हम ब्लॉगर साहित्य से बहिष्कृत हैं क्या?
जब से दिल्ली से लौटकर आया हूं, यह सवाल रह-रहकर मन में कील की तरह चुभ रहा है। लगता है कि जैसे हिंदी के हम ब्लॉगर कोई दलित हों, जिसे मंदिर के दरवाज़े से बाहर धकेल दिया गया हो। हुआ यह कि दिल्ली रहने के दौरान अपनी व्यस्तता के बीच से थोड़ा समय निकालकर मैं अपने एक परिचित साहित्कार-पत्रकार से मिलने उनके घर चला गया। वे एक न्यूज़ चैनल में न्यूज के एडिटर हैं। अब चूंकि वे भी ब्लॉगिंग करते हैं और एक नहीं, दो-दो ब्लॉग लिखते-लिखाते हैं, इसलिए न्यूज़ चैनलों की बात करने के बाद उनसे चलते-चलते मैंने हिंदी ब्लॉगिंग पर राय पूछ डाली तो उनका कहना था – जो लोग साहित्य में कुछ नहीं कर पाए या नहीं कर सकते, वही लोग अब ब्लॉगिंग कर रहे हैं। इनमें से गिने-चुने लोग ही काम का लिखते हैं, बाकी तो अखबार में छपने लायक भी नहीं लिखते। मैं यह सुनने के बाद इतना सकपका गया कि अपने ब्लॉग के बारे में उनकी राय पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई।
इसके बाद अगले दिन न्यूज़ चैनल के दफ्तर में दूसरे ब्लॉगर मिल गए। उनसे मैंने कहा कि आप थोड़ा कठिन और लंबा लिखते हैं। निर्वैयक्तिक-सा लिखते हैं। पढ़ने वाले को दिक्कत होती है और वह आपके लिखे से खुद को जोड़ नहीं पाता। बोले, “मैं लोगों के लिए अपना स्तर तो नहीं गिरा सकता? वैसे भी मैं मुख्यत: स्थापित अखबारों के लिए लिखता हूं और मुझे ब्लॉग पर भी ऐसा ही लिखना है।” मुझे उनकी सोच से भी हल्का-सा आघात लगा। मुझे लगा कि इनको कोई सलाह देना ही बेकार है और चुप हो गया, इधर-उधर की दूसरी बातें करने लगा।
एक तीसरे मित्र की बात आपने शिल्पी जी के जरिए सुनी ही होगी, जिनकी राय में, “ब्लॉग एक सेफ्टी वॉल्व की तरह मन की बेचैनी, तड़प, सवाल और चिंताओं को भाप बनाकर रोज निकाल बाहर कर देता है और इस तरह से उन परिस्थितियों के संघनित होने की संभावना भी धूमिल पड़ जाती है जो शायद किसी दिन एक बड़े परिवर्तन की प्रेरणा बनकर ब्लॉगर के व्यक्तित्व को पूरी तरह बदल सकती है।”
साहित्यकार और पत्रकार मित्रों की इन बातों से और कुछ हुआ हो या न हो, मेरे अवचेतन में एक हीनता-बोध भर गया। लेकिन अंदर ही अंदर मैं इससे लगातार लड़ता रहा और हीनता-बोध को श्रेष्ठता-बोध में बदलने के तर्क ढूंढता रहा। पहली बात तो मैंने यह ढूंढ निकाली कि साहित्यकारों की दुनिया से जो जितना दूर है और ज़िंदगी से जितना करीब है, वह उतना ही अच्छा साहित्य लिख सकता है। यह बात मैंने मुक्तिबोध के किसी लेख में सालों पहले पढ़ी थी। मुझे यह भी लगता है कि हम साहित्य के आभिजात्य हलके से भले ही बेदखल हों, लेकिन हम हिंदी ब्लॉगर उसी तरह साहित्य का लोकतंत्रीकरण कर रहे हैं, जिस तरह बाबा रामदेव ने योग-विद्या का किया है।
दूसरी बात, ब्लॉगिंग की दुनिया उनके लिए है जिनको कोई अभाव सालता है, निस्संगता काट खाने को दौड़ती है और जो अपने होने का सामाजिक विस्तार चाहते हैं, अपने जैसे बहुत से लोगों से जुड़ना चाहते हैं। यह दुनिया उनके लिए है जो अपनी अधकचरी बातों को, सघन अनुभवों को, अपरिष्कृत अनुभूतियों को दूसरों के साथ बांटना चाहते हैं। ब्लॉगिंग उनके लिए कतई नहीं हो सकती है जो एकतरफा प्रवचन करना चाहते हैं, जो खुद को सारी दुनिया से न्यारा समझते हैं, श्रेष्ठ मानते हैं।
तीसरी बात है एक संभावना जो मुझे ब्लॉगिंग के ज़रिए पूरी होती दिख रही है। हिंदी समाज के सैकड़ों लोगों के अनुभवों को अगर किसी ने संपादित करके एक साथ किसी उपन्यास की शक्ल दे दी, तो उसकी पहुंच एक साथ लाखों लोगों तक हो सकती है क्योंकि अलग-अलग रेखाएं जब घिसकर किसी बिंदु की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं तो वह बिंदु किसी भी संरचना का हिस्सा बन सकता है, किसी भी बुनावट के व्यक्ति को अपना लग सकता है। ऐसी रचना से एक कालखंड में जी रहे तमाम लोगों का तादात्म्य बन सकता है।
साहित्य का आभिजात्यीकरण मुर्दाबाद, साहित्य और जीवन का लोकतंत्रीकरण ज़िंदाबाद, हिंदी ब्लॉगिंग जिंदाबाद!!!
इसके बाद अगले दिन न्यूज़ चैनल के दफ्तर में दूसरे ब्लॉगर मिल गए। उनसे मैंने कहा कि आप थोड़ा कठिन और लंबा लिखते हैं। निर्वैयक्तिक-सा लिखते हैं। पढ़ने वाले को दिक्कत होती है और वह आपके लिखे से खुद को जोड़ नहीं पाता। बोले, “मैं लोगों के लिए अपना स्तर तो नहीं गिरा सकता? वैसे भी मैं मुख्यत: स्थापित अखबारों के लिए लिखता हूं और मुझे ब्लॉग पर भी ऐसा ही लिखना है।” मुझे उनकी सोच से भी हल्का-सा आघात लगा। मुझे लगा कि इनको कोई सलाह देना ही बेकार है और चुप हो गया, इधर-उधर की दूसरी बातें करने लगा।
एक तीसरे मित्र की बात आपने शिल्पी जी के जरिए सुनी ही होगी, जिनकी राय में, “ब्लॉग एक सेफ्टी वॉल्व की तरह मन की बेचैनी, तड़प, सवाल और चिंताओं को भाप बनाकर रोज निकाल बाहर कर देता है और इस तरह से उन परिस्थितियों के संघनित होने की संभावना भी धूमिल पड़ जाती है जो शायद किसी दिन एक बड़े परिवर्तन की प्रेरणा बनकर ब्लॉगर के व्यक्तित्व को पूरी तरह बदल सकती है।”
साहित्यकार और पत्रकार मित्रों की इन बातों से और कुछ हुआ हो या न हो, मेरे अवचेतन में एक हीनता-बोध भर गया। लेकिन अंदर ही अंदर मैं इससे लगातार लड़ता रहा और हीनता-बोध को श्रेष्ठता-बोध में बदलने के तर्क ढूंढता रहा। पहली बात तो मैंने यह ढूंढ निकाली कि साहित्यकारों की दुनिया से जो जितना दूर है और ज़िंदगी से जितना करीब है, वह उतना ही अच्छा साहित्य लिख सकता है। यह बात मैंने मुक्तिबोध के किसी लेख में सालों पहले पढ़ी थी। मुझे यह भी लगता है कि हम साहित्य के आभिजात्य हलके से भले ही बेदखल हों, लेकिन हम हिंदी ब्लॉगर उसी तरह साहित्य का लोकतंत्रीकरण कर रहे हैं, जिस तरह बाबा रामदेव ने योग-विद्या का किया है।
दूसरी बात, ब्लॉगिंग की दुनिया उनके लिए है जिनको कोई अभाव सालता है, निस्संगता काट खाने को दौड़ती है और जो अपने होने का सामाजिक विस्तार चाहते हैं, अपने जैसे बहुत से लोगों से जुड़ना चाहते हैं। यह दुनिया उनके लिए है जो अपनी अधकचरी बातों को, सघन अनुभवों को, अपरिष्कृत अनुभूतियों को दूसरों के साथ बांटना चाहते हैं। ब्लॉगिंग उनके लिए कतई नहीं हो सकती है जो एकतरफा प्रवचन करना चाहते हैं, जो खुद को सारी दुनिया से न्यारा समझते हैं, श्रेष्ठ मानते हैं।
तीसरी बात है एक संभावना जो मुझे ब्लॉगिंग के ज़रिए पूरी होती दिख रही है। हिंदी समाज के सैकड़ों लोगों के अनुभवों को अगर किसी ने संपादित करके एक साथ किसी उपन्यास की शक्ल दे दी, तो उसकी पहुंच एक साथ लाखों लोगों तक हो सकती है क्योंकि अलग-अलग रेखाएं जब घिसकर किसी बिंदु की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं तो वह बिंदु किसी भी संरचना का हिस्सा बन सकता है, किसी भी बुनावट के व्यक्ति को अपना लग सकता है। ऐसी रचना से एक कालखंड में जी रहे तमाम लोगों का तादात्म्य बन सकता है।
साहित्य का आभिजात्यीकरण मुर्दाबाद, साहित्य और जीवन का लोकतंत्रीकरण ज़िंदाबाद, हिंदी ब्लॉगिंग जिंदाबाद!!!
Comments
हिन्दी मे लिखने वाले अभिजत्य सहित्यकारो का मानसिक दिवालियापन किसी से छुपा नही है. कोइ भी होशियार विधारिथी कभी हिन्दी साहित्यकार बनने नही जाता. और हिन्दी सहित्यकारो मे विविध अनुभव का, विश्लेशण का बहुत दारिद्र्या है.
पिछ्ले दो दशक मे हिन्दी मे एक भी ऐसी किताब नही लिखी गयी है, जिसमे कुछ नया हो, कल्पनाशीलता हो, नये प्रयोग हो, और जो याद करने लायक हो, संजोने के लायक हो.
ले दे कर प्रभा खेतान की छिन्न्मस्ता, को छोड्कर मुझे कोइ दूसरी किताब का ध्यान नही आता.
बाकी कितनी ही कहानिया, उपन्यास आये, और वो सिर्फ योन सम्बन्धो और स्त्री शरीर की बनावट का बखान भर है.
मराठी मे फिर भी "अक्करमासी" जैसी दलित चेतना वाली किताब आयी, नये सवालो के साथ. अंग्रेज़ी मे अरुनधति राय की "god of small things" और पंकज मिस्रा का "Romantics"
जैसी रचनाये आयी. अप्रवासी भारतीयो की लिखी कुछ किताबे जैसे ज़ुम्पा लहरी की किताब या फिर "पास्पोर्ट फोटोस" भी चर्चित रही.
ये मेरा अग्यान भी हो सकता है, पर कोइ मुझे गिनती की ही सही कुछ अच्छी हिन्दी किताबो के नाम बताये?
ब्लोग्गिंग के ज़रिये हिन्दी सहित्यकारो के अलावा अन्य क्षेत्रो के लोग अलग-अलग तरह का ग्यान लेकर हिन्दी मे लेकर आयेंगे, और इसे सम्रिद्ध करेंगे, ऐसा मेरा मानना है. हिन्दी की जड्ता ऐसे ही टूटेगी. और विभिन्न क्षेत्रो से आने वाले ब्लोगेर्स, बिना किसी अखाडेबाज़ी के, बिना किसी सोची समझी रज्नैतिक प्रतिबद्ध्ता के, हिन्दी मे लिखेंगे, शायद बिना किसी अपेक्षा के भी.
साहित्य और जीवन का लोकतंत्रीकरण ज़िंदाबाद, हिंदी ब्लॉगिंग जिंदाबाद!!!
लेख के अंत में जो आह्वान आपने दिया है उसका अनुमोदन करता हूं -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
हर महीने कम से कम एक हिन्दी पुस्तक खरीदें !
मैं और आप नहीं तो क्या विदेशी लोग हिन्दी
लेखकों को प्रोत्साहन देंगे ??
शब्दों और भाषा के प्रतिबंध से ऊपर विचार का आदान प्रदान करने का एक तेज़, प्रभावी और उनमुक्त ज़रिया।
हिन्दी ब्लॉगों को आम जन पढ़ते हैं, और वो दिन दूर नहीं, जब एक-एक ब्लॉग के दसियों लाख पाठक होंगे. और, तब हिन्दी ब्लॉगों को नकारने वालों को अपना थूका चाटना पड़ेगा. पर, ये बात भी सच है कि ब्लॉगों में अभी कूड़ा ज्यादा नजर आता है. और कूड़े का अनुपात सदैव ही अस्सी प्रतिशत रहेगा (ये तो साहित्यिक पत्रिकाओं में भी है,) तथा पाठकों को बाकी के बीस प्रतिशत में से ही मनपसंद सामग्री ढूंढनी होगी.
रविरतलामी जी से सहमत!!
पर वह मुख्यधारा है कहां ? और अगर वह इतनी ही मुख्य है तो उसकी 'विज़बिलिटी' इतनी कम क्यों है ?
मुझे तो मुख्यधारा के कई चौधरियों से ब्लॉग जगत पर शौकिया या गम्भीर दोनों ही तरह का लेखन करने वाले खांचा भर ब्लॉगर मित्र ज्यादा सरस और सच्चे लेखक लगते हैं .
स्वप्नदर्शी जी को अच्छी हिंदी किताबों की एक लिस्ट अवश्य पठाई जाए .
मैं तो बरसों पहले ( नाम नहीं लूंगा )दिल्ली के उस रैकेट से नफरत करता हूं जो तमाम अकादमियों पर काबिज है, प्रकाशकों पर आयातित विचारधारा की सम्मोहिनी डाले हुए है। राज्यों में आईएएस लॉबी से गठजोड़ कर सरकारी खरीद के जरिये अपनी पुस्तकें बिकवाने की जुगत में रहते हुए प्रकाशकों का वित्त पोषण करता है। इसमें कुछ नाम वे भी हैं जो इन दिनों ब्लागर लेन में भी टहल रहे हैं। और आपके ही मित्र अपने ब्लागरोल में इन्हें जगह दिए हुए हैं।
सही बात , अच्ची बात की बदाई एक बार फिर
जो जन की भाषा है वही साहित्य है और हम उसी मुख्यधारा में है हंस वाले गंगा नहीं हैं और ब्लाग वाले सिवर के नाले नहीं हैं ।
जिंदाबाद जिंदाबाद
कई हजार वर्ष पुरानी साहित्य की विधा और कई सौ वर्ष पुरानी पत्रकारिता की विधा से महज पांच वर्ष पुरानी चिट्ठाकारी की विधा की कोई तुलना नहीं हो सकती। इस नए माध्यम की अपनी प्रकृति है, और उसके अनुरूप हमारे बहुत से चिट्ठाकार अच्छा लिख रहे हैं और उनके लेखन में निरंतर निखार भी आ रहा है। साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र के विकास में बड़े संस्थानों, कंपनियों या सरकार की भूमिका है, जबकि ब्लॉगिंग एकल व्यक्तियों के निजी प्रयास और साधन से संचालित है।
सबसे खास बात यह कि जिस तरह की सुखद और सृजनात्मक अनुभूति आपको स्वयं कोई गीत गुनगुनाकर या चित्र बनाकर या कुछ लिखकर होती है, वह आपको दुनिया के महान चित्रकारों के चित्र निहारकर, महान संगीतकारों के संगीत सुनकर या महान साहित्यकारों का साहित्य पढ़कर नहीं होती। इंसान खुद अपने सृजनात्मक कार्यों के द्वारा जितना बदलता है, उतना बाहर के सृजनात्मक उद्दीपनों से नहीं बदल पाता। हममें से कई चिट्ठाकार इस बात को महसूस करते होंगे।
जिसे ब्लागिंग की जानकारी हों वो ऐसा नहीं सोचता । हम सभी आने वाले वर्षों में शोध का विषय होंगे ...आप चिंता न करिये। रामायण लिखने वाले "तुलसी"को क्या मालूम था कि विश्व में उनकी रचना उनको प्रतिष्ठा दिलाएगी ।
हाँ गंदगी जिस दिन भी ब्लॉग पर आएगी हम सभी बदनाम हों सकतें हैं.....इस बात को ध्यान में रख के हम अपना काम जारी रखें....
ब्लॉगर साहित्य की पुलिस चौकियों से ज़रूर बहिष्कृत है , उनके थानों से बाहर हैं किन्तु हिन्दी साहित्य ने हमको नकारा नहीं है। ये सही है कि "ब्लॉग पर चर्चा कम है" ये संकट तो सभी का है।
निश्चिंत रहो मित्रों और ब्लॉगिंग करते रहो। बस एक ही अनुरोध और और अपेक्षा है ब्लॉग-बिरादरी से कि ब्लॉग पर पीको मत, थूको मत, उगलो मत। बस, बढिया पकाओ और बढिया ढंग से परोसो। तय मानों मुख्यधारा आपकी है और साहित्य भी आपका ही है। --डॉ.कमलकांत बुधकर