हमारे बिना भी दुनिया में चलता है बहुत कुछ

हम परेशान रहते हैं कि ये चारों तरफ क्या चल रहा है। मूल्यों का इतना पतन। नैतिकता का इतना पराभव। इतना भ्रष्टाचार! नेताओं की इतनी मनमानी!! राजनीतिक पार्टियों का ये हश्र!!! किसी बूढ़े खूसट की तरह हम कोठरी के कोने में बैठकर खांसते रहते हैं, कोसते रहते हैं कि अरे पवार तू क्या रहा है बच्चा, तूने तो क्रिकेट को खुल्ल्मखुल्ला सट्टेबाज़ी बना डाला। हम क्रिकेट खिलाड़ियों की खराब परफॉर्मेंस पर दुखी होते हैं। दुखी होते हैं कि रेलमंत्री झांकी दिखाने के बाद अब रेल को बेचने पर उतारू हैं। परेशान हैं कि वित्तमंत्री किसानों को केवल सब्जबाग ही दिखा रहे हैं। और बताइए, ये तो हद है!!! सेना तक में एड़ी से लेकर चोटी तक कट-पे-कट चलता है।

हम दुखी हैं कि हम दुखी होने के अलावा कर भी क्या सकते हैं? लेकिन बाहर है कि दुनिया चली जा रही है। नगरपालिका में फैसले हो रहे हैं, राज्य में योजनाएं बन रही है, केंद्र में नई-नई नीतियां तैयार हो रही हैं। मानते हैं कि कभी-कभी कुछ अच्छा हो जाता है, लेकिन ज्यादा कुछ गलत ही होता है। बस समझ लीजिए कि नीचे से ऊपर तक 95% काम गलत ही होता है। लेकिन हम कर भी तो कुछ नहीं सकते। क्या करें! घर-परिवार में उलझे हैं। फिर कल के बुढ़ापे का इंतज़ाम भी करना है। पहले की तरह तो रहा नहीं कि बच्चे बुढ़ापे की पेंशन और बीमा हुआ करते थे।

चिंता की बात यह है कि हम इतनी सारी चिंताएं करते हुए व्यक्ति और समाज के अंतर को भूल जाते हैं। भूल जाते हैं कि व्यक्ति की भूमिका कहां तक है और समाज या सरकार की ज़िम्मेदारी कहां से शुरू हो जाती है। हकीकत ये है कि हम अपने लिए जो भी कमाते-खाते-करते हैं, उसका एक हिस्सा हमारे न चाहते हुए भी सरकारी खज़ाने में चला जाता है। हमारी कमाई और खर्च से हर साल करोड़ों-करोड़ों का टैक्स सरकार को मिलता है। चालू साल की बात करें तो अकेले केंद्र सरकार को हम अपने खर्च से 2,79,190 करोड़ रुपए का अप्रत्यक्ष कर (एक्साइज, कस्टम और सर्विस टैक्स) और अपनी कमाई से 2,68,832 करोड़ रुपए का प्रत्यक्ष कर (इनकम टैक्स और कॉरपोरेट टैक्स) दे रहे हैं। इसलिए सरकार हमारी मालिक नहीं, हमारी नौकर है। वह अगर हमारे हित में कोई काम करती है तो एहसान नहीं करती।

दूसरी बात सोचने की यह है कि हमने सही-गलत के जो मानदंड बना रखे हैं, वे आए कहां से और आखिर बने कैसे हैं? समाज व देश किसी अमूर्त दर्शन या शाश्वत नैतिकता के आधार पर नहीं चला करते। आपसी हितों के संतुलन और सामंजस्य से चलती है दुनिया। जैसे, अपने यहां अभी देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के हित सबसे ऊपर हैं तो सारा कुछ इसी के माफिक तय होता है। कृषि नीति से लेकर शिक्षा नीति तक इसी के व्यापक हितों को पूरा करने के लिए बनती है। चमचमाती सड़कों से लेकर ओवरब्रिज, बिजली की शानदार सप्लाई, उत्तम रेल यातायात, इन सब कुछ के केंद्र में इसी का हित है।

यह इसके हित में है कि भ्रष्टाचार खत्म हो, गरीबी मिटे, अशिक्षा मिटे, स्वास्थ्य के अच्छे इंतज़ाम हों। जो थोड़े बहुत काम इस दिशा में हो रहे हैं, वे सरकार के किसी नैतिक आग्रह के चलते नहीं, बल्कि ठोस व्यावहारिक हितों के चलते हो रहे हैं। विश्व बैंक अगर एड्स से जुड़े कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार को लेकर हल्ला मचाता है तो यह महज दिखावा नहीं है। आज देशी-विदेशी पूंजी की ज़रूरत बनती जा रही है कि सरकारी तंत्र को जवाबदेह बनाया जाए और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया जाए। जाति व्यवस्था या धार्मिक अंधविश्वास उनके माफिक नहीं पड़ते तो इनका खत्म होना भी उनके हित में है। इन तमाम मुद्दों को लेकर एनजीओ बना लीजिए, फिर देखिए देश-विदेश से कितनी मदद आने लगती है।

आज ज़रूरत साफ-साफ यह समझने की है कि सत्ता में बैठे तबकों के स्वार्थ और उनकी खींचतान लोकतांत्रिक संस्थाओं को कितना और कहां तक मजबूत कर सकती है। वहां तक हम दबाव बनाकर इसी सिस्टम में बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं। लेकिन उसके आगे के लिए तो वही बात है कि याचना नहीं अब रण होगा, संघर्ष बड़ा भीषण होगा।

Comments

"दूसरी बात सोचने की यह है कि हमने सही-गलत के जो मानदंड हमने बना रखे हैं, वे आए कहां से हैं, आखिर बने कैसे हैं? समाज व देश किसी अमूर्त दर्शन या शाश्वत नैतिकता के आधार पर नहीं चला करते। आपसी हितों के संतुलन और सामंजस्य से चलती है दुनिया।"

विचारोत्तेजक लेख.
संतुलित और सुदृढ़ विश्लेषण.
कमाल की लेखनी है आपकी
पता नहीं निस्वार्थ जन प्रगति को प्रॉपेल कर सकते हैं या नहीं।
Sandeep Singh said…
पढ़ लिख कर भी अकसर हम सरकार चुनना ही महती लोकतांत्रिक योगदान मान लेते हैं। सरकार चलाने के लिए किया गया योगदान तो धयान में ही नहीं रहता। आंकड़ा देकर बड़ा अच्छा किया आपने। गर्व की अनुभूति तो हुई ही गाढ़ी कमाई का हक मांगने का हौसला बढ़ गया। मगर मांगे किससे ? इस सवाल पर उठी अंगुली कुछ देर के लिए ही सही खुद की ओर भी घूम जाती है।
रही बात संघर्ष की तो वो हर कोई कर रहा है फर्क इतना है कि कोई जता लेता है और कोई खटता रहता है।

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