जाति-जाति का जाप और आरक्षण पर गिरी गाज
हम दिखावे में इतने उलझे हैं कि पूरी बुद्धि और विवेक पर परदा पड़ गया है। नहीं तो क्या वजह है कि जब हम दलित, मीडिया, महिला, आरक्षण की बहस में उलझे थे, उसी वक्त सरकार ने आरक्षण से संरक्षित करोड़ों नौकरियों पर गाज गिराने का खतरनाक फैसला कर लिया और हमने चूं तक नहीं की। या, इसका मतलब यह भी हो सकता है कि देश के हर क्षेत्र में बड़ी व विदेशी पूंजी की राह आसान करने के सरकारी मंसूबे को हम तहेदिल से मुनासिब समझते हैं। कुछ भी हो सकता है। वैसे भी आपकी कथनी या लेखनी नहीं, आपकी करनी ही आपके असली चरित्र का फैसला करती है।
आरक्षण के मसले का सीधा वास्ता नौकरियों से है। शिक्षा में आरक्षण भी इसीलिए चाहिए ताकि कल समाज के वंचित तबकों को सम्मानजनक नौकरियां मिल सकें। सरकारी ही नहीं, संगठित निजी क्षेत्र को भी इस सामाजिक जिम्मेदारी को उठाने से बिदकना नहीं चाहिए। लेकिन सरकारी और संगठित निजी क्षेत्र में हैं ही कितनी नौकरियां? सरकार में 30-35 लाख और निजी कंपनियों में ज्यादा से ज्यादा 25 लाख। कुल मिलाकर लगभग 60 लाख। लेकिन जो लघु उद्योग क्षेत्र इससे पांच से आठ गुना लोगों (3 से 5 करोड़) को रोज़गार देता है, उससे हमारी सरकार ने आरक्षण की सुविधा तकरीबन पूरी तरह छीन ली। उसे बड़ी व विदेशी पूंजी से मुकाबला करने के लिए रिंग में धकेल दिया। मगर अफसोस, हममें से तमाम जागरूक लोग इसे देखने के बजाय अपनी ही बहस में उलझे हुए हैं।
केंद्र सरकार ने तीन दिन पहले ही (शुक्रवार 8 फरवरी 2008) लघु उद्योग क्षेत्र के लिए आरक्षित सूची में से 79 आइटम और हटा लिए। जिस लघु उद्योग की आरक्षण सूची में कभी 873 आइटम हुआ करते थे, उसमें अब केवल 35 रह गए हैं। देश का सबसे बड़ा अंग्रेजी अखबार इसे लाइसेंस-परमिट राज के खात्मे के बचे-खुचे कदमों में शुमार कर रहा है और कह रहा है कि सरकार ने इससे ‘79 और आइटमों पर लघु उद्योग की मोनोपोली’ खत्म कर दी है। जबकि देश ही नहीं, विश्व के सबसे बड़े आर्थिक अखबार ने इस खबर को लेने तक की ज़रूरत नहीं समझी।
वैसे, केंद्र सरकार ने लघु उद्योगों से आरक्षण को हटाने का कदम बड़ा फूंक-फूंक उठाया है। 1984 में कुल आरक्षित आइटम 873 थे। 1991 में नरसिंह राव सरकार ने लघु उद्योग के आरक्षण में सेंध लगाने का फैसला कर लिया। लेकिन उसे डर था कि कहीं मंडल की तरह इस पर भी बवाल न मच जाए क्योंकि यह क्षेत्र खेती के बाद सबसे ज्यादा लोगों को रोज़गार देता है और यहां नौकरी करनेवालों में ज्यादातर पिछड़े और दलित समुदाय के ही लोग हैं। 1997 तक वह डरते-डरते लघु उद्योग के लिए आरक्षित आइटमों की सूची को 800 तक ले आई। लेकिन जब कहीं से विरोध की कोई सुगबुगाहट नहीं हुई तो साल 2002 से इस सूची को काटने का सिलसिला तेज़ हो गया। चंद सालों में ही 686 आइटम हटा दिए गए। हफ्ते भर पहले तक इस सूची में 114 आइटम बचे थे। लेकिन शुक्रवार के फैसले के बाद अब केवल 35 उत्पाद ही ऐसे हैं, जिन्हें बनाने में लघु इकाइयों को विदेशी और बड़ी पूंजी से सीधी टक्कर नहीं लेनी पड़ेगी।
सरकार इस आरक्षण को खत्म करने के लिए बड़े लोकप्रिय तर्क देती रही है। कहा गया कि देश में लघु उद्योग के उत्पादन का 60 फीसदी हिस्सा 800 आइटमों की आरक्षित सूची में से केवल 80 उत्पादों से आता है, इसलिए इतनी लंबी-चौड़ी सूची की ज़रूरत नहीं है। फिर 25 लाख, एक करोड़ और पांच करोड़ रुपए की मौजूदा निवेश सीमा में अति लघु और आधुनिक लघु इकाइयां भी उन्नत संयंत्र, मशीनरी और तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर पातीं।
तथ्य यह है कि आज की तारीख में भी देश के औद्योगिक उत्पादन का 40 फीसदी और हमारे निर्यात का 45 फीसदी हिस्सा लघु औद्योगिक इकाइयों से ही आता है। लघु उद्योग क्षेत्र में एक लाख रुपए का निवेश 4 लोगों को स्थाई नौकरी देता है। क्या बड़ी व विदेशी पूंजी इसी अनुपात में लोगों को रोज़गार दे पाएगी? रही बात तकनीक की तो सरकार ने ताज़ा फैसले में जिन आइटमों में आरक्षण खत्म किया है, उनमें स्टेशनरी और बिजली के सामान्य उपकरण शामिल हैं। इससे पहले भी सरकार ने तकनीक के नाम पर आइसक्रीम, जूते-चप्पल, साबुन और कपड़ों जैसे आइटमों को आरक्षण सूची से बाहर निकाला है। आप ही बताइए, इन चीज़ों को बनाने में कौन-सी उन्नत तकनीक की ज़रूरत है जो हमें विदेशी कंपनियों से लेनी पडे़गी।
आपको बता दूं कि लघु उद्योग क्षेत्र में एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) की कोई सीमा नहीं है। बस इसके एवज में उन पर कुछ सालों तक निर्यात करने की शर्त लगाई जाती है। लेकिन उनके लिए यह शर्त बेहद माफिक पड़ती है क्योंकि भारत में सस्ते श्रम और लागत की बदौलत उनका माल विदेशों में दूसरे माल को मात दे देता है। अंत में बस एक सवाल। क्या आपको नहीं लगता कि अगर हमने जातिगत आरक्षण की तरह ही करोड़ों नौकरियों से जुड़े आरक्षण के इस मसले पर हल्ला मचाया होता तो सरकार की हिम्मत आज लघु उद्योग की छोटी मछलियों को इस तरह आसानी से शार्कों के हवाले कर देने की होती?
आरक्षण के मसले का सीधा वास्ता नौकरियों से है। शिक्षा में आरक्षण भी इसीलिए चाहिए ताकि कल समाज के वंचित तबकों को सम्मानजनक नौकरियां मिल सकें। सरकारी ही नहीं, संगठित निजी क्षेत्र को भी इस सामाजिक जिम्मेदारी को उठाने से बिदकना नहीं चाहिए। लेकिन सरकारी और संगठित निजी क्षेत्र में हैं ही कितनी नौकरियां? सरकार में 30-35 लाख और निजी कंपनियों में ज्यादा से ज्यादा 25 लाख। कुल मिलाकर लगभग 60 लाख। लेकिन जो लघु उद्योग क्षेत्र इससे पांच से आठ गुना लोगों (3 से 5 करोड़) को रोज़गार देता है, उससे हमारी सरकार ने आरक्षण की सुविधा तकरीबन पूरी तरह छीन ली। उसे बड़ी व विदेशी पूंजी से मुकाबला करने के लिए रिंग में धकेल दिया। मगर अफसोस, हममें से तमाम जागरूक लोग इसे देखने के बजाय अपनी ही बहस में उलझे हुए हैं।
केंद्र सरकार ने तीन दिन पहले ही (शुक्रवार 8 फरवरी 2008) लघु उद्योग क्षेत्र के लिए आरक्षित सूची में से 79 आइटम और हटा लिए। जिस लघु उद्योग की आरक्षण सूची में कभी 873 आइटम हुआ करते थे, उसमें अब केवल 35 रह गए हैं। देश का सबसे बड़ा अंग्रेजी अखबार इसे लाइसेंस-परमिट राज के खात्मे के बचे-खुचे कदमों में शुमार कर रहा है और कह रहा है कि सरकार ने इससे ‘79 और आइटमों पर लघु उद्योग की मोनोपोली’ खत्म कर दी है। जबकि देश ही नहीं, विश्व के सबसे बड़े आर्थिक अखबार ने इस खबर को लेने तक की ज़रूरत नहीं समझी।
वैसे, केंद्र सरकार ने लघु उद्योगों से आरक्षण को हटाने का कदम बड़ा फूंक-फूंक उठाया है। 1984 में कुल आरक्षित आइटम 873 थे। 1991 में नरसिंह राव सरकार ने लघु उद्योग के आरक्षण में सेंध लगाने का फैसला कर लिया। लेकिन उसे डर था कि कहीं मंडल की तरह इस पर भी बवाल न मच जाए क्योंकि यह क्षेत्र खेती के बाद सबसे ज्यादा लोगों को रोज़गार देता है और यहां नौकरी करनेवालों में ज्यादातर पिछड़े और दलित समुदाय के ही लोग हैं। 1997 तक वह डरते-डरते लघु उद्योग के लिए आरक्षित आइटमों की सूची को 800 तक ले आई। लेकिन जब कहीं से विरोध की कोई सुगबुगाहट नहीं हुई तो साल 2002 से इस सूची को काटने का सिलसिला तेज़ हो गया। चंद सालों में ही 686 आइटम हटा दिए गए। हफ्ते भर पहले तक इस सूची में 114 आइटम बचे थे। लेकिन शुक्रवार के फैसले के बाद अब केवल 35 उत्पाद ही ऐसे हैं, जिन्हें बनाने में लघु इकाइयों को विदेशी और बड़ी पूंजी से सीधी टक्कर नहीं लेनी पड़ेगी।
सरकार इस आरक्षण को खत्म करने के लिए बड़े लोकप्रिय तर्क देती रही है। कहा गया कि देश में लघु उद्योग के उत्पादन का 60 फीसदी हिस्सा 800 आइटमों की आरक्षित सूची में से केवल 80 उत्पादों से आता है, इसलिए इतनी लंबी-चौड़ी सूची की ज़रूरत नहीं है। फिर 25 लाख, एक करोड़ और पांच करोड़ रुपए की मौजूदा निवेश सीमा में अति लघु और आधुनिक लघु इकाइयां भी उन्नत संयंत्र, मशीनरी और तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर पातीं।
तथ्य यह है कि आज की तारीख में भी देश के औद्योगिक उत्पादन का 40 फीसदी और हमारे निर्यात का 45 फीसदी हिस्सा लघु औद्योगिक इकाइयों से ही आता है। लघु उद्योग क्षेत्र में एक लाख रुपए का निवेश 4 लोगों को स्थाई नौकरी देता है। क्या बड़ी व विदेशी पूंजी इसी अनुपात में लोगों को रोज़गार दे पाएगी? रही बात तकनीक की तो सरकार ने ताज़ा फैसले में जिन आइटमों में आरक्षण खत्म किया है, उनमें स्टेशनरी और बिजली के सामान्य उपकरण शामिल हैं। इससे पहले भी सरकार ने तकनीक के नाम पर आइसक्रीम, जूते-चप्पल, साबुन और कपड़ों जैसे आइटमों को आरक्षण सूची से बाहर निकाला है। आप ही बताइए, इन चीज़ों को बनाने में कौन-सी उन्नत तकनीक की ज़रूरत है जो हमें विदेशी कंपनियों से लेनी पडे़गी।
आपको बता दूं कि लघु उद्योग क्षेत्र में एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) की कोई सीमा नहीं है। बस इसके एवज में उन पर कुछ सालों तक निर्यात करने की शर्त लगाई जाती है। लेकिन उनके लिए यह शर्त बेहद माफिक पड़ती है क्योंकि भारत में सस्ते श्रम और लागत की बदौलत उनका माल विदेशों में दूसरे माल को मात दे देता है। अंत में बस एक सवाल। क्या आपको नहीं लगता कि अगर हमने जातिगत आरक्षण की तरह ही करोड़ों नौकरियों से जुड़े आरक्षण के इस मसले पर हल्ला मचाया होता तो सरकार की हिम्मत आज लघु उद्योग की छोटी मछलियों को इस तरह आसानी से शार्कों के हवाले कर देने की होती?
Comments
करेंगे , दुबे,चौबे, सिंह,शर्मा, तिवारी , त्रिपाठी , उपाध्याय या फ़िर जिस किसी नेम सरनेम से सवर्णता का बोध होता है उसे भारत के किसी संवैधानिक पद पर बने नही रहना चाहिए .सवर्ण शब्द को शब्दकोष से हटाना है .हर अखबार ,टीवी चैनल प्रमुख सवर्ण न हो .इतने सारे इंतजाम बिना बहस के सम्भव है क्या ? की बोर्ड पिट-पिट कर जो मुझे कहना है कह रहे है .मन ही मन गाली के दायरे मे तो सभी सवर्ण आते रहते है पर डाइरेक्ट गिरफ्त मे बिना बहस का जाल फेंके कोई थोड़े न आएगा .
बाहर से समर्थन देने की ज़िद बामपंथ को अन्दर झाकने तक नही दिया ये तो सरासर अन्याय है या कि जान बूझकर अनदेखी कर गया अपने भाई लोग . हमे तो लगता है भइया ,कि सता ही सवर्ण है ,जिसको भी जिताकर
कर भेजो सवर्ण जैसा करता फिरता है . बहस हम करबे करेंगे क्योंकि उर्जा है ,शोध है , सर्वेक्षण है ,लगन है .और सबसे बड़ी बात ,अपनी बात मनवाने की जिद .और उ सब जो आप क्या -क्या सब बता रहें है , उसके लिए अलग विभाग है वो लोग देखेगा
जिन दिनों अटल सरकार मात्रात्मक प्रतिबंधों को समय सीमा से पहले तेजी से खत्म कर रही थी उन दिनों हम लोगों ने इसके खिलाफ काफी कुछ लिखा था.