टाईटिल जानबूझ कर ऐसे रखे गये थे जिससे सभी हिंदी चिट्ठाकारों को आईना दिखाया जा सके। उस पूरे प्रयोग की Explanation पोस्ट भी थी लेकिन शायद आपने भी नही पढ़ी।