पागल बोलते हैं तो गरियाने क्यों लगते हैं?
उसे अभी तक मैंने बोलते हुए नहीं देखा था। ऑफिस आते-जाते फुटपाथ पर वह रोज़ ही दिख जाता है। जटा-जूट जैसे बाल, बेतरतीब दाढ़ी, गंदे बास मारते कपड़े। अभी तक जब भी देखा तब या तो सोया हुआ रहता या बैठकर अपने-आप से बड़-बड़ कर रहा होता था। लेकिन कल ऑफिस से जल्दी निकलकर लोकल ट्रेन पकड़ने स्टेशन की तरफ जा रहा था तो देखा कि वह खड़ा होकर हाथ हिला-हिलाकर गालियां दे रहा है, वह भी मां-बहन की। कोई उसकी गालियों पर गौर नहीं कर रहा था। लोग एक आंख उठाकर देखते और आगे बढ़ जाते। मैंने भी ऐसा ही किया। लेकिन चलते-चलते सोचने लगा कि सालों से अपना संतुलन खो चुका यह अधेड़ शख्स किसे और क्यों गालियां दे रहा है? इसके मन में कौन-सी छवि अटक कर रह गई है जिसके लिए इसके मुंह से मां-बहन की गालियां निकल रही हैं?
एक और वाकया याद आ गया। लोकल ट्रेन में एक शराबी बूढ़ा गेट के पास किनारे खड़ा सामने देखकर गालियां दे रहा था। बीच के स्टेशन पर एक विद्यार्थी जोड़ा आकर किनारे खड़ा हो गया। बूढ़े को होश नहीं था, लेकिन वह ऊपर नीचे देखकर गालियां दिए जा रहा था। अचानक दो-तीन मिनट बाद क्या हुआ कि लड़के ने ताबड़तोड़ उसे लात-घूसों से मारना शुरू कर दिया। लड़की ने कहा – जाने दो। दूसरे लोगों ने भी कहा – शराबी है, जाने दो। लेकिन लड़का नहीं माना। बूढ़े को इतना मारा कि उसके मुंह से खून निकलने लगा। अगले स्टेशन पर वह जोड़ा उतर गया। लेकिन बूढ़ा कुर्ते की बांह से मुंह पोंछकर फिर किसी अनाम शख्स को धाराप्रवाह गालियां देने लगा। मैं सोचने लगा कि नशा छाते ही लोगों की कौन-सी गांठ खुल जाती है कि वो गरियाने पर उतर आते हैं?
आखिर वह कौन-सा दबा हुआ गुस्सा है जो नशे या पागलपन की हालत में दिमाग पर नियंत्रण खत्म होते ही जुबान से गालियां बनकर फूट निकलता है? मैंने आज तक किसी अमीर नशेड़ी या पागल को उन्माद में गालियां देते हुए नहीं सुना है। गरीब और औसत घरों के लोग ही ऐसी हरकत करते हैं। क्यों करते हैं? क्या पता? असली वजह तो हर किसी की अंतर्कथा जानकर ही पता लग सकती है। सामान्यीकृत वजह कोई मनोचिकित्सक ही बता सकता है। और, मैं न तो मनोचिकित्सक हूं और न ही मनोविज्ञान का क-ख-ग मुझे पता है। हां, पागल हो जाने का डर कई महीनों तक मैंने ज़रूर झेला है।
हुआ यह कि तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी सेंकड इयर का छात्र था। हॉस्टल के मेरे एक सहपाठी उपधिया जी ने मेरा हाथ देखा और बोले कि तुम्हारे मस्तिष्क की रेखा जिस तरह नीचे की तरफ गई है उससे तुम निश्चित रूप से पागल हो जाओगे। मैंने उस समय तो उसकी भविष्यवाणी को बाल झटककर खारिज कर दिया। लेकिन मन ही मन परेशान हो गया। बस यही सोचता रहता कि पागल हो जाने पर मैं क्या बड़-बड़ करूंगा। कहीं ऐसा न हो कि एब्सट्रैक्ट एलजेबरा के एक्ज़ियोम्स बोलने लग जाऊं या विवेकानंद की तरह सीने पर हाथ बांधकर भाषण करने लग जाऊं क्योंकि इन दोनों ही चीज़ों ने उन दिनों मुझे बहुत आक्रांत कर रखा था।
खैर, मैं कई महीनों तक जब पागल नहीं हुआ तो मैंने उपधिया जी को भरपूर जी भर कर गरियाया। लेकिन तभी हॉस्टल में मैंने एक दूसरा जादू फैला दिया। मैंने स्कूल में लोगों को प्लैनचेट बुलाते हुए देखा था और सीखा भी था। तो हॉस्टल में भी यह करामात दिखाने लगा। इसका खूब प्रचार हुआ। सिक्के में आत्माएं आने लगीं। मेरे शागिर्दों का भी दायरा बढ़ने लगा। फिर इन्हीं शागिर्दों में से कुछ खुद ही गुरु बन गए। इनमें एक जज साहब के बेटे थे। एक दिन कागज़ पर सिक्का चलते ही उनको इलहाम हुआ कि सिक्के में उनकी माता या दादी जी आ गई हैं और उनकी तबीयत खराब हो गई। एक दूसरे पढ़ने में धुरंधर शख्स थे पहाड़ के रहनेवाले अशोक ओली।
ओली ने कुछ दिन तक आत्मा बुलाने के बाद ऐलान किया कि उनमें अद्भुत शक्तियां आ गई हैं। एक दिन उन्होंने हॉस्टल के कॉरिडोर में बुलाकर मुझसे कहा कि सामने छत के छज्जे पर जो कौए बैठे हैं, वो उनके कहने पर उड़ जाएंगे। कौए उड़ गए तो उन्होंने कहा कि ऐसा उनके मन ही मन कहने पर ही हुआ है। इस घटना के करीब हफ्ते भर बाद पता चला कि अशोक ओली पागल हो गए हैं और लोगों से घूम-घूमकर कह रहे हैं कि वो अभी-अभी कैलाश पर्वत से आ रहे हैं और शंकर को खदेड़कर उन्होंने पार्वती को पटा लिया है। और यह भी कि इंदिरा गांधी से उनके शारीरिक संबंध रहे हैं।
इसके अलावा भी मैंने अब तक की ज़िंदगी में काफी पागल देखे हैं। एक पागल का किस्सा तो ऐसा है कि उस पर पूरी कहानी लिखी जा सकती है। वह प्रेमी किस्म का पागल था और पागलपन में उनकी बॉटनी की टीचर उसे पायल बजाकर बुलाती थीं। जो लोग क्रोमोज़ोम्स के असंतुलन से पैदाइशी पागल होते हैं, उनकी बात अलग है। लेकिन जो अच्छे-खासे होते हुए भी पागल हो जाते हैं, उनके पागल होने की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक वजह मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं। हां, मुझे इतना ज़रूर पता चल गया है कि पागल अनायास अनर्गल गालियां देते हैं। और इसका उल्टा भी सच है कि जो लोग अनायास ही अनर्गल मां-बहन की गालियां देते हैं, उनमें पागलपन का कुछ न कुछ अंश ज़रूर होता है।
एक और वाकया याद आ गया। लोकल ट्रेन में एक शराबी बूढ़ा गेट के पास किनारे खड़ा सामने देखकर गालियां दे रहा था। बीच के स्टेशन पर एक विद्यार्थी जोड़ा आकर किनारे खड़ा हो गया। बूढ़े को होश नहीं था, लेकिन वह ऊपर नीचे देखकर गालियां दिए जा रहा था। अचानक दो-तीन मिनट बाद क्या हुआ कि लड़के ने ताबड़तोड़ उसे लात-घूसों से मारना शुरू कर दिया। लड़की ने कहा – जाने दो। दूसरे लोगों ने भी कहा – शराबी है, जाने दो। लेकिन लड़का नहीं माना। बूढ़े को इतना मारा कि उसके मुंह से खून निकलने लगा। अगले स्टेशन पर वह जोड़ा उतर गया। लेकिन बूढ़ा कुर्ते की बांह से मुंह पोंछकर फिर किसी अनाम शख्स को धाराप्रवाह गालियां देने लगा। मैं सोचने लगा कि नशा छाते ही लोगों की कौन-सी गांठ खुल जाती है कि वो गरियाने पर उतर आते हैं?
आखिर वह कौन-सा दबा हुआ गुस्सा है जो नशे या पागलपन की हालत में दिमाग पर नियंत्रण खत्म होते ही जुबान से गालियां बनकर फूट निकलता है? मैंने आज तक किसी अमीर नशेड़ी या पागल को उन्माद में गालियां देते हुए नहीं सुना है। गरीब और औसत घरों के लोग ही ऐसी हरकत करते हैं। क्यों करते हैं? क्या पता? असली वजह तो हर किसी की अंतर्कथा जानकर ही पता लग सकती है। सामान्यीकृत वजह कोई मनोचिकित्सक ही बता सकता है। और, मैं न तो मनोचिकित्सक हूं और न ही मनोविज्ञान का क-ख-ग मुझे पता है। हां, पागल हो जाने का डर कई महीनों तक मैंने ज़रूर झेला है।
हुआ यह कि तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी सेंकड इयर का छात्र था। हॉस्टल के मेरे एक सहपाठी उपधिया जी ने मेरा हाथ देखा और बोले कि तुम्हारे मस्तिष्क की रेखा जिस तरह नीचे की तरफ गई है उससे तुम निश्चित रूप से पागल हो जाओगे। मैंने उस समय तो उसकी भविष्यवाणी को बाल झटककर खारिज कर दिया। लेकिन मन ही मन परेशान हो गया। बस यही सोचता रहता कि पागल हो जाने पर मैं क्या बड़-बड़ करूंगा। कहीं ऐसा न हो कि एब्सट्रैक्ट एलजेबरा के एक्ज़ियोम्स बोलने लग जाऊं या विवेकानंद की तरह सीने पर हाथ बांधकर भाषण करने लग जाऊं क्योंकि इन दोनों ही चीज़ों ने उन दिनों मुझे बहुत आक्रांत कर रखा था।
खैर, मैं कई महीनों तक जब पागल नहीं हुआ तो मैंने उपधिया जी को भरपूर जी भर कर गरियाया। लेकिन तभी हॉस्टल में मैंने एक दूसरा जादू फैला दिया। मैंने स्कूल में लोगों को प्लैनचेट बुलाते हुए देखा था और सीखा भी था। तो हॉस्टल में भी यह करामात दिखाने लगा। इसका खूब प्रचार हुआ। सिक्के में आत्माएं आने लगीं। मेरे शागिर्दों का भी दायरा बढ़ने लगा। फिर इन्हीं शागिर्दों में से कुछ खुद ही गुरु बन गए। इनमें एक जज साहब के बेटे थे। एक दिन कागज़ पर सिक्का चलते ही उनको इलहाम हुआ कि सिक्के में उनकी माता या दादी जी आ गई हैं और उनकी तबीयत खराब हो गई। एक दूसरे पढ़ने में धुरंधर शख्स थे पहाड़ के रहनेवाले अशोक ओली।
ओली ने कुछ दिन तक आत्मा बुलाने के बाद ऐलान किया कि उनमें अद्भुत शक्तियां आ गई हैं। एक दिन उन्होंने हॉस्टल के कॉरिडोर में बुलाकर मुझसे कहा कि सामने छत के छज्जे पर जो कौए बैठे हैं, वो उनके कहने पर उड़ जाएंगे। कौए उड़ गए तो उन्होंने कहा कि ऐसा उनके मन ही मन कहने पर ही हुआ है। इस घटना के करीब हफ्ते भर बाद पता चला कि अशोक ओली पागल हो गए हैं और लोगों से घूम-घूमकर कह रहे हैं कि वो अभी-अभी कैलाश पर्वत से आ रहे हैं और शंकर को खदेड़कर उन्होंने पार्वती को पटा लिया है। और यह भी कि इंदिरा गांधी से उनके शारीरिक संबंध रहे हैं।
इसके अलावा भी मैंने अब तक की ज़िंदगी में काफी पागल देखे हैं। एक पागल का किस्सा तो ऐसा है कि उस पर पूरी कहानी लिखी जा सकती है। वह प्रेमी किस्म का पागल था और पागलपन में उनकी बॉटनी की टीचर उसे पायल बजाकर बुलाती थीं। जो लोग क्रोमोज़ोम्स के असंतुलन से पैदाइशी पागल होते हैं, उनकी बात अलग है। लेकिन जो अच्छे-खासे होते हुए भी पागल हो जाते हैं, उनके पागल होने की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक वजह मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं। हां, मुझे इतना ज़रूर पता चल गया है कि पागल अनायास अनर्गल गालियां देते हैं। और इसका उल्टा भी सच है कि जो लोग अनायास ही अनर्गल मां-बहन की गालियां देते हैं, उनमें पागलपन का कुछ न कुछ अंश ज़रूर होता है।
Comments
लिखा और गाया है,जिनका गीत आमि तोमा के चाई..गाया है,पर एक बात और समझने की है कि जब हमारे यहां कोई पागल होता है तो बहुत अंगरेजी बोलने लग जाते हैं तब ये बताएं इंग्लैन्ड मे ऐसी स्थिति मे कौन सी भाषा बोलते होंगे?
पर जो सुमन का गीत है... पागल... सांप लूडो खेल्छे विधातार शोंघे.... कहीं मिले तो ज़रूर सुनियेगा,
नीरज
मैं इस बात से सहमत नही हूँ. क्योंकि मैंने ऐसा देखा है. बहुत बार देखा है.
"जो लोग अनायास ही अनर्गल मां-बहन की गालियां देते हैं, उनमें पागलपन का कुछ न कुछ अंश ज़रूर होता है।"
इस बात से मैं पूर्णरूप से सहमत हूँ.
लेकिन पागलपन के ऊपर लिखा आपका ये लेख पढ़ लगता हैं मुझ पर भी कुछ असर होने लगा है.
देखते हैं ये असर kanha तक लेकर जाता है.
@ज्ञान दद्दा, ये आपकी टिप्पणी उल्टी क्यों दिखाई दे रही है मुझे ;)