तुम बनाओ खेमे, तुम्हें जो करनी है राजनीति
तुम बना लो खेमे, कर लो राजनीति। हमें नहीं करनी किसी भी किस्म की राजनीति। क्रांति-व्रांति कुछ नहीं करना। हमें तो सबको साथ लेकर चलना है। सबके साथ बहना है। यह सच है कि देश और समाज में किसी भी सार्थक और टिकाऊ बदलाव के लिए राजनीति एक अपरिहार्य चीज़ है। लेकिन यह भी सच है कि राजनीति बड़ी तात्कालिक और फौरी किस्म की, बड़ी कमीनी चीज़ होती है। सत्ता बदल जाती है। मगर, सत्ता में बैठे लोगों के चेहरे धीरे-धीरे पूर्व-सत्ताधारियों जैसे होते चले जाते हैं। वैसा ही दमन, वैसी ही जोड़तोड़। यह भले ही कोई शाश्वत सत्य न हो, लेकिन 1945 में लिखी जॉर्ज ऑरवेल की पतली-सी किताब एनीमल फार्म साठ-बासठ साल बाद आज भी बेहद प्रासंगिक लगती है।
अपने देश की बात करें तो वाममोर्चा-शासित पश्चिम बंगाल भ्रष्टाचार से लेकर हत्या और बलात्कार जैसे किसी भी जघन्य अपराध में बाकी देश से भिन्न नहीं है। केरल में साक्षरता जैसे तमाम आंकड़ों के चमकने की वजह कम्युनिस्ट शासन नहीं, बल्कि घरबार छोड़कर खाड़ी देशों में कमाई करने गए केरलवासियों की मेहनत है। आप कहेंगे कि ये तो पतित हो चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के काम हैं। फिर, पूर्वी यूरोप के देशों और पूर्व सोवियत संघ के किस्से भी आज पुराने पड़ गए हैं। लेकिन यह देखें कि आज चीन में क्या हो रहा है?
आप कहेंगे कि पूंजीवाद के पूर्ण विकास के बिना समाजवाद या साम्यवाद नहीं आ सकता। लेकिन क्या जन-मुक्ति का वहां वैसा ही उत्सवी उल्लास है जैसा क्रांति और उससे बाद के दस-बीस सालों के दौरान रहा था? बताते हैं कि माओत्से तुंग ने जब चीन में औद्योगिक विकास के लिए इस्पात उत्पादन को बुनियादी उद्योग बताया तो सारा देश लोहा गलाने में लग गया था। लोगों को कुछ नहीं मिलता था तो घर की कढ़ाही व लोहे के दूसरे बर्तन या पार्क की रेलिंग तक उखाड़कर पिघलाने चले जाते थे। वे जूते-चप्पल में धंसी कील तक संभालकर रख लेते थे कि इससे उनके सपनों के चीन का लोहा बनेगा।
लेकिन आज भोग से लेकर सत्ता संस्कृति में चीन किसी भी पश्चिमी देश से भिन्न नहीं है। वहां भी गरीबी है, बेरोजगारी है। सत्ता से दूर रहे लोगों में असुरक्षा की वैसी ही भावना है। मेरी बड़ी इच्छा है कि कभी चीन जाकर नजदीक से देखूं कि सत्ता के बदलाव ज़मीन पर कैसे और कितना असर डालते हैं। लेकिन शायद ये कभी संभव नहीं होगा। इसलिए मीडिया की रिपोर्टें ही चीन को जानने-समझने का माध्यम हैं। वैसे, बाहर बैठकर ये कह देना बड़ा आसान है कि चीन साम्यवाद की राह से भटक गया है, पतित हो गया है। लेकिन ऐसा कहनेवाले अगर खुद सत्ता में होते तो शायद उससे भी ज्यादा पतित हो गए होते। अब उनके लिए क्यूबा और वेनेजुएला जैसे देश प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। देखिए आगे क्या होता है।
खैर, जो भी हो। यह उनका काम है। मुझे उनके काम और प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने का कोई हक नहीं बनता। मैं अपने तईं तो यही संतोष करके बैठा हूं कि राजनीति और क्रांति से सत्ता भले ही बदल जाए, लेकिन समाज और इंसान नहीं बदलता। समाज और इंसान लंबे समय में धीरे-धीरे बदलते हैं। इंसान की सोच धीरे-धीरे बदलती है। जैसे, साइकिल तो फौरन मुड़ जाती है, लेकिन ट्रेन को मोड़ने के लिए काफी घुमावदार चक्कर काटना पड़ता है। अपनी तो स्थिति वैसी ही है कि, न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम्। कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्॥ हमें सत्ता नहीं चाहिए। हमें तो आत्मा का इंजीनियर बनना है। अपने भाव-संसार के हर खोट को खोजना है और उसे गढ़-गढ़कर ठीक करना है। हो सकता है जो अपने लिए सही हो, वह औरों के काम भी आ जाए।
चलते-चलते एक बात और। देश और राज्य की सत्ता के लिए राजनीति करना अच्छी बात है। लेकिन दफ्तरों और मोहल्लों में छोटी-छोटी बातों के लिए राजनीति करना टुच्चई है। आम जीवन में जबरदस्ती की खेमेबंदियां करना टुच्चई है। बड़े अफसोस की बात है कि यह टुच्चई मुझे कभी-कभार हिंदी ब्लॉगिंग की इस छोटी-सी दुनिया में भी दिखाई पड़ जाती है। अटल जी के अंदाज़ में बोलूं तो ये अच्छी बात नहीं है।
अपने देश की बात करें तो वाममोर्चा-शासित पश्चिम बंगाल भ्रष्टाचार से लेकर हत्या और बलात्कार जैसे किसी भी जघन्य अपराध में बाकी देश से भिन्न नहीं है। केरल में साक्षरता जैसे तमाम आंकड़ों के चमकने की वजह कम्युनिस्ट शासन नहीं, बल्कि घरबार छोड़कर खाड़ी देशों में कमाई करने गए केरलवासियों की मेहनत है। आप कहेंगे कि ये तो पतित हो चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के काम हैं। फिर, पूर्वी यूरोप के देशों और पूर्व सोवियत संघ के किस्से भी आज पुराने पड़ गए हैं। लेकिन यह देखें कि आज चीन में क्या हो रहा है?
आप कहेंगे कि पूंजीवाद के पूर्ण विकास के बिना समाजवाद या साम्यवाद नहीं आ सकता। लेकिन क्या जन-मुक्ति का वहां वैसा ही उत्सवी उल्लास है जैसा क्रांति और उससे बाद के दस-बीस सालों के दौरान रहा था? बताते हैं कि माओत्से तुंग ने जब चीन में औद्योगिक विकास के लिए इस्पात उत्पादन को बुनियादी उद्योग बताया तो सारा देश लोहा गलाने में लग गया था। लोगों को कुछ नहीं मिलता था तो घर की कढ़ाही व लोहे के दूसरे बर्तन या पार्क की रेलिंग तक उखाड़कर पिघलाने चले जाते थे। वे जूते-चप्पल में धंसी कील तक संभालकर रख लेते थे कि इससे उनके सपनों के चीन का लोहा बनेगा।
लेकिन आज भोग से लेकर सत्ता संस्कृति में चीन किसी भी पश्चिमी देश से भिन्न नहीं है। वहां भी गरीबी है, बेरोजगारी है। सत्ता से दूर रहे लोगों में असुरक्षा की वैसी ही भावना है। मेरी बड़ी इच्छा है कि कभी चीन जाकर नजदीक से देखूं कि सत्ता के बदलाव ज़मीन पर कैसे और कितना असर डालते हैं। लेकिन शायद ये कभी संभव नहीं होगा। इसलिए मीडिया की रिपोर्टें ही चीन को जानने-समझने का माध्यम हैं। वैसे, बाहर बैठकर ये कह देना बड़ा आसान है कि चीन साम्यवाद की राह से भटक गया है, पतित हो गया है। लेकिन ऐसा कहनेवाले अगर खुद सत्ता में होते तो शायद उससे भी ज्यादा पतित हो गए होते। अब उनके लिए क्यूबा और वेनेजुएला जैसे देश प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। देखिए आगे क्या होता है।
खैर, जो भी हो। यह उनका काम है। मुझे उनके काम और प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने का कोई हक नहीं बनता। मैं अपने तईं तो यही संतोष करके बैठा हूं कि राजनीति और क्रांति से सत्ता भले ही बदल जाए, लेकिन समाज और इंसान नहीं बदलता। समाज और इंसान लंबे समय में धीरे-धीरे बदलते हैं। इंसान की सोच धीरे-धीरे बदलती है। जैसे, साइकिल तो फौरन मुड़ जाती है, लेकिन ट्रेन को मोड़ने के लिए काफी घुमावदार चक्कर काटना पड़ता है। अपनी तो स्थिति वैसी ही है कि, न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम्। कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्॥ हमें सत्ता नहीं चाहिए। हमें तो आत्मा का इंजीनियर बनना है। अपने भाव-संसार के हर खोट को खोजना है और उसे गढ़-गढ़कर ठीक करना है। हो सकता है जो अपने लिए सही हो, वह औरों के काम भी आ जाए।
चलते-चलते एक बात और। देश और राज्य की सत्ता के लिए राजनीति करना अच्छी बात है। लेकिन दफ्तरों और मोहल्लों में छोटी-छोटी बातों के लिए राजनीति करना टुच्चई है। आम जीवन में जबरदस्ती की खेमेबंदियां करना टुच्चई है। बड़े अफसोस की बात है कि यह टुच्चई मुझे कभी-कभार हिंदी ब्लॉगिंग की इस छोटी-सी दुनिया में भी दिखाई पड़ जाती है। अटल जी के अंदाज़ में बोलूं तो ये अच्छी बात नहीं है।
Comments
पर यह सच है कि पावर करप्ट्स और एब्सोल्यूट पावर करप्ट्स एब्सोल्यूटली।
आज फिर नासेह बलानोशों को समझाने गए औ;
मयकदे से निकले तो मुश्किल से पहचाने गए
1. जब बहस हो तब शालीनता अवश्य बनी रहे।
2. बहस एक दूसरे से सीखने के लिए हो, सिखाने की ही जिद न हो।
3. गालियों और भदेसपन से दूर रहा जाए। इन का इस्तेमाल करने वालों को चेताया जाए और फिर भी जारी रहने पर बहिष्कार कर अपने हाल पर छोड़ दिया जाए। जब तक वे सहज वार्ता के स्तर पर नहीं आ जाते हैं।
3. मेरे विचार में सभी इस बात पर तो सहमत हैं कि समाज को आगे बढ़ना चाहिए मानव-मानव की समानता के स्तर तक और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के अन्त तक।
4. अगर ऊपर वाली सहमति है तो फिर कोई किसी विचार का हो इस से क्या फर्क पड़ता है। वार्तालाप बने रहना चाहिए।
आप की असहमति वाली भी कई बातें हैं लेकिन वे सूचना की गलतफहमियों और चीजों को गलत समझने के कारण (आप के और मेरे दोनों के) भी हो सकती हैं। इस कारण से उन के मामले में हमें अपने दिमाग को खुला रखने की जरूरत है। विचार के बीच खेमेबन्दी बुरी है, लेकिन स्थाई रुप से विचार के कारण किसी को किसी भी खेमे का घोषित कर देना उस से भी बुरा है। आप एक अच्छा काम बुरे गांव में करना चाहते हैं तो अच्छे लोग कहाँ से लाएंगे। गांव में से ही चुनना पड़ेगा।
बीसियों साल से मैं आपको जानता हूं,आप से हमने बहुत कुछ सीखा है,पर मुझे शिल्पी जी की बात से सहमत हूँ...जिनके बारे में आप कह रहे हैं ये सब घटिया सर्कस के घटिया जोकरों की तरह हैं, इनका खेल ऐसे ही चलता रहेगा,आप जैसे लिखते हैं लिखते रहें,मैं आपके लिखे का कायल हूँ.
I read all the comments but could not trace the reference to relate to the China issues.
In my view Chinese economists are the most confused lot in the world. May be because chinese politics does not allow them to think.
( I failed to see the relationship between this part and the last para of your post.)
Nevertheless, I fully endorse your views on "khemebaazee".
I resist to comment on controversial issues, but would say that some people love to
"generate" controversies.