अमरेश की इस किताब का विमोचन कल, 7 मार्च 2008 को राजधानी दिल्ली में उप-राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने किया। वैसे अमरेश की इस किताब की समीक्षा देश और विदेश के तमाम नामी अखबारों में छप चुकी है। वे आज एक जानेमाने इतिहासकार हैं। कई किताबें उन्होंने लिखी हैं। पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों लेख लिखे हैं। लेकिन उनका एक परिचय और है कि वे कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक जोशीले छात्र संगठन पीएसओ (अब आइसा) और दस्ता नाट्य मंच के सक्रिय सदस्य हुआ करते थे। उस दौर की इस तस्वीर की पिछली पंक्ति के बीच में खड़े अमरेश को आप आसानी से पहचान सकते हैं। तस्वीर में मुंबई के तीन हिंदी ब्लॉगर भी हैं। अमरेश का दाहिना हाथ जिन पर पड़ा है, वे हैं ठुमरी वाले विमल। अगली पंक्ति में बीच में बड़े-बड़ों को अपने लिखे से चकरघिन्नी बना देनेवाले अज़दक के प्रमोद हैं और उनके बाएं बाजू पर दिख रहा शख्स यह नाचीज़ है। हम सभी दोस्तों की तरफ से अमरेश की रचनाशीलता को और प्रखर बनाने के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।
एक बात और। अमरेश भी मुंबई में रहते हैं और हम लोग भी। लेकिन उनसे मिलना नहीं हो पाता क्योंकि वे लेखक हैं और हम ब्लॉगर। हां, उनकी पत्नी प्रगति ने उनकी नई किताब पर पूरा एक ब्लॉग ज़रूर बना दिया है।
मतदाता जागरूकता गीत
1 month ago
5 comments:
aap logo kee puraanee tasveer dekhkar achchaa laga. aur kitab ke baare me jaan kar bhee. umeed hai ki samay nikaal kar padhungee
अनिल भाई इलाहाबाद में आप लोगों ने जो तरंगित दिन जिए उनकी खुशबू यहां नज़र आई । कमाल की तस्वीर है ये, अमरेश जी के लेख तो यहां वहां हम पढ़ ही रहे थे, इस पोस्ट के ज़रिए उनके लेखन की एक दुनिया हमारे सामने खोल दी है आपने । हम सीधे प्रगति जी के ब्लॉग पर पहुंचे हैं और सब कुछ पढ़ लेना चाहते हैं । शुक्रिया । और हां क्या हमें अमरेश जी का संपर्क सूत्र मिलेगा । विविध भारती के लिए उन्हें इंटरव्यू किया जायेगा
अच्छा लगा अमरेश का लिखा गाहे-बगाहे ब्लॉग में या अखबारों में पढ़ने को मिल ही जाता है..पर अमरेश से पिछले पन्द्रह बीस सालो से मिला नहीं हूँ,पर यहाँ उनके बारे में जानकर अच्छा लगा..अमरेश को भी बधाई और आपको भी...
यह किताब तो पढ़नी पड़ेगी. अमरेश जी ने इतने महत्वपूर्ण विषय पर बड़े परिश्रम से व्यापक शोध करके जो किताब लिखी है, उससे आधुनिक भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ता है।
1857 के 150 वर्ष पूरे होने के बाद यह किताब उन तथ्यों को उजागर करती है, जिन्हें आज तक शायद जानबूझकर दबाया-छिपाया ही जाता रहा है। मसलन, विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों द्वारा किए गए नरसंहार की व्यापकता और भयावहता पर इतने प्रामाणिक आंकड़े और विवरण पहले इतिहास की किताबों में नहीं दिए जाते थे। दूसरा, विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों को भारतीय जमींदारों और राजे-रजवाड़ों द्वारा सौदेबाजी के तहत जो सहयोग किया गया, उसके बारे में भी इतिहास में अब तक बहुत कुछ छिपाया जाता रहा है। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत की आजादी की पहली लड़ाई को बर्बरता से कुचलने में जिन राजे-रजवाड़ों और जमींदारों ने अंग्रेजों का सहयोग किया, उन्हीं के वंशज बाद में आजादी के बाद राजनीतिक दलों में शामिल होकर सत्ता में आ गए और आज भी शासन कर रहे हैं।
अमरेश बाबू जहां भी रहें, जो करें, मस्त रहें..
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