एक सब-कुछिस्ट का एकालाप
जनाब, माफ कीजिए। मैं कोई ले मैन - साधारण आदमी नहीं हूं। मैं कॉलेज में प्रोफेसर हूं और घर में जनक हूं। और, थियॉसॉफिकल लॉज़ में फिलॉसफर के नाम से मशहूर हूं। और, कुछ मत पूछिए। मैं कुछ-कुछ क्रांतिकारी भी हूं और थोड़ा-सा साम्यवादी भी। कवि मैं जन्म से ही हूं। पर अब मैंने कविता लिखना छोड़ दिया है क्योंकि राजनीति के अभ्यास में दत्तचित्त हूं। मैं हमेशा मैटीरियलिस्ट हूं। घर में एथीस्ट हूं। फिलॉसॉफिकल क्लब में मैं प्रैग्मैटिस्ट हूं। इसीलिए सब-कुछिस्ट हूं। सो, साहब, मैं साधारण आदमी नहीं हूं, असाधारण हूं और साहित्य में युगधर्म का पक्षपाती हूं।
पर क्यों जी, यह तो बतलाओ कि दुनिया को जिस रूप में वह है उस रूप को अत्यंत सत्य मानते हुए मन क्यों उचट जाता है? उस माने हुए सत्य की भयंकर व्यर्थता का भान क्यों जीवन के फल को अंदर से कुरेदने लगता है? जितना अधिक, जनाब, मैं इस बात को फील करता हूं उतना ही अधिक वास्तव सत्य से चिपटकर रहता हूं। यानी जिस तरह देवदास शराब को पीकर अपने दिल के घाव को भुलाए रखता था, वैसे ही मैं भी अपने इस गहरे संताप को कतई भूल जाने के निमित्त स्वयं को विस्तृत संसार के कर्मों में लीन कर देता हूं। सांसारिक सत्यों की व्यर्थता के संताप को अपने दिल से दूर रखने की चेष्ठा किया करता हूं। क्योंकि मेरा ख्याल है कि जगत में जगत का होकर रहना चाहिए।
लेकिन यार, कोई अपने को कहां तक बचाए। वैसे तो मैं अकेला रहना बिल्कुल पसंद नहीं करता और मन को भी किसी-न-किसी काम में जुटाए रहता हूं। परंतु कभी-कभी किसी एकाध मित्र के साथ बाहर निकलना ही पड़ता है। और कभी-कभी जब इसी तरह मैं बाहर प्रकृति के आंगन में निकल पड़ता हूं अपने एकाध मित्र के साथ, तब मज़ेदार बातचीत तो एक ओर रह जाती है और मेरा मन निसर्ग सौंदर्य को देखकर अपने से ही उचट जाता है। तब कभी-कभी मैं चाहने लगता हूं कि प्रकृति की रंग-बिरंगी संवेदनाओं को अपने मन के दरवाज़े के बाहर ठेलकर फेंक दूं और हमेशा को उनके लिए दरवाज़ा बंद कर दूं। पर ये संवेदनाएं क्या कुछ कम शक्तिशाली होती हैं?
जनाब, मैंने बीए में फिलॉसफी ली थी और फर्स्ट क्लास में पास हुआ। एमए में फिलॉसफी ली और यूनिवर्सिटी में फर्स्ट क्लास फर्स्ट आया। तभी मेरा एक मित्र कहने लगा, “चश्मे के कांच से झांकती तुम्हारी आंखें अब अधिक गंभीर मालूम होने लगी हैं।” लेकिन मैं सच कहता हूं जब मैंने दिमाग से पूछा कि क्या सचमुच तुम गंभीर हो गए हो तो दिमाग से उत्तर आया, “नहीं, मैं बिल्कुल कोरा हूं, टैब्यूला रासा।”
मैं चुप रहा और मु्स्कुराते हुए लोगों के अभिवादन स्वीकार करने लगा। मैं रिसर्च स्कॉलर हो गया। “फिलॉसफर्स ने ऑन्टॉलॉजी, एपिस्टेमॉलॉजी और एक्श्यॉलॉजी में कन्फ्यूज़न कर दिया” – मैंने खोज करना आरंभ कर दिया। “शंकराचार्य का एब्सोल्यूट, हैगेल के एब्सोल्यूट से भिन्न है, हां हैं तो”…और मेरी विचारधारा चलने लगी। जब मैं डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की डिग्री लेकर यूनिवर्सिटी से गाउन पहने बाहर निकला तो पता चला कि इतने सालों की मेहनत और बुद्धि-व्यय के बाद मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ। मैंने धीरे से अपने से पूछा – कहो, भाई, अब तो तुम पढ़-लिख गए हो। और एक आवाज़ आई, “मैं बिल्कुल कोरा हूं, टैब्यूला रासा!”
मैं अपने विद्यार्थियों को मेटाफिजिक्स पढ़ाया करता हूं। लोग मेरी बहुत तारीफ करते हैं। प्रांत भर में प्रसिद्ध हूं। लेकिन जनाब, मैं आपसे सच कहना चाहता हूं कि पढ़ाते-पढ़ाते ऐसा जी होता है कि कप भर चाय पी लूं और उनसे साफ-साफ कह दूं कि मुझे कुछ नहीं आता। मुझ पर विश्वास मत करो। मेरी विद्वता इंद्रजाल है। इसके साथ फंसोगे तो जीवन भर धोखा खाओगे, और मुझे नहीं भूलोगे। ... तब मुझे ऐसा लगता है मानो मेरे दिल में खून बह रहा हो।
- सितंबर 1939 में छपी मुक्तिबोध की कहानी ‘मैं फिलॉसफर नहीं हूं’ के चुनिंदा अंश
पर क्यों जी, यह तो बतलाओ कि दुनिया को जिस रूप में वह है उस रूप को अत्यंत सत्य मानते हुए मन क्यों उचट जाता है? उस माने हुए सत्य की भयंकर व्यर्थता का भान क्यों जीवन के फल को अंदर से कुरेदने लगता है? जितना अधिक, जनाब, मैं इस बात को फील करता हूं उतना ही अधिक वास्तव सत्य से चिपटकर रहता हूं। यानी जिस तरह देवदास शराब को पीकर अपने दिल के घाव को भुलाए रखता था, वैसे ही मैं भी अपने इस गहरे संताप को कतई भूल जाने के निमित्त स्वयं को विस्तृत संसार के कर्मों में लीन कर देता हूं। सांसारिक सत्यों की व्यर्थता के संताप को अपने दिल से दूर रखने की चेष्ठा किया करता हूं। क्योंकि मेरा ख्याल है कि जगत में जगत का होकर रहना चाहिए।
लेकिन यार, कोई अपने को कहां तक बचाए। वैसे तो मैं अकेला रहना बिल्कुल पसंद नहीं करता और मन को भी किसी-न-किसी काम में जुटाए रहता हूं। परंतु कभी-कभी किसी एकाध मित्र के साथ बाहर निकलना ही पड़ता है। और कभी-कभी जब इसी तरह मैं बाहर प्रकृति के आंगन में निकल पड़ता हूं अपने एकाध मित्र के साथ, तब मज़ेदार बातचीत तो एक ओर रह जाती है और मेरा मन निसर्ग सौंदर्य को देखकर अपने से ही उचट जाता है। तब कभी-कभी मैं चाहने लगता हूं कि प्रकृति की रंग-बिरंगी संवेदनाओं को अपने मन के दरवाज़े के बाहर ठेलकर फेंक दूं और हमेशा को उनके लिए दरवाज़ा बंद कर दूं। पर ये संवेदनाएं क्या कुछ कम शक्तिशाली होती हैं?
जनाब, मैंने बीए में फिलॉसफी ली थी और फर्स्ट क्लास में पास हुआ। एमए में फिलॉसफी ली और यूनिवर्सिटी में फर्स्ट क्लास फर्स्ट आया। तभी मेरा एक मित्र कहने लगा, “चश्मे के कांच से झांकती तुम्हारी आंखें अब अधिक गंभीर मालूम होने लगी हैं।” लेकिन मैं सच कहता हूं जब मैंने दिमाग से पूछा कि क्या सचमुच तुम गंभीर हो गए हो तो दिमाग से उत्तर आया, “नहीं, मैं बिल्कुल कोरा हूं, टैब्यूला रासा।”
मैं चुप रहा और मु्स्कुराते हुए लोगों के अभिवादन स्वीकार करने लगा। मैं रिसर्च स्कॉलर हो गया। “फिलॉसफर्स ने ऑन्टॉलॉजी, एपिस्टेमॉलॉजी और एक्श्यॉलॉजी में कन्फ्यूज़न कर दिया” – मैंने खोज करना आरंभ कर दिया। “शंकराचार्य का एब्सोल्यूट, हैगेल के एब्सोल्यूट से भिन्न है, हां हैं तो”…और मेरी विचारधारा चलने लगी। जब मैं डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की डिग्री लेकर यूनिवर्सिटी से गाउन पहने बाहर निकला तो पता चला कि इतने सालों की मेहनत और बुद्धि-व्यय के बाद मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ। मैंने धीरे से अपने से पूछा – कहो, भाई, अब तो तुम पढ़-लिख गए हो। और एक आवाज़ आई, “मैं बिल्कुल कोरा हूं, टैब्यूला रासा!”
मैं अपने विद्यार्थियों को मेटाफिजिक्स पढ़ाया करता हूं। लोग मेरी बहुत तारीफ करते हैं। प्रांत भर में प्रसिद्ध हूं। लेकिन जनाब, मैं आपसे सच कहना चाहता हूं कि पढ़ाते-पढ़ाते ऐसा जी होता है कि कप भर चाय पी लूं और उनसे साफ-साफ कह दूं कि मुझे कुछ नहीं आता। मुझ पर विश्वास मत करो। मेरी विद्वता इंद्रजाल है। इसके साथ फंसोगे तो जीवन भर धोखा खाओगे, और मुझे नहीं भूलोगे। ... तब मुझे ऐसा लगता है मानो मेरे दिल में खून बह रहा हो।
- सितंबर 1939 में छपी मुक्तिबोध की कहानी ‘मैं फिलॉसफर नहीं हूं’ के चुनिंदा अंश
Comments
एक दिन मैंने देखा,
बाहर मैदान में खड़ी है एक गाय,
एकदम चुपचाप,
नहीं कर रही थी वह जुगाली भी।
यदि वह कोई व्यक्ति होता,
तो मैं कह देता,
लगता है खड़ा कोई फिलॉस्फर
:-)
घुघूती बासूती