जुमलों की झुमरी-तलैया बन गया साम्यवाद
डोरिस लेसिंग को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलने पर मैंने अपनी पोस्ट में उनके जीवन और रचनाओं का संक्षिप्त देते हुए लिखा था कि डोरिस ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य भी रही थी, तो ज्ञानदत्त पांडे जी ने अपनी टिप्पणी में पूछा था कि डोरिस लेसिंग ने साम्यवादी पार्टी क्यों छोड़ी? कहीं पता चलेगा? यह तो अभी तक मुझे नहीं पता चला है। लेकिन इसी 18 अक्टूबर के टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय पेज पर साम्यवाद के बारे में उनका 1992 में लिखा हुआ एक लेख छपा था, जिसका लिंक मैं अपनी कल की पोस्ट के साथ नत्थी करना चाह रहा था। पर, टाइम्स ऑफ इंडिया की साइट पर मुझे यह लेख मिला ही नहीं, तो मैंने सोचा क्यों न इस लेख का अनुवाद ही छाप दिया जाए। आइए देखते हैं कि इस लेख के चुनिंदा अंश जो दर्शाते हैं कि डोरिस क्या सोचती हैं कम्युनिस्टों की सोच के बारे में...
हम साम्यवाद की प्रत्यक्ष मौत देख चुके हैं, लेकिन साम्यवाद के अधीन सोचने का जो तरीका पैदा हुआ था या जिसे साम्यवाद से मजबूती मिली, वह अब भी हमारी जिंदगियों को नियंत्रित करता है। पहला बिंदु है भाषा। यह कोई नया विचार नहीं है कि साम्यवाद ने भाषा को भ्रष्ट किया और भाषा के साथ विचार को भी। हर वाक्य के बाद आपको कम्युनिस्ट जुमले मिल जाते हैं। यूरोप में ऐसे कुछ ही लोग होंगे जिन्होंने अपने ज़माने में concrete steps, contradictions, interpenetration of opposites जैसे जुमलों को लेकर मज़ाक न किया हो। तमाम कम्युनिस्ट अखबार ऐसी भाषा में लिखे जाते हैं कि लगता है कि वो आजमा रहे हों कि बिना कुछ कहे कितनी ज्यादा से ज्यादा जगह भरी जा सकती है।
यह हमारे समय की एक बड़ी विडंबना है कि वे विचार जिनमें समाज को बदलने की कुव्वत है, वे विचार जिनमें इंसान के मूल व्यवहार और सोच को समझने की अंतर्दृष्टि है, उन्हें अक्सर अपठनीय भाषा में पेश किया जाता है।
दूसरे बिंदु का ताल्लुक पहले ही बिंदु से है। हमारे व्यवहार को प्रभावित करनेवाले ताकतवर विचार छोटे से वाक्य में या एक मुहावरे तक में अभिव्यक्त हो सकते हैं। लेकिन हर लेखक से इंटरव्यू लेनेवाले लिखने के मसकद और प्रतिबद्धता के बारे में पूछते हैं। क्यों लिखते हैं, किसके लिए लिखते हैं? पूछा जाता है कि फलां लेखक प्रतिबद्ध है या नहीं? बाद में ‘प्रतिबद्धता’ की जगह ‘चेतना बढ़ाने’ ने ले ली। लेकिन इसका सिर्फ और सिर्फ मतलब यह होता था कि आप पार्टी लाइन को बयां कर रहे हैं या नहीं। बाद में जब साम्यवाद भसकने लगा तो political correctness की बात कही जाने लगी। ये सब कहने का मेरा मकसद सिर्फ यह दिखाना है कि हमारा दिमाग कैसे अनजाने में कुछ जुमलों का गुलाम हो जाता है।
क्या political correctness का सकारात्मक पहलू भी है? हां है क्योंकि यह हमें अपने नज़रिये को फिर से जांचने के लिए उकसाता है जिससे हमेशा फायदा ही होता है। लेकिन हकीकत में होता यह है कि अगर कोई एक महिला या पुरुष नज़रिये को ईमानदारी से जांच रहा होता है तो उसके इर्दगिर्द बीस लफ्फाज ऐसे होते हैं जो ऐसा दिखाकर सिर्फ सत्ता हासिल करना चाहते हैं। मुझे तो आज भी यही लगता है कि करोड़ों लोग जिनके नीचे से साम्यवाद की चादर खींच ली गई है, वो शायद आज भी अनजाने में किसी और dogma की तलाश में लगे होंगे।
हम साम्यवाद की प्रत्यक्ष मौत देख चुके हैं, लेकिन साम्यवाद के अधीन सोचने का जो तरीका पैदा हुआ था या जिसे साम्यवाद से मजबूती मिली, वह अब भी हमारी जिंदगियों को नियंत्रित करता है। पहला बिंदु है भाषा। यह कोई नया विचार नहीं है कि साम्यवाद ने भाषा को भ्रष्ट किया और भाषा के साथ विचार को भी। हर वाक्य के बाद आपको कम्युनिस्ट जुमले मिल जाते हैं। यूरोप में ऐसे कुछ ही लोग होंगे जिन्होंने अपने ज़माने में concrete steps, contradictions, interpenetration of opposites जैसे जुमलों को लेकर मज़ाक न किया हो। तमाम कम्युनिस्ट अखबार ऐसी भाषा में लिखे जाते हैं कि लगता है कि वो आजमा रहे हों कि बिना कुछ कहे कितनी ज्यादा से ज्यादा जगह भरी जा सकती है।
यह हमारे समय की एक बड़ी विडंबना है कि वे विचार जिनमें समाज को बदलने की कुव्वत है, वे विचार जिनमें इंसान के मूल व्यवहार और सोच को समझने की अंतर्दृष्टि है, उन्हें अक्सर अपठनीय भाषा में पेश किया जाता है।
दूसरे बिंदु का ताल्लुक पहले ही बिंदु से है। हमारे व्यवहार को प्रभावित करनेवाले ताकतवर विचार छोटे से वाक्य में या एक मुहावरे तक में अभिव्यक्त हो सकते हैं। लेकिन हर लेखक से इंटरव्यू लेनेवाले लिखने के मसकद और प्रतिबद्धता के बारे में पूछते हैं। क्यों लिखते हैं, किसके लिए लिखते हैं? पूछा जाता है कि फलां लेखक प्रतिबद्ध है या नहीं? बाद में ‘प्रतिबद्धता’ की जगह ‘चेतना बढ़ाने’ ने ले ली। लेकिन इसका सिर्फ और सिर्फ मतलब यह होता था कि आप पार्टी लाइन को बयां कर रहे हैं या नहीं। बाद में जब साम्यवाद भसकने लगा तो political correctness की बात कही जाने लगी। ये सब कहने का मेरा मकसद सिर्फ यह दिखाना है कि हमारा दिमाग कैसे अनजाने में कुछ जुमलों का गुलाम हो जाता है।
क्या political correctness का सकारात्मक पहलू भी है? हां है क्योंकि यह हमें अपने नज़रिये को फिर से जांचने के लिए उकसाता है जिससे हमेशा फायदा ही होता है। लेकिन हकीकत में होता यह है कि अगर कोई एक महिला या पुरुष नज़रिये को ईमानदारी से जांच रहा होता है तो उसके इर्दगिर्द बीस लफ्फाज ऐसे होते हैं जो ऐसा दिखाकर सिर्फ सत्ता हासिल करना चाहते हैं। मुझे तो आज भी यही लगता है कि करोड़ों लोग जिनके नीचे से साम्यवाद की चादर खींच ली गई है, वो शायद आज भी अनजाने में किसी और dogma की तलाश में लगे होंगे।
Comments
मजे की बात है दोनो ने विश्व को उतरोत्तर फटेहाल बनाने में ही योगदान दिया है।
कम्यूनिज्म का जो भी प्रचार-प्रसार हुआ, उसके पीछे जबर्जस्त प्रोपेगैण्डा, शब्दों की बाजीगरी, और झूठे सपने दिखाने की कला काम कर रही थी। इसका दर्शन बहुत कमजोर था और इसी को छिपाने के लिये समझ में न आने वाले शब्द (नान-सेंस टर्म्स) गढ़े जाते थे।
मुझे याद है, कालेज के दिनों में ये कैसे 'लगभग मुफ्त साहित्य' पढ़वाया करते थे; उसी तरह जैसे रोड के किनारे बाइबल बांटी जाती है। इन्होने शब्द ही नहीं गढ़े, बड़े-बड़े सिद्धान्त भी गढ़े (जिनकी हवा निकल चुकी है)। इन्होने इतिहास भी गढ़ा। जी हाँ जब कोई रसियन तकनीकी पुस्तक मै पढ़ता था तो देखता था कि उस सिद्धान्त, उपकरण आदि के विकास की उनकी अपनी ही कहानी दी गयी होती थी। अमेरिकी एवं अन्य तकनीकी पुस्तकों में इससे बिलकुल भिन्न इतिहास लिखा रहता था।
मुझे लगता है कि कम्यूनिज्म 'आर्गेनाइज्ड रेलिजन' का सबसे जटिल और खतरनाक रूप है। मै अनिल भाई से निवेदन करूंगा कि कभी लिखकर हमारा ज्ञानवर्धन करें कि मार्क्सवाद कैसे यह 'एकलौता' दर्शन है जो दलदल से निकालकर गति का रास्ता दिखाता है? इसे भी समझाने का कष्ट करें कि इसके अपनाने वाले किस प्रकार दुकानदारी चलाते हैं?
विपिन