Tuesday 11 March, 2008

भिखारियों का पेट ही देश है, पर वो तो देश के हैं

कविगण माफ करेंगे। उनके मोहल्ले पर कंकड़ फेंक रहा हूं। इधर दो कवियों ने भिखारियों पर कविताएं लिखीं। एक ने मुंबई में पैदल चलते हुए दिल से ज्यादा लिखा, दूसरे ने दिल्ली में कार में चलते हुए दिमाग से ज्यादा लिखा। दोनों में ही दया है, बेबसी है, अपराध बोध है, मगर गुस्सा नहीं है। वह गुस्सा नहीं है जो एक लोकतांत्रिक देश के लोकतांत्रिक चेतना वाले नागरिक को आना चाहिए। क्यों नहीं है, इस सवाल पर शायद गहराई से सोचने की ज़रूरत है। मुझे पता है कि दोनों ही कवि मेरी इस बात से अंदर-अंदर ही भड़केंगे और हो सकता है मुझे देवताओं (कवियों) की पंक्ति में घुसपैठ करनेवाला राहू दैत्य करार दें। लेकिन मुझे जो लगता है, वह तो मैं कहूंगा ही।

पहली बात। भिखारियों का कोई देश नहीं होता। सुबह से शाम तक उनका जुगाड़ पेट भरने तक का रहता है। बाकी शारीरिक ज़रूरतें भी वे पूरी करते हैं। नशा भी करते हैं। लेकिन देश, दुनिया, समाज जैसी कोई जगह उनके मन के नक्शे पर नहीं होती। यह सच है, इसके लिए किसी सर्वे या प्रमाण की जरूरत नहीं है। लेकिन इस सच के लिए भी किसी प्रमाण या पासपोर्ट की ज़रूरत नहीं है कि उनका जन्म भारत-भूमि पर ही हुआ है। जितने भी भिखारी भारत की ज़मीन पर पैदा हुए हैं, वे इस देश के नागरिक हैं। ये सारी दुनिया का तकाज़ा है। इसलिए जिसे भी हम देश कहते और मानते हैं, वह इस हकीकत से मुंह नहीं चुरा सकता/सकती।

लेकिन अपनी भारत सरकार के पास तो ये आंकड़ा तक नहीं है कि देश में कुल कितने भिखारी हैं। करीब ढाई साल पहले एक सांसद ने लोकसभा में इस बाबत सवाल पूछा तो सामाजिक न्यायमंत्री मीरा कुमार ने बताया कि भारत सरकार के पास देश में भिखारियों की संख्या के बारे में कोई विश्वसनीय अनुमान नहीं है। सांसद ने पूछा कि क्या केंद्र सरकार भीख मांगने के खिलाफ कोई कानून लाने की सोच रही है तो जगजीवन राम की पुत्री ने कहा – नहीं, श्रीमान। यह मसला राज्य सरकारों और संघशासित क्षेत्रों के प्रशासन के अधीन आता है और वे ही इस बारे में कोई कायदा-कानून बना सकते हैं।

आज मैं, भारत का एक आम नागिरक, अपनी केंद्र सरकार से पूछता हूं कि फिर आप टैक्स किस बात का लेते हो। देश के तकरीबन 3.25 करोड़ लोगों ने इस साल आपको 1,18,320 करोड़ रुपए का आयकर दिया है, जबकि इस मद में तय रकम 98,774 करोड़ रुपए ही थी। आज जो भी महीने में 25-30 हज़ार रुपए कमा रहा है, वह मोटामोटा एक-सवा महीने की तनख्वाह सरकार को टैक्स में दे ही देता है। वह इस पैसे में ढाई हज़ार रुपए महीना की पगार पर साल भर के लिए घर की नौकरानी रख सकता है। लेकिन सरकार को ये रुपए देकर उसे क्या मिलता है? कानून-व्यवस्था, संसद की कार्यवाही, नेताओं के भाषण। इसके अलावा सड़क, रेल यातायात, बिजली, टेलिफोन आदि-इत्यादि जैसी बुनियादी सेवाएं। लेकिन इसके लिए तो हम पूरा पैसा देते हैं।

इस साल देश के अवाम ने सरकार को आयकर व कॉरपोरेट कर समेत तीन लाख करोड़ रुपए का प्रत्यक्ष कर दिया है। इसके अलावा एक्साइज, कस्टम और सर्विस टैक्स के रूप में 2.80 लाख करोड़ रुपए का अप्रत्यक्ष कर दिया है, जो एक तरह का उपभोग कर है जिसे भिखारी से लेकर किसान और उद्योगपति तक देता है। बाज़ार से जो भी चीज़ हम खरीदते हैं, उसका 8-10 फीसदी हिस्सा सरकारी खजाने में अप्रत्यक्ष कर के रूप में चला जाता है। हमसे टैक्स लेने के कारण ही सरकार बाध्य है कि वह सारे देश का इंतज़ाम करे। जो असहाय हैं, उनके लिए मानवोचित जीवन की गारंटी करे।

भिखारियों के लिए रैनबसेरों का इंतज़ाम करना सरकार का काम है। उन्हें इस धंधे से निकालना सरकार का काम है। उनके बच्चों की पढ़ाई का इंतज़ाम करना सरकार का काम है। इन सारे कामों के लिए हमें जो देना है, वो हम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर के रूप में सरकार को दे चुके हैं। अब सरकार अगर कुछ नहीं कर रही, तो उसकी गरदन पकड़ने की ज़रूरत है, न कि अपराध-बोध में डूबने की कि हम सूटबूट में डंटे कार से एसी में चल रहे हैं और देखो वो औरत भरी दुपहरी में बीमार बच्चे को पकड़े पापी पेट के लिए हाथ फैला रही है। वैसे तो, राज्य सरकारों ने दिखाने को भिखारियों के कल्याण के उपाय किए हैं, भीख मांगने के धंधे को खत्म करने के कानून भी बनाए हैं। लेकिन भिखारियों के रैनबसेरों में बलात्कार होते हैं और भीख के धंधे पर माफिया पलते हैं। सरकार का साया इन्हीं पर है। बाकी सब तो माया है।

8 comments:

Yunus Khan said...

अनिल भाई,दो चीज़ों की ज़रूरत है । एक तो सरकार की गर्दर पकड़वा कर भिखरियों के लिए ऐसा सपोर्ट सिस्‍टम तैयार करने की ताकि वो भीख के जाल से बाहर आएं । दूसरा निजी क्षेत्र के भीतर इतनी संवेदना जगाने की कि वो क्रिकेट और कैलेन्‍डरों पर करोड़ों की बजाय लाखों खर्च करें और लाखों कल्‍याणकारी कामों में लगाएं । आपने जो आंकड़े दिये हैं वो आंखें खोल देने वाले हैं ।

नीरज गोस्वामी said...

अनिल जी
" देश, दुनिया, समाज जैसी कोई जगह उनके मन के नक्शे पर नहीं होती। "
बहुत सही बात कही है आप ने अपनी इस पोस्ट पर इसके लिए आप की जितनी तारीफ की जाए कम है. कहाँ समय है हमारे पास इनके बारे में सोचने का कुछ करने की बात तो दूर की बात है. कोई नहीं सोचता की भीख मांगने वाले की जगह अगर आप, आप की माँ, बेटी , बहु या बच्चा होता तो..तो कैसा लगता आप को..सरकार से पूछे गए सवाल एक दम सटीक हैं लेकिन जवाब...?? वो किसे कब मिले हैं?
नीरज

Sandeep Singh said...

मेरे ख्याल से दोनों कवियों और उनकी कविता ने जिम्मेदारी बखूबी से निभाई...कम से कम एक लेख लिखने और चुनिंदा आंकड़े जुटाने पर तो मजबूर कर ही गई। रही बात सवाल उठाने और जवाब पाने की तो कविता में जो सवाल वृहद स्तर पर समाज से किए गए थे लेख में थोड़ा केंद्रित होते हुए सरकार से किए गए। लेकिन ये दायरा भी बड़ा ही लगता है, जहां से जल्दी कुछ हासिल नहीं होता। काश सिमट कर ये इतना सीमित हो पाता कि किसी एक की गिरेबां तक हाथ पहुंच जाता ? लोग नाउम्मीद नहीं होंगे, जरूर एक दिन ऐसा होगा, तभी तो वो लिख रहे हैं।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

संवेदना जगाने की जरूरत निजी क्षेत्र से ज्यादा राजनेताओं में है. जो ख़ुद जनता की गाधी कमाई के अरबों रुपये अय्याशी पर खर्च करते हैं और जनता की वाजिब जरूरतों के लिए उनके पास धेला नहीं होता. इलाज एक ही है और कृपया इसे अन्यथा न लें, लेकिन वह है जूता. हमारे, आपके, रिक्शे वाले, ठेले वाले, किसान, मजदूर और यहाँ तक की भिखारियों के भी सबके हाथ में जूता. ऐसा जूता जो बजे महामहिमों, माननीयों और मान्यवरों के सिर पर दनादन-दनादन. एक न एक दिन यह होगा भी.

स्वप्नदर्शी said...

http://swapandarshi.blogspot.com/2008/03/blog-post.html

naagrik adhikaro kee jab maang hogee tabhee sahee jantantr aayegaa.

राज भाटिय़ा said...

अनिल जी, बात तो आप की सही हे लेकिन किन नेताओ से उम्मीद कर, जिन्हे सिर्फ़ अपनी ओर अपनी कुर्सी की पडी हे.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

YE FAQAA PARASTI,
YE BHUKHON KE DERE.
YE MASUM RATEN,
GAMON KE SABERE.
YE BUJHTE DIYE,
TIMTIMATE SITARE,
ANDHERON SE
RAHE FATAH PUCHHTE HAIN !

EK GAHRE DARD KO ZABAAN DI AANE...SADHUVAD.

बोधिसत्व said...

अनिल भाई
मैं आपसे सहमत हूँ...
लेकिन मेरी कविता में दया की बात तो कहीं है ही नहीं...मैंने तो केवल प्रश्नों पर ही छोड़ दिया था...मैं नकली गुस्से और नकली दया और नकली आत्म ग्लानि के खिलाफ हूँ....
और आप ही बताएँ कि क्या ऐसी स्थितियों में कहीं किसी पर भड़कने का गुस्सा होने का कोई अवकाश है...