Wednesday 19 March, 2008

यहां तो मौलिक होने की कोशिश भी गुनाह है

कितनी सामूहिक असुरक्षा से घिरे हुए हैं ये लोग कि अपनी अलग पहचान तक भूल गए हैं। बोलचाल की सामान्य भाषा भूल गए हैं। दुआ-सलाम तक बनावटी जुबान में करते हैं। सामंतवाद, अर्ध-सामंतवाद, नव-उपनिवेशवाद, अर्ध-उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, बुर्जुआ, पेटी-बुर्जुआ, नव-उदारवाद जैसे गिनेचुने शब्द इनकी बौद्धिक बस्ती के आंतरिक कोडवर्ड हैं और बाहरवालों के लिए निकाली जानेवाली गालियां। ये लोग शब्दों से धारणा तक और धारणा से यथार्थ तक पहुंचते हैं। सामंतवाद का अर्थ पूछ लीजिए तो गुंडागर्दी टाइप कुछ लक्षण बता देंगे। बता देंगे कि जैसे भारत में अर्ध-सामंतवाद है, सामंती अवशेष हैं। आप पूछ लीजिए कैसे है तो गले में थूक निगलने लगेंगे।

ये लोग झांझ-मजीरा लेकर शब्दों और धारणाओं का कीर्तन करते हैं। पहले तो कपड़े और वेशभूषा तक एक जैसी रखते थे। दूर से ही पता चल जाता था कि कॉमरेड चले आ रहे हैं। दाढ़ी, झोला, कुर्ता, जींस। स्पष्ट कर दूं कि मैं वाम राजनीति से जुड़े ज़मीनी कार्यकर्ताओं की बात नहीं कर रहा। मैं उनकी बात कर रहा हूं जो गली-मोहल्लों में वाम-वाम का स्वांग करते हैं, जो मुठ्ठी उतनी ही उठाते हैं कि कांख पूरी तरह ढंकी रहे। अद्भुत समानता दिखती है इन लोगों में। नाम में कुछ नहीं रखा। अंशुमन हो सकता है, भवानी हो सकता है, सत्यम हो सकता है, यहां तक कि अनाम भी हो सकता है। सब एक जैसे। लगता है जैसे एक ही फैक्टरी से माल तैयार करके लाइन से खड़ा कर दिया गया हो।

पैकेजिंग (वेशभूषा) में अब भिन्नता आ गई है, लेकिन बोलचाल व चरित्र में एकरूपता अब भी बरकरार है। ज़रा-सा किसी ने किसी और जुबान में बात करनी शुरू की तो इनके संदेह के एंटिना बीप-बीप करने लगते हैं। किसी ने यथार्थ से धारणा और धारणा से शब्द तक पहुंचने की कोशिश की तो इनकी सामूहिक निगाहों में चढ़ जाता है। उतना पढ़ा-लिखा नहीं होता जितना ये लोग खुद को दिखाते हैं, 1000 फिल्मों के नाम और 2000 किताबों के नाम नहीं फेंक पाता तो साथी लोग पहले उसे अनदेखा करते हैं और फिर ज्यादा बड़-बड़ करता है तो पेटी-बुर्जुआ, संशोधनवादी पतित घोषित कर देते हैं। कोई अपना मौलिक चिंतन विकसित कर पाए, इसकी तो बात ही छोड़िए, इन लोगों की नज़रों में मौलिक होने की कोशिश ही गुनाह है।

मुझे नहीं समझ में आता कि समाज से लेकर सोच-समझ तक को मुक्त करने वाली विचारधारा के स्वघोषित अनुयायियों में ऐसी सांचाबद्धता क्यों आ गई है? क्या हम खुलकर, खोखले शाब्दिक सांचों से निकलकर दर्शन से लेकर राजनीति और अर्थनीति पर बात नहीं कर सकते? ऐसी बात जिससे हम सच्चाई को ज्यादा नज़दीकी से समझ सकें, ताकि हम सच्चाई को अच्छी तरह बदलने में जितना संभव हो, उतना योगदान कर सकें। शायद नहीं कर सकते क्योंकि रटे-रटाए शब्दों से बाहर निकलेंगे तो इनका आडंबर खुल सकता है। मुझे इनको देखकर कभी-कभी बड़ा तरस आता है। जिस पूंजीवाद की बात ये लोग करते हैं, उसने कैसी निष्ठुरता से इन्हें एक ही साइज़ की अनुकृतियों में कुतर कर रख दिया है। जिस सामंतवाद की बात ये लोग करते हैं, उसने इन्हें कितना बौना और बधिर बना दिया है।

आप देखते होंगे कि जैसे-जैसे हम विकसित हो रहे हैं, उत्पादन और आकार का मानकीकरण होता जा रहा है। 40-42 नंबर की शर्ट, लार्ज, एक्स्ट्रा लार्ज, 36-38 इंच की जींस। टेलरों का ज़माना गया, सब टेलरमेड हो गया है। फिर भी अभी अपने यहां गुंजाइश है कि आप घर में अपनी नाप के खिड़की-दरवाजे लगवा सकते हैं। जब देश पूरी तरह विकसित हो जाएगा तो सब कुछ एक ही साइज़ का मिलेगा। मॉल से खरीदकर लाइए, फिट कर दीजिए, उसी तरह जैसे अभी मॉड्यूलर किचन में कुछ हद तक करने लगे हैं। लेकिन जब पता चलता है कि यह चीज़ अभी से अपने यहां इंसानों पर लागू है, जिसे सत्ता ने नहीं, सत्ता-विरोधियों ने लागू किया है, तो मन घुटने लगता है। लगता है कि यह कोई स्वस्थ सिलसिला नहीं है। जुमले बोलनेवाले मजमा तो जुटा लेंगे, लेकिन इससे उनके अलावा समाज में बाकी किसी का भी भला नहीं होनेवाला।
तस्वीर साभार: Yourlips

10 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

आज तक दुनियाँ में जो कुछ भी हुआ है और हो रहा है वह पूंजीवाद, सामंतवाद की ही देन है। समाजवाद तो अभी आया ही कहाँ है। अब तक के कथित समाजवाद तो उस का नमूना भर हैं जैसे आपने नैनो का देखा होगा।
वैसे भी समाजवाद और पूँजीवाद में फर्क ही कितना है? बस उत्पादन साधनों के मालिकाना हक ही तो। जिस दिन बस में होगी लोग बदल डालेंगे।
अभी तो यह देखने का जमाना है कि ये पूँजीवाद मरते-मरते भी क्या-क्या रंग दिखाता है।

राघव आलोक said...

आपकी अपने बारे में क्‍या राय है?

अनिल रघुराज said...

राधव आलोक जी, मैं तो जाहिर है मौलिक होने की कोशिश कर रहा हूं। लेकिन आप का तो स्वतंत्र वजूद ही नहीं है। आप तो किसी दशानन का एक चेहरा बनकर जिंदा होने का भ्रम बनाए हुए हैं। आप जैसी छायाओं से क्या युद्ध किया जाए?

आभा said...

अच्छी बात और अच्छी बात झाझ मजीरा लेकर शब्दों और धारणाओं का कीर्तन कर रहे हैं ।

azdak said...

पढ़ा. आइंदा कोई राघव आलोक दिखे तो उसे लात मारके एक ओर कीजिए. हालांकि फिर वह किसी अंधेरे आलोक की शक्‍ल में प्रकट होगा. उसे भी लात लगाइये.

डा. अमर कुमार said...

भाई अनिल जी,
मैं तो आपसे पूरी तरह से सहमत होते हुये
भी एक शंका का निवारण पहले कर लूँ, तो आगे बढ़ूँ
कृपया यह स्पष्ट करें कि कहीं आप पुरातनपंथी नासूर के वारिस तो नहीं ?ऎसा भान होता है किरघुराजकिसी घराने विशेष से संम्बन्ध रखता है, तभी यह मवाद बजबजा कर इस नासूर से बह बह कर.. बह बह कर.. बह बह कर समाज को दमघोंटू बदबू से त्रस्त कर रहा है ।इस प्रकार की टिप्पणी ही यहाँ ज़्यादा उपर्युक्त लगती है,इसलिये सैम्पल दे रहा हूँकोई इन तथाकथित प्रगतिवादियों से
सवाल तो करे कि तुमने देश,समाज या फिर अपने
परिवार को दिया ही क्या है ?
बस एक मुग़ालते में स्वयं भी जीते हुये दूसरों को भी ग़ुमराह करने में ख़ुद को ख़लास कर रहे हो ।
आपकी पोस्ट बहुत ही माकूल है, और प्रसंसनीय तो
है ही ।लगे रहो अनिल भाई

VANGUARD said...

"स्पष्ट कर दूं कि मैं वाम राजनीति से जुड़े ज़मीनी कार्यकर्ताओं की बात नहीं कर रहा। मैं उनकी बात कर रहा हूं जो गली-मोहल्लों में वाम-वाम का स्वांग करते हैं, जो मुठ्ठी उतनी ही उठाते हैं कि कांख पूरी तरह ढंकी रहे।"
इसका मतलब कि आप अपने जैसे लोगों की बात कर रहे हैं। और ऐसे लोगों के लिए नाटकीयता हमेशा रहती है। कभी बुर्जुआ तो कभी सामंतवाद उन्हे ये सब पता नहीं नहीं होता।
क्योंकि वो वही जीवन जी रहे होते हैं फिर तर्क करके "रूप"पर जैसे दाढी,पैंट सिगरेट फिर गांजा पीना। ये सब बाते बड़े मौलिक ढंग से और समाजशास्त्र या दर्शन को ध्यान में रखकर की जाती हैं। कुछ नहीं हुआ तो बालमजदूरी कराते हैं। फिर परिवार का ध्यान नहीं रखते। कम्यूनिस्ट पार्टी और उसके लोगों की आलोचना करते वक्त गजब के आदर्श से लोग भर जाते हैं। 24 कैरेट के कम्यूनिस्ट ऐसे ही लोग ढूंढते हैं।
फिर जब चंद्रशेखर की शहादत की बात आई तो लगे बताने कि अब उनकी मां को कैसे कम्यूनिस्ट पार्टी अलगाव में डाल दी है। ये तर्क किस हालत में और क्यों दिए जाते हैं ये हर कोई जानता है।
हमें तो लग रहा है कि अब स्थिति उलट गई है। कम्यूनिस्ट पार्टी के आलोचक क्या क्या कहेगा ये लोग पहले से जान लेते हैं।
आप मानिए चाहे न मानिए
सामान्य लोग बस यही समझते हैं कि हमारे जन नेता की आर्थिक स्थिति इस राजनीति से बढ़ तो नहीं रही है?
तर्कों में भी यही बात लागू होती है? कौन और क्यों तर्क दे रहा है यह सवाल सबसे पहले कम्यूनिस्ट ही करता है।
वह हजार लोगों को मंदिर के बाहर खाना खिलाता है आप उसकी आलोचना नहीं करेंगे लेकिन एक दो दिन कोई कैडर आपके यहां खाना खा लिया बस उसका आदर्श तो गया। वह कहीं प्रेम कर रहा है तो भी गया।
टेंशन रिलीज करिए ठीक है लेकिन बहुत कॉनफिडेंस में इस तरह के तर्क को लेकर मत रहिएगा। क्योंकि यह पूर्व कर्मों की केवल सफाई लगता है।

चंद्रभूषण said...

बुनियादी सवाल है, लेकिन पार्टी कांग्रेस जैसे सर्वोच्च मंच पर उठाए जाने के बावजूद इसका कोई जवाब खोज पाना मेरे लिए संभव न हो सका। राजनीतिक शब्दावली में जो चीज कम्यूनिज्म बनाम कैपिटलिज्म होती है, वह सामाजिक दर्शन के स्तर पर कम्यूनिज्म बनाम इंडिविडुअलिज्म हो जाती है। मेरे ख्याल से इस समस्या का मूलबिंदु आचार-व्यवहार के बजाय किसी दार्शनिक समस्या में खोजने की जरूरत है। शायद इसके लिए विचारधारा को पचास वर्ष और इंतजार करना पड़े।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

मुझको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन .........
इसे कोई टकसाली कम्युनिस्ट मानेगा नहीं.

Gyan Dutt Pandey said...

अपने को तो यह बहस ही काम की नहीं लगती।