अपने-अपने शून्य के सुल्तान हैं हम
हम सभी की अपनी-अपनी दुनिया है, यह कहना ठीक नहीं होगा। बल्कि यह कहना सच के ज्यादा करीब है कि हमने अपने-अपने शून्य बना रखे हैं जिसमें और कोई नहीं है तो हमारा ही राज चलता है। फर्क बस इतना है कि कुछ लोगों के शून्य साबुन या पानी के बुलबुले की तरह पारदर्शी हैं तो कुछ ने शून्य की जगह पूरी रजाई ही लपेट रखी है। पारदर्शी बुलबुलों के फूटने की पूरी गुंजाइश रहती है। ये किसी तेज़ आघात से भी टूट सकते हैं और सूई जैसी मामूली चुभन से भी। लेकिन जिन्होंने मोटी रजाई लपेट रखी है, “उन्हैं न ब्यापै जगत गति।” धमाकों की आवाज़ भी उनके शून्य के भीतर नहीं पहुंच पाती और छोटी-मोटी चुभन का तो उन्हें अहसास तक नहीं होता।
शून्य में रहते-रहते अपने खास होने के गुमान में हम इतने डूबे रहते हैं कि बाकी सभी लोगों को दो-कौड़ी का समझते हैं। खुद को सुल्तान समझते हैं और बाकी लोगों को नादान। खुद की सोच को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं और दूसरों की सोच को निकृष्ट। अपने-अपने भ्रमों से लिपटा हर कोई अपनी दुनिया में मस्त है। कभी-कभी अपने शून्य की खिड़की ज़रा-सा खोलकर शिष्टाचारवश हम हाय-हेलो कर लेते हैं, लेकिन उससे हमारे गुमान और शान पर कोई आंच नहीं आती। भ्रमों के नशे में भले ही हमारे पैर लड़खड़ाएं, लेकिन इससे संभलने के बजाय हम और भी ज्यादा तनकर चलते लगते हैं। मगर, भ्रांति तो भ्रांति ही होती है, भ्रम तो भ्रम ही होता है । कोई भ्रांति या भ्रम अनंत समय तक नहीं चल सकता। मान लीजिए, किसी दिन ये भ्रम टूट गया और पता चला कि हम औसत ही नहीं, औसत से भी निचले दर्जे के इंसान हैं तब क्या होगा?
अभी तो हम बस कहना जानते हैं। कोई सुने या न सुने, हम सुनाए चले जाते हैं, कहे चले जाते हैं। सामनेवाला हमारे लिए एक जोड़ा कान भर होता है, समूचा इंसान नहीं। हमारी हालत चुटकुलों के कवियों की तरह है जो श्रोता के हाथ आने के बाद सारी कविताएं सुना लेने से पहले नहीं छोड़ता। लेकिन किसी दिन हमारे गैस के गुब्बारे की सारी हवा निकल गई तो? किसी झटके ने हमारे शून्य में छेद कर दिया तो? किसी ने बड़ी ही बेरहमी ने हमारी रजाई छीन ली तो? हमारा स्वनिर्मित कवच उसी पल भरभराकर गिर पड़ेगा। उस दिन शायद हम खुद को औसत लोगों से भी ज्यादा दीन-हीन समझने लगेंगे। नशे की मस्ती हमें भरपूर आनंद तो देती है, लेकिन नशे के उतरने के बाद का हैंगओवर बेहद परेशान करनेवाला होता है।
और, भ्रम का टूटना, नशे का उतरना किसी भी पल हो सकता है। हो सकता है कि आप सुबह उठें, अखबार में छपा कोई सर्वे पढ़े और आपको पता चले कि आप तो सर्वे में शामिल आम लोगों जैसा ही सोचते और करते हैं। आपके उपभोग और व्यवहार में कुछ भी खास नहीं है। आप तो 38, 37 और 25 फीसदी की श्रेणियों में से किसी एक में शामिल अदने से शख्स हैं। आप सबसे अलग नहीं, सबसे जैसे ही हैं। ज़रा सोचकर देखिए कि उस पल आपको कैसा लगेगा। जब आप एक अलग शख्सियत नहीं, बल्कि एक आंकड़ा भर होंगे, तब आपको कैसा लगेगा।
असल में बाज़ार आज यही कर रहा है। इंसान को आंकड़ों में तब्दील कर रहा है। संगठित और बड़े पैमाने के उत्पादन के इस दौर में व्यक्तिगत अभिरुचियों का औसत निकालकर श्रेणियां बनाई जाती हैं। शर्ट के रंग से लेकर परदे और कमरे के पेंट के शेड तक, अचार से लेकर बर्गर के स्वाद तक हम सामान्यीकृत होते जा रहे हैं। कल को विकसित देशों की तरह हमारे यहां भी खिड़की और दरवाज़े भी एक ही आकार के मिलने लगेंगे। न एक इंच इधर, न एक इंच उधर। हमारा निजत्व, हमारा अहं तोड़ा जा रहा है। इसलिए बेहतर है कि हम खुद ही अपने हाथों अपने शून्य को तोड़कर बाहर निकल आएं। खुद को औरों से इतर नहीं, औरों जैसा ही मानकर ज़िंदगी जिएं तो शायद हमारी संवेदनाओं का दायरा ज्यादा व्यापक हो जाएगा। हमारा विचार, हमारा चिंतन और हमारी सोच तब शायद दूसरों के लिए ज्यादा प्रासंगिक हो जाएगी।
- फोटो merkley??? की
शून्य में रहते-रहते अपने खास होने के गुमान में हम इतने डूबे रहते हैं कि बाकी सभी लोगों को दो-कौड़ी का समझते हैं। खुद को सुल्तान समझते हैं और बाकी लोगों को नादान। खुद की सोच को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं और दूसरों की सोच को निकृष्ट। अपने-अपने भ्रमों से लिपटा हर कोई अपनी दुनिया में मस्त है। कभी-कभी अपने शून्य की खिड़की ज़रा-सा खोलकर शिष्टाचारवश हम हाय-हेलो कर लेते हैं, लेकिन उससे हमारे गुमान और शान पर कोई आंच नहीं आती। भ्रमों के नशे में भले ही हमारे पैर लड़खड़ाएं, लेकिन इससे संभलने के बजाय हम और भी ज्यादा तनकर चलते लगते हैं। मगर, भ्रांति तो भ्रांति ही होती है, भ्रम तो भ्रम ही होता है । कोई भ्रांति या भ्रम अनंत समय तक नहीं चल सकता। मान लीजिए, किसी दिन ये भ्रम टूट गया और पता चला कि हम औसत ही नहीं, औसत से भी निचले दर्जे के इंसान हैं तब क्या होगा?
अभी तो हम बस कहना जानते हैं। कोई सुने या न सुने, हम सुनाए चले जाते हैं, कहे चले जाते हैं। सामनेवाला हमारे लिए एक जोड़ा कान भर होता है, समूचा इंसान नहीं। हमारी हालत चुटकुलों के कवियों की तरह है जो श्रोता के हाथ आने के बाद सारी कविताएं सुना लेने से पहले नहीं छोड़ता। लेकिन किसी दिन हमारे गैस के गुब्बारे की सारी हवा निकल गई तो? किसी झटके ने हमारे शून्य में छेद कर दिया तो? किसी ने बड़ी ही बेरहमी ने हमारी रजाई छीन ली तो? हमारा स्वनिर्मित कवच उसी पल भरभराकर गिर पड़ेगा। उस दिन शायद हम खुद को औसत लोगों से भी ज्यादा दीन-हीन समझने लगेंगे। नशे की मस्ती हमें भरपूर आनंद तो देती है, लेकिन नशे के उतरने के बाद का हैंगओवर बेहद परेशान करनेवाला होता है।
और, भ्रम का टूटना, नशे का उतरना किसी भी पल हो सकता है। हो सकता है कि आप सुबह उठें, अखबार में छपा कोई सर्वे पढ़े और आपको पता चले कि आप तो सर्वे में शामिल आम लोगों जैसा ही सोचते और करते हैं। आपके उपभोग और व्यवहार में कुछ भी खास नहीं है। आप तो 38, 37 और 25 फीसदी की श्रेणियों में से किसी एक में शामिल अदने से शख्स हैं। आप सबसे अलग नहीं, सबसे जैसे ही हैं। ज़रा सोचकर देखिए कि उस पल आपको कैसा लगेगा। जब आप एक अलग शख्सियत नहीं, बल्कि एक आंकड़ा भर होंगे, तब आपको कैसा लगेगा।
असल में बाज़ार आज यही कर रहा है। इंसान को आंकड़ों में तब्दील कर रहा है। संगठित और बड़े पैमाने के उत्पादन के इस दौर में व्यक्तिगत अभिरुचियों का औसत निकालकर श्रेणियां बनाई जाती हैं। शर्ट के रंग से लेकर परदे और कमरे के पेंट के शेड तक, अचार से लेकर बर्गर के स्वाद तक हम सामान्यीकृत होते जा रहे हैं। कल को विकसित देशों की तरह हमारे यहां भी खिड़की और दरवाज़े भी एक ही आकार के मिलने लगेंगे। न एक इंच इधर, न एक इंच उधर। हमारा निजत्व, हमारा अहं तोड़ा जा रहा है। इसलिए बेहतर है कि हम खुद ही अपने हाथों अपने शून्य को तोड़कर बाहर निकल आएं। खुद को औरों से इतर नहीं, औरों जैसा ही मानकर ज़िंदगी जिएं तो शायद हमारी संवेदनाओं का दायरा ज्यादा व्यापक हो जाएगा। हमारा विचार, हमारा चिंतन और हमारी सोच तब शायद दूसरों के लिए ज्यादा प्रासंगिक हो जाएगी।
- फोटो merkley??? की
Comments
sabke beech rahkar,sab kii tarah bankar jinaa,sabke hoker jinaa...
aasan bhale na ho...lekin kitnee garima hai aise jiine mein...