Wednesday 12 March, 2008

शुक्रिया ब्लॉगवाणी, सच्ची सूरत दिखाने के लिए

छि:, हिंदी समाज की सतह पर तैरती इस काई की एक झलक से ही घिन होती है, उबकाई आती है। इस काई का सच दिखाने के लिए ब्लॉगवाणी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। अजीब हालत है। आप गाली-गलौज करिए, किसी ब्लॉगर का नाम लेकर उकसाइए, कुछ विवाद उछाल दीजिए। बस देखिए, आपकी यह ‘अप्रतिम’ रचना सबसे ज्यादा पढ़ी जाएगी। कौन इन्हें पढ़ेगा? वो जो हिंदी के ब्लॉगर है और इन ब्लॉगरों में भी सबसे ज्यादा सक्रिय है। कमाल की बात यह है कि ये हमारे समाज की सबसे ज्यादा बेचैन आत्माएं हैं, जिनसे हम अपने ठहरे हुए लोक में नई तरंग लाने की उम्मीद पाले बैठे हैं।

एक नजर ताज़ा सूरते हाल पर। आज सबसे ज्यादा क्या पढ़ा गया – ब्लागवाणी का सर्वनाश हो (123 बार), चंदू भाई इन्हें माफ न करिए (85 बार), खीर वाले मजनूं (73 बार), ऑर्कुट वाली अनीताजी (66 बार), केरल से कुछ फोटू (54 बार), तरकश पुरस्कारों का सच (50 बार)...
आज की पसंद क्या है – केरल से कुछ फोटू (17 पसंद), ब्लागवाणी का सर्वनाश हो (14 पसंद), कलकतवा से आवेला (12 पसंद), चंदू भाई इन्हें माफ न करिए (12 पसंद), एक जिद्दी धुन पर रशेल कूरी को श्रद्धांजलि (10 पसंद), गालियों का दिमागशास्त्र (8 पसंद)...

सबसे ज्यादा पढ़े गए लेख और उस पर हिज हाइनेस की टिप्पणी को आप पढ़ लीजिए तो आपको इस भड़ास और भाषा पर मितली आने लगेगी। चंदू भाई के लिए आवाहन भी किसी भड़ासिए ने किया है। खीर वाले मजनूं में संयत तरीके से अपनी बात दो-टूक अंदाज़ में रखी गई है। केरल से फोटू तो अच्छे हैं। नहीं भी होते तो कबाड़खाना के तकरीबन तीस सदस्य ही इसे पसंद में चढ़ाने के लिए काफी हैं। भड़ास के कोने में ही करीब 50 लोग ठंसे हुए हैं। उनके लिए तो किसी को भी गिराना और उठाना आसान है। लेकिन दिक्कत यह है कि सूत न कपास, फिर भी लठ्ठम-लठ्ठ के अंदाज़ वाले ये लोग ट्रेंड-सेटर बनते जा रहे हैं।

कहने का मतलब यह है कि हमारे सामूहिक व्यक्तित्व में अजीब-सा उथलापन नजर आ रहा है। लगता है ज्यादातर लोगों को कोई तलाश ही नहीं है। सब शारीरिक और मानसिक तौर पर खाए-पिए अघाए हुए लोग हैं। इनको बस एक अलग चमक चाहिए। मोहल्ले या निजी दुकान का चमचमाता साइनबोर्ड चाहिए। तो, जिसको गाली से पहचान मिल रही है वो गाली दे रहा है और जिसकी कालिख गाज़ा पर गरजने से धुल रही है, वह वहां से नई सफेदी की टनकार ला रहा है। सभी परम-संतुष्ट नज़र आ रहे हैं। सेट फॉर्मूले हैं, जवाब तैयार है। कोई भी सवाल पेश कीजिए, दिक्कत नहीं आनेवाली।

नहीं समझ में आता कि ऐसा क्यों है? हमारा समाज तो हर तरफ से, हर तरह के सवालों से घिरा है और आज से नहीं, कम से कम 50 सालों से। मानता हूं कि हमारी जो फॉर्मल संरचनाएं हैं वो जड़ हो गई हैं, समझौतों ने शर्तें बांध रखी हैं। लेकिन ब्लॉगिंग तो एक इनफॉर्मल दुनिया है। यहां आखिर क्यों इतनी जकड़बंदी है। लोग फटाफट चुक जाते हैं। कुछ अवकाश पर चले जाते हैं, कुछ मक्खी मारने लगते हैं। कुछ को लगता है कि अब पोडकास्ट ही कर लिया जाए। हमारे समाज में एक सार्थक मंथन क्यों नहीं शुरू हो पा रहा? जबकि हिंदी ब्लॉगिंग की सतह पर छाई काई को हटाने के लिए यह मंथन निहायत ज़रूरी है।

26 comments:

स्वप्नदर्शी said...

lagataa hai hamare samaj kee aas aur pyas dono chook gayee hai. har kisi ko bina mehanat kiye sab kuch chahiye.
aur kabhi na khatm hone wala show, shor sharaba

azdak said...

सही चिंतायें हैं.. खूब हंटर चलाइए.. ब्‍लागवाणी की 'आज की पसंद' और 'आज सबसे ज़्यादा पढ़ा गया' चिरकुटई के चरम में बदल चुकी है और मज़ेदार है कि मैथिली साहब उसे बदलने की सोच भी नहीं रहे? सोच रहे हैं?..
लेकिन जैसा स्‍वप्‍नदर्शी कह रही हैं शो और शोर-शराबे से अलग लोग कुछ और देखना चाहते हैं? पढ़ना?.. मगर पॉडकास्‍ट पर आप गुस्‍सा क्‍यों निकाल रहे हैं? मेरे पास कैमरा होता तो मैं रोज़-रोज़ वीडियो भी चढ़ा रहा होता..

Anonymous said...
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VIMAL VERMA said...

अनिल भाई,बाकी लोगों के बारे में नहीं जानता पर अपने बारे में मैं ये तो कह सकता हूँ कि भाई हम वाकई ठस्स हो गये हैं,अपनी ज़िन्दगी में तो वैसे कुछ भी उथल पुथल तो नहीं ही है सब खरामा खरामा चल रहा है ,पर जहां कुछ भी झांय झपट देखते हैं कौतुहल वश चले जाते हैं..पर निरवता टूटती दिखती नहीं..अभी भी हम शीर्षक देखकर तय करते हैं कि पढ़ा जाय कि नहीं...कुछ दिनों पहले एक सज्जन ने बच्चों के कुछ लिखा उसे किसी ने भी नहीं पढ़ा..पर उसी लेख का शीर्षक बदलकर कर उसने लिखा कि ये सिर्फ़ एडल्ट पढ़ सकते हैं तो उन्हें काफ़ी हिट मिला..कहीं हम भीड़ तो नहीं हुए जा रहे हैं.....

Unknown said...

समाज तो पहले जैसा ही है...थोड़ा कम ज्यादा...परिवर्तन हमेशा बहुत कम गिने चुने लोग ही लाते हैं...चाहो तो वहाँ रहो और बदलो जो बदलने की जरूरत है...

Pratyaksha said...

भीड़ की भेड़चाल तो हमेशा रहेगी । कुछ अलग खोजने में जुटे लोगों को कुछ अलग मिलता भी रहता है । अब तक .. गनीमत है।

Mohinder56 said...

काफ़ी रिसर्च और होमवर्क के बाद लिखा है आपने यह लेख.... इतनी सूचना परोसने के लिये साधूवाद

Ghost Buster said...

क्षमा चाहते हैं. लेख में अधीरता और अधूरेपन के दर्शन हो रहे हैं. आखिरी दो paragraphs पूर्वाग्रह के लक्षण दिखाते हैं. जरा जरा सी बात पर हाय समाज हाय समाज करने की कौन सी विवशता आन पड़ी है अनिल भाई? कौन पापी लिस्ट में चढ़ गया वो तो आपने बता दिया लेकिन कौन पिछड़ गया ये नहीं बताया.

इन ब्लॉग ratings का कोई ख़ास अर्थ नहीं है. सबसे अच्छे चिट्ठे (प्रमोद जी, ज्ञान जी, अनूप शुक्ल जी, आलोक पुराणिक जी, शिव कुमार जी इत्यादी इत्यादी) तो हमारी तरह कई लोगों ने बुकमार्क में जोड़ रखे होंगे. सीधे इन ब्लॉग पर जाकर पढ़ लेने से ब्लागवाणी का counter तो घूमने से रहा.

दूसरे कई लोग ब्लागवाणी की इन लिस्ट से भी चुन कर ब्लॉग पढ़ते हैं. अब देखिये कितना catchy टाइटल है: "ब्लागवाणी का सर्वनाश हो". तो भई यहाँ से क्लिक्कियाय कर पहुँच गए. लिस्ट में थोड़े ही लिखा होता है किस ब्लॉग पर ले जायेगी सवारी को. (वैसे नीचे status bar में ब्लॉग का पता ठिकाना आता तो है दबा हुआ सा, पर कितने लोग ध्यान देते हैं) जब भाषाई गहराही और वैचारिक उच्चता के दर्शन किए तो हकबकाए कर भाग लिए आपकी तरह. जो भी हो counter तो चढ़ ही चुका एक और बार.

तो अनिल जी परेशान न होइए, बस लगे रहिये. आपके कुछ आलेख भी बहुत अच्छे थे.

Vikash said...
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मनीषा पांडे said...

अनिल जी, आपकी विंताएं बिल्‍कुल वाजिब हैं। ब्‍लॉग इस समाज से अलग कोई चीज तो है नहीं। यहां भी वही सब संकीर्णताएं और चिरकुटइयां भरी पड़ी हैं, जो बाहर के समाज में। आखिर लोग तो वही हैं।

Vikash said...

अनिल जी! जरा एक निगाह यहाँ डालेंब्लोगवाणी के निरर्थक रेटिंग का सच

संजय बेंगाणी said...

यहाँ पर अभी तक चैनलिया तर्क नहीं दिया गया!! की चिट्ठों पर वहीं लिखा जा रहा हैं जो लोग पढ़ना चाहते है.!!

Gyan Dutt Pandey said...

ओह! मैने तो फीड एग्रेगेटर पर इस प्रकार सोचा ही नहीं। अपना तो गूगल रीडर जिन्दाबाद!

mamta said...

आजकल हर जगह सनसनी खेज बातों को ही ज्यादा महत्त्व दिया जाता है।

ghughutibasuti said...

अनिल जी, आपकी बातें ठीक भी हैं परन्तु अन्तिम सत्य नहीं हैं । सबका अपना अपना जीवन दर्शन होता है । यदि कोई ग्रुप ब्लॉग बनायेगा तो स्वाभाविक है, वहाँ लोग अधिक जाएँगे । वहाँ अधिक हिट्स, अधिक पसन्द आदि दिखेगी। स्वतन्त्र दल बनाएँगे, उसके इकलौते सदस्य होंगे तो आपके अनुयायी भी कम होंगे। परन्तु आप स्वतन्त्र महसूस करेंगे । 'You can't have your cake and eat it too.'
इसमें अच्छी भाषा -बुरी भाषा जैसे ही मुद्दे नहीं आते। वे लोग भी जो सच्चे मन से हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और जिन्हें लोग भी ऐसा करता मानते हैं,वे भी जब दल में काम करते हैं तो स्वाभाविक है दल में ही मत देंगे । किसी भी चुनाव या पसन्द नापसन्द के चुनाव में वही जीतेगा जो किसी दल का प्रतिनिधित्व कर रहा हो । इसपर यदि हम या आप आश्चर्यचकित रह जाएँ तो यह हमारी मूर्खता है । मुझे तो सच में आश्चर्य होता है जब कोई इसके विपरीत आशा रखता है ।

घुघूती बासूती

Unknown said...
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ghughutibasuti said...

हाँ,एक बात और, हम सब यह जो सनसनीखेज शीर्षक की बात कर रहे हैं तो उससे क्या आप और हम बचे हैं ? मै्ने ६ मार्च को एक पोस्ट लिखी थी मेरे मामा को शेर ने काट लिया है । मुझे कल की छुट्टी चाहिये । http://ghughutibasuti.blogspot.com/2008/03/blog-post_06.html इसपर १६ टिप्पणियाँ आईं । सबने लिखा अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है । मूर्ख की तरह अगली पोस्ट का शीर्षक मैंने उबाऊ सा रख दिया, 'शेर, चरवाहे, भारवाड़ और गोफेण ।' http://ghughutibasuti.blogspot.com/2008/03/blog-post_08.html रोधोकर ४ टिप्पणियाँ आईं । मन तो मेरा भी हुआ था कि एक बार फिर शीर्षक बदलकर पोस्ट कर देती हूँ । यदि मैं कहूँ कि यह गलत है तो कैसे गलत है ? कब किसीने हमें यह लिखित दिया था कि ब्लॉग लिखो , हम पढ़ेंगे आदि ? हम किसी भी वस्तु की तरफ पहले उसके बाहरी आकर्षण के कारण ही जाते हैं । फिर हम उसकी असली कीमत जान पाते हैं । यदि मेरे द्वारा परोसा भोजन देखने में बदसूरत हो और किसी अन्य का परोसा सुन्दर व मनमोहक तो आप कौन से भोजन पर झपटेंगे? बाद में आप शायद पाएँ कि वह भोजन आपके स्वादुनुसार नहीं है ।
घुघूती बासूती

Udan Tashtari said...

घर के सामने कच्ची सड़क थी या यूँ कहिये, पहले सड़क थी ही नहीं. बस जगह थी. चलते चलते थोड़ी समतल जरुर होने लगी थी. आबादी बढ़ी, कुछ गढ़्ढ़े भी हो गये. लोग उसी तरह चलते रहे..ज्यादा आवाजाही से समतलीकरण को जहाँ लाभ मिल रहा था, वहीं गढ़्ढ़े भी बढते जा रहे थे. मौसम मौसम बात बदलती. जहाँ बरसात में दुर्गती की गति तेज हो जाती तो सर्दीयों में उसे कुछ विराम मिलता. कुछ लोग अपने घरों के सामने के गढ़्ढ़े मिट्टी डाल कर भरवा भी देते. फिर विकास की ओर ध्यान गया. बात चली. चंदा इक्ठठा किया गया. सबने नहीं दिया. फिर भी पूरी सड़क सीमेंट की बनाने की ठानी गई. यह तो कतई नहीं सोचा गया कि जिन महानुभावों मे चंदा देने से मना कर दिया है या जो अपने घर के सामने हुआ गढ्ढ़ा तक नहीं भरवाते, उनके घर के सामने सड़क न बनवा कर वैसे ही छोड़ दिया जाये. वरना तो पूरे प्रोजेक्ट का सत्यानाश तय था. तैयारी के दौरान..फिर से सड़क खोदी गई. पत्थर भर कर बेस तैयार किया गया. उन दिनों उस बेस पर चलना बड़ा दुष्कर कार्य था. मेरी कार कई बार पंचर हुई. मगर क्या करते. सड़क के पक्का होने के लिये यह भी तो जरुरी था. कई महिने धुल मिट्टी रही. पत्थरों पर चले.

आज एक बेहतरीन आलीशान सीमेंटेड सड़क है घर के सामने..हमारे भी और उनके भी, जिन्होंने न तो चंदा दिया और न गढ़्ढे भरे थे. सड़क कोई भेदभाव नहीं कर रही. एक जैसी है सबके घर के सामने. अब हमारे इलाका शहर के समर्द्ध और विकसीत इलाकों में से एक है.

मालूम है, इससे प्रापर्टी के दाम भी बढ़ गये हैं हमारे भी और उनके भी. तो उन्होंने भी घर को रंग रोगन करा लिया है. कल देखा कि वो घर के सामने थोड़ी सफाई भी करवा रहे थे सड़क पर.

देखिये न, कितना कठीन था विकास का यह सफर.

न जाने क्यूँ, यह वाकिया अभी याद आया. हाँलाकि आपके लिखे का इससे क्या लेना देना है?

खैर, जो लिखा, वो यूँ ही है मेरे आलेखों की तरह.

हिन्दी तो हिन्दी है, विकास मार्ग पर है नेट जगत में. एक दिन समर्द्ध हो ही जायेगी नेट पर. तब तक के लिये शुभकामनायें.

अनिल रघुराज said...

घुघूती जी, आप सही कहती है कि, “सबका अपना अपना जीवन दर्शन होता है। यदि कोई ग्रुप ब्लॉग बनायेगा तो स्वाभाविक है, वहाँ लोग अधिक जाएँगे। वहाँ अधिक हिट्स, अधिक पसन्द आदि दिखेगी।” साफ सी बात है कि इसमें ब्लॉगवाणी जैसे मंच का कोई दोष नहीं है। मैं तो उस सैंपल की बात कर रहा था, जो इस मंच के जरिए सामने आया है। आज मेरी पोस्ट में पसंद की सूची में सबसे ऊपर चली गई और सबसे ज्यादा पढ़ी गई तो इसमें भी एक सैंपल नज़र आता है। लेकिन इसके आधार पर मैं यह नहीं कह सकता कि मैंने कोई श्रेष्ठ पोस्ट लिखी हैं। हां, अभी पाठकों का जो समूह है उसमें ज्यादातर ब्लॉगर हैं और अपने दायरे से जुड़ी बातों को ही तवज्जो देते हैं, पढ़ते हैं, पसंद करते हैं। मेरा कहना है कि हमें इस दायरे से निकलकर व्यापक सामाजिक सरोकारों से जुड़ना चाहिए। और, ऐसा नहीं है कि हमारे बीच में ऐसा लिखनेवाले नहीं हैं। लोग लिख ही रहे हैं और बेहतरीन लिख रहे हैं, लेकिन वो सतह पर नहीं दिख रहे। मैंने सतह की काई की बात की थी, पूरे हिंदी ब्लॉगिंग समुदाय की नहीं।
दूसरी बात, जाहिर है कि अगर ‘परोसा गया भोजन देखने में बदसूरत हो और किसी अन्य़ का परोसा सुंदर व मनमोहक हो’ तो लोग उसी पर झपटेंगे। इसमें तो कोई दो राय ही नहीं कि शीर्षक catchy होना चाहिए। लेकिन गालियां भी catchy होती हैं। मुझे इनके इस्तेमाल पर ऐतराज है और इस पर भी कि जो आप शीर्षक लगाएं, सामग्री उसी हिसाब से होनी चाहिए। न कि शीर्षक से सनसनी फैला दें और अंदर सन्नाटा हो। मैंने पाया है कि पिछले कुछ दिनों से कई ब्लॉगर ऐसा ही कर रहे हैं, जिसे एक स्वस्थ रुझान नहीं कहा जा सकता।
अंत में आप सभी का शुक्रिया, जिन्होंने अपनी राय रखकर मेरा उत्साह बढ़ाया। खासकर समीर भाई का जिन्होंने एक उदाहरण के जरिए स्थापित किया कि, “हिन्दी तो हिन्दी है, विकास मार्ग पर है नेट जगत में. एक दिन समर्द्ध हो ही जाएगी नेट पर।”

Udan Tashtari said...

आभार मेरे मित्र...आप मेरे भाव को समझ पाये. उसके अतिरिक्त पूरा कमेंट व्यर्थ था.

अजित वडनेरकर said...

भाई, हमारी पोस्ट का उल्लेख क्यों किया ? उसमें तो कोई सनसनी, मसाला या अश्लील नहीं था। फिर हमारा तो कम्युनिटी ब्लाग भी नहीं है।

Tarun said...

@अनिलजी, जो बात आप कह रहे हो वो कोई नयी बात नही इससे पहले कितनी बार कही जा चुकी है। नारद के समय भी ये उठी थी अब आपने फिर उठायी है। सारे ग्रुपस को एक नजर से नही देखना चाहिये आपको, आप भी पहले मोहल्ला ग्रुप के मेंबर थे क्या आप भी उसके हर लेख पर जाकर पसंद पर क्लिक करते थे।

मैंने इनमें से जिसके आपके जिक्र किये हैं सिर्फ अनिताजी वाला आलेख पड़ा है और उसमें ऐसा कुछ नही है बल्कि वो पहले से चल रहे लेख की दूसरी कड़ी है। बाकी लिंक में क्या है कह नही सकता, आप का ही ये आलेख जो अब तक १६३ बार पड़ा जा चुका है मैं अब पढ़ रहा हूँ।

हिंदी ब्लोगिंग भी एक भीड़ तंत्र का हिस्सा है यहाँ ये तो होना ही था। एग्रीगेटरस के साथ यही होता है कि लोग टाईटिल देख कर ही पड़ते हैं। अरविंदजी आप ही बतायें आप कितने Individual ब्लोग जाकर पढ़ते हैं और कितनों पर टिप्पणी करते हैं। ताली दोनों हाथों से बजती है।

@विमल जी, जिन सज्जन का आपने जिक्र किया है वो महानुभाव हम ही हैं, और वो जो किया था (बच्चो और एडल्ट वाला) वो दो अलग अलग आलेख थे जिसके टाईटिल जानबूझ कर ऐसे रखे गये थे जिससे सभी हिंदी चिट्ठाकारों को आईना दिखाया जा सके। उस पूरे प्रयोग की Explanation पोस्ट भी थी लेकिन शायद आपने भी नही पढ़ी।

दिनेशराय द्विवेदी said...

ठीक किया, आईना दिखाया।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

न टू यह कोई ट्रेंड है और न ऐसे कोई ट्रेंड सेट होता है. हिन्दी समाज के कितने बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं ब्लॉगर. कुल मिला कर हमीं-हम हैं. तुम हमें खुदा कहो हम तुम्हे खुदा कहें की परम्परा इस देश में बहुत पहले से चली आ रही है. यह चिंता की बात जरूर है लेकिन इसका जवाब यह भी नहीं है की फालतू लोगों की फालतू बातों के फालतू विरोध में हम अपना समय नष्ट करें. इन्हे इनके हाल पर छोडिये और अच्छे ब्लॉग पढ़ने लायक माहौल बनाइये. जिस पोस्ट में हमें पता ही है की गाली-गलौच के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता और कुल नाखून कटा कर शहीदों की पंक्ति में नाम लिखने की प्रतिस्पर्धा ही जहाँ चल रही हो, उसके बारे में सोचने और उस पर क्लिक करने की जरूरत ही क्या है? यह सारा हिट गंदे लोगों के नाते नहीं, हमारे आपके भीतर छिपी गंदी मानसिकता ke नाते बढ़ रहा है. इससे बचने की जरूरत है.

Unknown said...

देर आयद - वैसे मेरे संवाद से पहले आपका ये वाला पोस्ट १७५ बार पढ़ा जा चुका था और (हालांकि बच्चों में भेदभाव नहीं होता) - मेरी पसंद में आपके इससे भी प्रखर लेख इससे कम पढे गए - पढने की चिंता न करें - चाट खाने वाले भी हैं - करेला और जामुन खाने वाले भी हैं - यही एक माध्यम है जहाँ मन की बात लिख सकते बगैर सम्पादन, अपनी शैली में - जारी रहें - ब्लॉगवाणी की पसंदों से परे - सादर - मनीष

अजित वडनेरकर said...

हमारी बात को गंभीरता से न लिया जाए।