ताकि हम धर्म-प्रधान से तर्क-प्रधान देश बन जाएं

आज भी ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या की बात बोलते जाना वैसा ही है, जैसा कि यह कहना कि सूरज धरती के चक्कर लगाता है। कितनी उल्टी बात स्थापित की गई है कि आत्मा सत्य है और शरीर मिथ्या है। जबकि हकीकत यह है कि जीवित शरीर ही पहला और अंतिम सत्य है क्योंकि भूत (संस्कार) और वर्तमान (माहौल) के मेल से जो चेतना बनती है, व्यक्तित्व बनता है, वह शरीर के मरते ही विलुप्त हो जाता है। जिसे हम आत्मा कहते हैं, मरने के बाद शरीर से निकलने वाली ज्योति कहते हैं, उसे हम करोड़ों-अरब जतन कर लें, शरीर से अलग, उसके बिना बना ही नहीं सकते। शरीर और आत्मा सामाजिक ऑर्गेनिक प्रक्रिया में एक साथ वजूद में आते हैं। दोनों को अलग-अलग नहीं बनाया जा सकता। मान लीजिए हम शरीर बना भी लें, लेकिन मानव जाति के हज़ारों सालों के स्थान विशेष के अनुभवों को सूक्ष्मीकृत करके हम उस शरीर में कैसे ट्रांसप्लांट करेंगे?

आत्मा-परमात्मा क्या है? यह तो एक सिमिट्री, संतुलन बैठानेवाली चीज़ है। अपने बाहरी संसार और अनुभवों को संतुलित करने के लिए इंसान उसी तरह इनकी रचना अपने अवचेतन, अंदर की दुनिया में करता है, जैसे किसी पेंटिंग को असंतुलित पाकर हम उसके दूसरे हिस्से या किसी उपयुक्त स्थान पर कोई गोला या आकृति बना देते हैं। असल में बीता हुआ कल ही बीतेते-बीतते भगवान जैसी अवधारणाओं को पैदा करता है। ये अवधारणाएं पीढ़ी-दर-पीढ़ी होनेवाले अमूर्तन का रूप हैं। जैसे रिले रेस में एक खिलाड़ी दूसरे खिलाड़ी को बैटन पकड़ा देता है, वैसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी की अनुभूतियां और ज्ञान संघनित और ठोस होकर आगे की पीढ़ी को मिल जाते हैं, जो उन्हें लेकर दौड़ पड़ती है।

हम आज की शब्दावली में यह भी कह सकते हैं कि भगवान एक ब्रांड है, जो बना तो हज़ारों साल में, लेकिन बनने की प्रक्रिया में वह बनानेवालों से बहुत-बहुत ज्यादा बड़ा होता गया। यह धीरे-धीरे एक ऐसा जबरदस्त पूर्वाग्रह बन गया जो हमारे और सच के बीच कोहरे की घनी चादर बनकर तन गया। वैसे, यह भी होता है कि अक्सर ईश्वर और गुरु की धारणा से हमारा जुड़ाव तभी तक रहता है जब तक लगता है कि वे हमारे लिए कुछ कर देंगे। लेकिन जैसे-जैसे हमें भान होता है कि गुरु, ईश्वर और उनसे जुड़ी साधना तो केवल अंदर की शक्तियों को जगाने का माध्यम भर हैं, तब हमारी आस्था डोलते-डोलते हवा में उड़ने को उतारू हो जाती है।

आस्था के डोलने और उड़ने का एक व्यापक सिलसिला देश में 500-600 साल पहले शुरू हुआ था कबीर, रैदास, ज्ञानेश्वर, नाभा सिंपी, सेना भाई जैसे शूद्र संतों के माध्यम से। फिर इस भक्ति आंदोलन के साथ ही सूफियों का सिलसिला चल निकला जो प्रेम को ही सबसे बड़ा सच और परमेश्वर मानने लगे। मुझे तो लगता है कि आज भी हमें दर्शन और सोच के स्तर उस टूट गए सिलसिले को नए संदर्भों में आगे बढ़ाने की ज़रूरत है। जीवन में तार्किकता को स्थापित करने के लिए दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक पूरे देश में ‘संतों’ को जमाने की ज़रूरत है। हिंदी ब्लॉगिंग यह काम बखूबी कर सकती है। इस तरह के ‘संत’ देश के प्रमुख ‘मठों’ में जम गए तो धर्म-प्रधान कहा जानेवाला भारत हमारा एक दिन यकीनन तर्क-प्रधान देश में तब्दील हो जाएगा और चंडीदास के ये शब्द ही सर्वोपरि होंगे कि...
शोनो मानुष भाई, शबार ऊपरे मानुष शत्ती, ताहार ऊपरे केऊ नाई।।

नोट : ये मेरे सुचिंतिंत विचार नहीं हैं। डायरी में लिखी गई फुटकर-फुटकर बातें थीं, जिन्हें एक जगह सजाकर मैंने लेख का रूप दे दिया है। आप लोग सोचें-विचारें और लिखें कि इनको कोई सुचिंतिंत आधार कैसे दिया जा सकता है।

Comments

Unknown said…
आप लगातार बहुत अच्छा लिख रहे हैं।ऐसा लिख रहे हैं कि आगे सोचने का मन करता है। समय के अभाव में अर्थपूर्ण टिप्पणी करना मुश्किल है...पर आपको पढ़ रहे हैं....मंथन कर रहे हैं...चिंतन कर रहे हैं...
गहरी बातें है सर, इसलिए ज्यादा तो कुछ समझ नही पाया हूँ. पर हाँ आपकी पिछली पोस्ट के शीर्षक को ही अनुकरणीय मानता हूँ कि-" मस्त रहो, सब कुछ जानना ही जरुरी नही हैं."
ghughutibasuti said…
बहुत अच्छा लिखा है । अभी और लिखिये ।
घुघूती बासूती
Pratyaksha said…
सही लिखा । ईश्वर ने हमें गढ़ा या हमने उन्हें रचा , इस प्रश्न का उत्तर कहाँ है । कभी पहले एक कविता लिखी थी , कुछ ऐसे ही आशय थे ।
पर कभी कभी कई चीज़ें तर्क के परे भी होती हैं उनकी परिभाषा कैसे की जाये ?
Srijan Shilpi said…
लिखा निस्संदेह चिंतनपूर्ण है आपने।
Poonam Misra said…
मेरा मानना है कि यह हमारी ज्ञान की सीमाएं हैं जो हमें धर्म,आत्मा ईश्वर आदि को मानने पर विवश करती हैं.हर घटना का एक वैज्ञानिक और तार्किक आधार है.पर अज्ञान के कारण हम उसे समझने में असक्षम हैं.आपकी बातों से इत्तिफ़ाक रखती हूँ .
हां, सुविचारित विचार नहीं हैं। पुराने से लगते हैं। नए सवाल सामने रखेंगे तो नए जवाब खोजने लोग आगे आएंगे। मसलन, तर्कवाद में अतर्क्य का इतना बड़ा स्पेस क्यों छूट जाता है कि उसके लिए मनोविश्लेषण जैसे अर्ध-विज्ञानों की जरूरत पड़ती है?एक होलिस्टिक तर्कवाद के अभाव में क्या धर्म प्रधान और तर्क प्रधान का द्वैत समस्या से टकराने के लिए पर्याप्त होगा?
चन्द्रभूषण का सवाल बिलकुल वाजिब है. इस पर व्यवस्थित ढंग से विचार की जरूरत है.
यह विचार अगर पुराने हैं तो हमारे और भी पुराने हैं। :-)

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