लड़ते हैं हम और धंधा उसका चमकता है
बॉक्सिंग का मुकाबला चल रहा था। दर्शकों में खड़े एक सज्जन जब भी कोई बॉक्सर दूसरे को मारता तो ज़ोर से चिल्लाकर बोलते – मार दे साले का दांत टूट जाए। नीली पट्टी वाला बॉक्सर मारता, तब भी यही बोलते और लाल पट्टी वाला बॉक्सर मारता, तब भी। बगल में खड़े एक शख्स से रहा नहीं गया। पूछा – भाईसाहब, आप किसकी तरफ हो तो उन सज्जन का जवाब था – मैं दांतों का डॉक्टर हूं। भारत-पाकिस्तान की तनातनी में आज अमेरिका की यही स्थिति है।
कल ही वॉशिंग्टन में निष्पक्ष माने जानेवाली संस्था कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस (सीआरएस) की तरफ से जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2006 में दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा सौदागर अमेरिका रहा है, जबकि हथियारों के सबसे बड़े खरीददार पाकिस्तान और भारत हैं। दुनिया में 40 अरब डॉलर के हथियारों की बिक्री में से 17 अरब डॉलर के, यानी 42 फीसदी हथियार अमेरिका ने बेचे हैं। इस दौरान पाकिस्तान 5.1 अरब डॉलर और भारत 3.5 अरब डॉलर के साथ दुनिया में हथियारों के पहले और दूसरे सबसे बड़े खरीददार रहे।
इस रिपोर्ट में तीन तथ्य और चौंकानेवाले हैं। एक, दुनिया में हथियारों के धंधे में 6 अरब डॉलर की कमी आने के बावजूद अमेरिकी हथियारों की बिक्री 3.4 अरब डॉलर बढ़ी है। दो, इराक और अफगानिस्तान में चल रहे युद्ध के बावजूद पाकिस्तान और भारत हथियारों के सबसे बड़े खरीदार हैं। तीन, सऊदी अरब जैसा बेफिक्र देश 3.2 अरब डॉलर की खरीद के साथ दुनिया में हथियारों का तीसरा सबसे बड़ा ग्राहक है, यानी भारत से महज 30 करोड़ डॉलर कम के हथियार उसने साल 2006 में खरीदे हैं।
रूस और ब्रिटेन दुनिया में दूसरे और तीसरे नंबर के हथियारों के बड़े सौदागर हैं। लेकिन उनका धंधा अमेरिका के आधे से भी कम है। साल 2006 में रूस ने 8.7 अरब डॉलर और ब्रिटेन ने 3.1 अरब डॉलर के हथियार बेचे। ब्रिटेन का यह धंधा अब और भी घटने की उम्मीद है क्योंकि नए प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने इसी साल जून में डिफेंस एक्सपोर्ट सेल्स ऑर्गेनाइजेशन को बंद करने की घोषणा की है। लेकिन अमेरिका में हथियार लॉबी इतनी मजबूत है कि उसके धंधे में कोई नरमी आने की गुंजाइश नहीं है।
यह लॉबी कितनी मजबूत है, इसका एक सबूत यह है कि कल ही अमेरिकी सीनेट मे पेंटागन को चालू वित्तीय वर्ष में 648.8 अरब डॉलर और खर्च करने के बिल को पारित कर दिया है। अमेरिका का रक्षा बजट साल 2006 में 528.7 अरब डॉलर का था, जबकि इसके बाद के दस देशों - ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, जापान, जर्मनी, रूस, इटली,सऊदी अरब और भारत के रक्षा बजट को मिला दिया जाए तब भी वह कुल 381.9 अरब डॉलर का बनता है। यही वजह है कि अमेरिका कभी नहीं चाहता कि दुनिया में अमन-चैन हो। कहीं न कहीं, युद्ध का होते रहना उसके वजूद के लिए ज़रूरी शर्त है।
इस समय ब्रिटेन, जापान और ऑस्ट्रेलिया की अगुआई में दुनिया के लगभग डेढ़ सौ देशों में हथियारों के व्यापार को नियंत्रित करने की संधि पर सहमति बन गई है। लेकिन इसके खिलाफ अमेरिका के संगठन नेशनल राइफल एसोसिएशन ने मोर्चा खोल रखा है। अमेरिका की हथियार लॉबी भी उसके साथ है। इनकी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले साल दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में 153 देशों ने इस संधि का आगे बढ़ाने का प्रस्ताव पास कर दिया और अकेले अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने ही इसके खिलाफ वोट दिया था।
कल ही वॉशिंग्टन में निष्पक्ष माने जानेवाली संस्था कांग्रेसनल रिसर्च सर्विस (सीआरएस) की तरफ से जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2006 में दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा सौदागर अमेरिका रहा है, जबकि हथियारों के सबसे बड़े खरीददार पाकिस्तान और भारत हैं। दुनिया में 40 अरब डॉलर के हथियारों की बिक्री में से 17 अरब डॉलर के, यानी 42 फीसदी हथियार अमेरिका ने बेचे हैं। इस दौरान पाकिस्तान 5.1 अरब डॉलर और भारत 3.5 अरब डॉलर के साथ दुनिया में हथियारों के पहले और दूसरे सबसे बड़े खरीददार रहे।
इस रिपोर्ट में तीन तथ्य और चौंकानेवाले हैं। एक, दुनिया में हथियारों के धंधे में 6 अरब डॉलर की कमी आने के बावजूद अमेरिकी हथियारों की बिक्री 3.4 अरब डॉलर बढ़ी है। दो, इराक और अफगानिस्तान में चल रहे युद्ध के बावजूद पाकिस्तान और भारत हथियारों के सबसे बड़े खरीदार हैं। तीन, सऊदी अरब जैसा बेफिक्र देश 3.2 अरब डॉलर की खरीद के साथ दुनिया में हथियारों का तीसरा सबसे बड़ा ग्राहक है, यानी भारत से महज 30 करोड़ डॉलर कम के हथियार उसने साल 2006 में खरीदे हैं।
रूस और ब्रिटेन दुनिया में दूसरे और तीसरे नंबर के हथियारों के बड़े सौदागर हैं। लेकिन उनका धंधा अमेरिका के आधे से भी कम है। साल 2006 में रूस ने 8.7 अरब डॉलर और ब्रिटेन ने 3.1 अरब डॉलर के हथियार बेचे। ब्रिटेन का यह धंधा अब और भी घटने की उम्मीद है क्योंकि नए प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन ने इसी साल जून में डिफेंस एक्सपोर्ट सेल्स ऑर्गेनाइजेशन को बंद करने की घोषणा की है। लेकिन अमेरिका में हथियार लॉबी इतनी मजबूत है कि उसके धंधे में कोई नरमी आने की गुंजाइश नहीं है।
यह लॉबी कितनी मजबूत है, इसका एक सबूत यह है कि कल ही अमेरिकी सीनेट मे पेंटागन को चालू वित्तीय वर्ष में 648.8 अरब डॉलर और खर्च करने के बिल को पारित कर दिया है। अमेरिका का रक्षा बजट साल 2006 में 528.7 अरब डॉलर का था, जबकि इसके बाद के दस देशों - ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, जापान, जर्मनी, रूस, इटली,सऊदी अरब और भारत के रक्षा बजट को मिला दिया जाए तब भी वह कुल 381.9 अरब डॉलर का बनता है। यही वजह है कि अमेरिका कभी नहीं चाहता कि दुनिया में अमन-चैन हो। कहीं न कहीं, युद्ध का होते रहना उसके वजूद के लिए ज़रूरी शर्त है।
इस समय ब्रिटेन, जापान और ऑस्ट्रेलिया की अगुआई में दुनिया के लगभग डेढ़ सौ देशों में हथियारों के व्यापार को नियंत्रित करने की संधि पर सहमति बन गई है। लेकिन इसके खिलाफ अमेरिका के संगठन नेशनल राइफल एसोसिएशन ने मोर्चा खोल रखा है। अमेरिका की हथियार लॉबी भी उसके साथ है। इनकी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले साल दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में 153 देशों ने इस संधि का आगे बढ़ाने का प्रस्ताव पास कर दिया और अकेले अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने ही इसके खिलाफ वोट दिया था।
Comments
vipin
सबके मूल में लोभ, इच्छा और वासना का एक्स्प्लॉइटेशन है.