दो दिन तक सोचता रहा कि लिखूं या न लिखूं, कहूं या न कहूं। फिर लगा कि कह ही दूं कि हिंदी ब्लॉगिंग में प्रोत्साहन के नाम पर चल रहे पुरस्कारों के इस प्रहसन को अब बंद कर देना चाहिए। पहले सृजन सम्मान के सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक ब्लॉग पुरस्कार और अब तरकश के स्वर्ण कलम पुरस्कार। वहां जिनको 65 फीसदी नंबर मिले थे, यहां उनको बमुश्किल दो फीसदी नंबर मिले। सृजन सम्मान सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक ब्लॉग का पुरस्कार था। लेकिन वहां पुरुषों की श्रेणी सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार उनको मिला, जो ब्लॉगिंग के जमे-जमाए नाम हैं और जिनको प्रोत्साहन की कोई ज़रूरत नहीं थी। महिला ब्लॉगर की श्रेणी में मिले पुरस्कार पर तो पहले ही इत्ती थुक्का-फजीहत हो चुकी है कि उस पर कुछ न कहना ही बेहतर होगा।
तरकश के स्वर्ण कलम पुरस्कार में साहित्यिक होने का कोई नुक्ता नहीं जुड़ा था। लेकिन यहां जिन दो लोगों को स्वचालित नामांकन और मतदान के जरिए स्वर्ण कलम सौंपी गई है, वे दोनों ही हिंदी युग्म से जुड़े साहित्यकार हैं, ज्यादातर कविताएं ही करते हैं। साहित्य और कविता की मुझे ज्यादा समझ नहीं है, इसलिए उनके साहित्य के स्तरीय होने या न होने की बात मैं नहीं कह सकता। लेकिन हिंदी ब्लॉग जगत में सक्रियता और पसंद को आधार बनाएं तो ये दोनों बहुतों के सामने कहीं नहीं टिकते, खासकर पुरुष ब्लॉगर का नाम तो बहुतों ने इस पुरस्कार के लिए नामांकित होने के बाद सुना। अब ये कोई प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति पद का नामांकन तो था नहीं कि अचानक कहीं से देवेगौड़ा या प्रतिभा पाटिल जैसे डार्क-हॉर्स निकलकर आ गए।
अब आप ही बताइए कि ज्यादातर ब्लॉगर जिनको जानते न हों, पढ़ते न हों, टिप्पणियों की बात छोड़ दीजिए जिनके हिट्स का औसत भी बहुत मामूली हो, जिन्होंने साल 2007 में 72 और 127 पोस्ट लिखीं हों (वो भी ज्यादातर कविताएं), उन्हें पुरस्कार मिलने के बाद लोगबाग क्यों पलकों पर बिठाएंगे? ध्यान देने योग्य मसला यह है कि इन पुरस्कारों से इन ब्लॉगर्स की सेहत और लोकप्रियता पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वो पहले जैसी ही सक्रियता से लिखते रहेंगे। उनके पढ़नेवाले भी पहले की तरह उन्हें पढ़ते ही रहेंगे। लेकिन फर्क पड़ा है उस प्रतिष्ठित संस्थान की प्रतिष्ठा पर, जिसके ज़रिए इनको पुरस्कार मिला है।
तरकश का ये स्वर्ण कलम पुरस्कार कैसे प्रहसन बन गया है, इसे आप पुरस्कारों की घोषणा वाली पोस्ट पर अनाम और सनाम में हुई तकरार से भलीभांति समझ सकते हैं। मैं चाहता तो था कि आपके मनोरंजन के लिए इस पूरी तकरार को यहां कॉपी-पेस्ट करके लगा दूं। लेकिन ऐसा करना तकनीकी रूप से संभव नहीं था। तो सनाम के पहाड़े की चंद लाइनें अर्ज़ कर रहा हूं –
ये अखाड़ा है
दकियानूसी बे-सिर पैर की बातें सिर्फ कबाड़ा हैं
क्योंकि किसी का झंडा बिना उखाड़े
अपना झंडा गाड़ा है
ये अखाड़ा है
सो दे दो लगाम मान्यवर अनाम
ये सनाम का पहाड़ा है, ये अखाड़ा है...
सनाम ने तो इसके बाद राम-राम लिख दी, लेकिन अनाम कहां चुप बैठनेवाले थे। उन्होंने कह मारा – कविता की शैली से सब पता चल रहा है कि कौन सनाम बनकर जवाब दे रहा है। खैर जो जीते हारे, हमें क्या!...सचमुच बेईमानी तेरा ही आसरा है।
मतदाता जागरूकता गीत
4 weeks ago
15 comments:
मतलब जी हम आपको जो पंगेबाज पुरुस्कार जो होली पर दिया जायेगा के लिये दौड से बाहर मान ले..? पर इसके लिये आपके द्वारा दिये गये गिफ़्ट को वापस नही दिया जायेगा...:)
हिन्दी नहीं हिन्द युग्म एक काबिले गौर प्रक्रिया है।
sahii kehaa hae aapne per kuch tips yaa suggestion dae , dono ko kii aglii baar yae kaise kiyae jaaye
assarthktaa mae saarthkataa kee khoj ho jayeegee
हम्म! बात सही है । वैसे पुरस्कारों से ब्ळोगिंग को जोडना परम्परागत साहित्य जगत वाली सारी राजनीति को ब्ळोग पर चेपने जैसा है । पुरस्कार से ऊपर की चीज़ है ब्लॉगिंग , मेरे ख्याल में । जहाँ हम हक से अपने कूडे को अपना कूडा कहते हैं ,जबरिया लिखने की प्रवृत्ति को शान मानते है कोई पढे न पढे -उसकी बला से --वहाँ औरों के हाथ मिलने वाले प्रमाण पत्र की आवश्यकता क्यों है ।
सभी विजेताओं और आयोजक मंडल को बधाई!
बाकी जो केंकड़ा मानसिकता है, उसने ने ही हिन्दी की हिन्दी कर के रखी है, अंतर्जाल कब तक अछूता रहता। ईनाम और छपास के नाम पर ऐसी छीछालेदर शायद ही किसी और भाषाजगत में दिखे। अच्छे को अच्छा नहीं कह सकते, विजेता की विजय में खोट दिखता है, मिल जाये तो उच्चतम मेडल, न मिले तो फर्जी प्रमाणपत्र। जो जीते वो बेईमान, जो हारे वो ईमानदार। फकत २००० ब्लॉग और ५०० चिट्ठाकारों की छोटी सी जमात में गोया ये आलम कि हर कोई सामने वाले को कुचल कर आगे बढ़ विजेता बनना चाहता है। घिन्न आती है ऐसी मानसिकता पर!
पर इससे मुझे एक सबक यही मिला कि इंडीब्लॉगीज़ में हिन्दी श्रेणी में आयोजन नहीं होना चाहिये और न होगा। केंकड़ों में घमासान कराने का कोई औचित्य नहीं, उम्मीद है बाकी ईनाम वाले आयोजक भी सबक लेंगे।
आपने तीर चला ही दिया.
बहुत ही गंभीर विषय पर एक अच्छा चिंतन किया आपने.
सही है ये पुरस्कार पुरस्कार न होकर एक मजाक बन गए हैं.
और इनमे सबसे ज्यादा योगदान इन्हे देने वालों का ही है.
आपसे सहमत हूँ। पर इन्हे अनदेखा कर दे। देखियेगा जैसे जैसे यह बलाग जगत बढेगा ऐसे लोग किनारे किये जाते रहेंगे। मुझे तो एक साल भी नही हुआ पर सबके चेहरे दिख गये। पहले एक एग्रीगेटर था आज देखिये कितने सारे हो गये। कल बहुत सारी सही इनाम देने वाली संस्थाए हो जायेंगी फिर इनको कौन पूछेगा। हाँ इनकी हरकतो को याद जरूर करेंगे। उस समय ये दावा करेंगे कि हम पहले थे हिन्दी ब्लाग दुनिया तब हम आप खोलेंगे इनका राज। अभी 100 अपराध तक सहते जाइये। ;)
देवाशीष की प्रतिक्रिया अपसामान्य और इण्डीबलॉगीज़ के बारे में लिया गया निर्णय अनौचित्यपूर्ण दिखाई देता है . सब धान बाईस पसेरी नहीं होता . यदि वे अपने निर्णय पर टिके रहे तो इससे 'सेल्फ़-डिफ़ीटिंग' और कुछ हो नहीं सकता .
हम एक लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं . पुरस्कार होंगे तो उन पर टीका-टिप्पणी भी होगी . आलोचना से असहिष्णुता कैसी . जो आयोजक अपने नीति-नियम यानी नीयत में ईमानदार होता है उसे विचलित नहीं होना चाहिए . और जो बेईमान या अयोग्य पुरस्कार-डीलर हैं उनके पुरस्कार का भी अन्ततः उनके लिए तो महत्व है ही जिन्हें वह मिला है .
सो मैली ही सही पुरस्कार गंगा बहती रहे .
कल को अगर साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ वोट से तय होने लगे तो वहां भी ऐसे-ऐसे नाम आएंगे कि दिमाग की हार्ड डिस्क क्रैश कर जाएगी उनके नाम पहले कभी सुने थे, यह याद करने के प्रयास में .
सो अटपटे पर प्रत्याशित परिणाम के बावजूद न आयोजक दोषी हैं, न प्राप्त करने वाले . आखिर इतने लोगों को जोड़ा और मोबिलाइज़ किया यह क्या कम है . हिंद-युग्म एक फिनोमिना है उसका सम्यक अध्ययन होना चाहिए .
हम सभी हिन्द-युग्म के सदस्य, हिन्दीकर्मी अपने अभियान को क्रांति के रूप में लेते रहे हैं, वो बात अलग है कि या तो सम्पूर्ण चिट्ठाजगत इसे हाशिये पर रखता है या खुद को।
तमाम गोष्ठियों के बाद भी ज्यादातर ब्लॉगर यह नहीं समझ पाये हैं कि पाठक पैदा करने की ज़रूरत है। हिन्द-युग्म ने इसीलिए 'हिन्द-युग्म यूनिकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता' का मासिक आयोजन करता रहा है। हिन्द-युग्म ने अब तक इसके १३ मासिक आयोजन किये हैं। और इसे दूरगामी परिणामों से चिट्ठाजगत को मात्र इसलिए परिचित कराता रहा है ताकि सभी कुछ न कुछ आयोजित करके हिन्दी पाठकों की जमात खड़ी कर सके। लेकिन अफसोस यह कि लोगों ने नज़रअंदाज़ करने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया।
हिन्द-युग्म विश्व पुस्तक मेला २००८ में इसी उद्देश्य के साथ शिरकत कर रहा है। मेरी चिट्ठाकार जगत पर काफी समय से नज़र है, ऐसे में यही कहूँगा कि एक-दूसरे के बारे में लिखने की जगह पाठक पैदा करने के बारे में सोचिए।
पुस्तक मेले में हिन्द-युग्म की भागीदारी से संबंधित सूचना का लिंक यहाँ है।
चिट्ठा जगत के मित्रो
शैलेश भारतवासी जी की बातों गौर कीजिये और एक दूसरे की नेकर उतारने की बजाये आपस में हाथ मिला कर कुछ कर दिखाने का संकल्प कीजिये..
यहां सब बराबर हैं... स्वर्ण कलम से भी ज्यादा अच्छी रचनायें साधारण कलम से लिखी जा सकती हैं...
और आलोक पुराणिक जी की बात मुझे बहुत जंची की यह रजना जगत भी एक बाजार की तरह है.. जो ज्यादा पब्लिसिटी करेगा वह ज्यादा बिकेगा... गुणवत्ता बिक्री के लिये कोई कसोटी नहीं है.
पुस्तक मेले के दौरान आप सभी मित्र हिन्द युग्म के स्टाल पर सादर आम्नत्रित हैं.
अनाम -सनाम दोनो को पढ़ा । कुछ ना कुछ दोनो ही सच जरूर कह रहे होंगे किन्तु मुझे लगता है कि यहाँ अवसर तरकष की ओर से ही दिया हुआ है । वोट करने का अधिकार ब्लाग वालों को ही दिया जाना चाहिए था । और अवसर सबके लिए बराबर था । खैर अब चर्चा करने से क्या लाभ ? जो जीता वो सिकन्दर । ः) खुश रहिए और खुशी फैलाइए ।
मेरे हिसाब से मत प्रक्रिया सर्वाधिक प्रचलित व
विस्वसनीय चुनावी प्रक्रिया है, बड़े बड़े लोक-तंत्र इसी प्रक्रिया से चलते हैं. वास्तव में निष्पक्ष प्रक्रिया अगर सहर्ष सभी को स्वीकार्य हो तो प्रोत्साहन कभी भी प्रहसन नही बने.. प्रहसन मात्र और मात्र उसी वस्तुस्थिति में बनता है जब विचार संकीर्ण हो जाते हैं और रही बात प्रोत्साहन व पुरस्कार बन्द करने की तो मैं व्यक्तिगत तौर पर इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ क्यूँकि प्रोत्साहन और पुरस्कारों की परिपाटी आज की नही हैं, और
रही बात किसी के सर्वश्रेष्ठ होने ना होने की तो
ये तभी सामने आता है जब मतदान जैसी किसी
प्रक्रिया से गुजरा जाता है और मतदान मतदान
होता है भले भी वो किसी प्रधानमंत्री के लिये हो
या राष्ट्र्पति के लिये अब आप ही बताइयेगा श्री मनमोहन सिंह जी ने कितने चुनाव लड़े पदारूढ़ होने से पहले उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल का नाम कितने लोग जानते थे कुछ दिन पहले तक
और ध्यान देने वाली बात ये भी है कि पुरस्कार
किसी के सेहत पर फर्क डालने के लिये नहीं होते
ये मात्र लिखने व पढ़ने वालों को होसला देने हेतु
ही होते है और कोई भी प्रतिष्ठित संस्था या
संस्थान इतना कालीदास नहीं है आज के वक्त में
अगर ऐसा होता तो प्रतिष्ठित शब्द से बहुत दूर
होता..
अंत में यही कहना चाहुगा कि रुस्तम बहुत हैं
कुछ सोहराब से लड़ना नही चाहते क्यूँकि खून
एक ही है.. सामने वाले की विजय में विजय
मनाना सीखें तो खुशी खुद-ब-ख़ुद अंतर में
दौड़ेगी..
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