जो अपनी नज़रों में गिरा, समझो मरा
सांप को मारना हो तो उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ देनी चाहिए। और, अगर किसी इंसान को मिटाना हो तो उसके आत्मसम्मान को खत्म कर देना चाहिए। हमारे दफ्तरों में, कामकाजी संगठनों में अक्सर कमज़ोर किस्म के बॉस इसी नीति पर अमल करते हैं। उन्हें अपने नीचे काम करनेवाले सहकर्मी की प्रतिभा से डर लगता है तो वे बार-बार उसके काम में मीनमेख निकालते हैं। सब के सामने चिल्लाकर कहते हैं, “तुमको आता क्या है? तुमको नौकरी किसने दे दी? तुम तो निपट घसियारे हो। यहां कर क्या रहे हो? कहीं और अपने लेवल की नौकरी क्यों नहीं ढूंढ लेते!” वे अच्छी तरह समझते हैं कि सामनेवाले के मजबूत पहलू और कमज़ोरियां क्या हैं, लेकिन वे जान-बूझकर कमज़ोरियों पर नहीं, उसके स्ट्रांग प्वॉइंट्स पर चोट करते हैं।
सहकर्मी अगर अपनी प्रतिभा और काबिलियत को लेकर हठी विक्रमादित्य नहीं हुआ, ज्यादातर लोगों की तरह सहज विश्वासी किस्म का जीव हुआ तो न-न करते हुए भी अपनी आलोचनाओं पर यकीन करना शुरू कर देता है। उसे लगता है कि कहीं तो कुछ होगा जो उसका बॉस उसे इस तरह झिड़कता है। फिर तो वह अपनी हर पहल को संदेह की नज़र से देखने लगता है। सोचता है कहीं कोई गलती न हो जाए। अपने विवेक के बजाय दूसरों की सलाह का मोहताज हो जाता है। धीरे-धीरे उसे अपनी काबिलियत से भरोसा उठ जाता है और वह सबकी नज़रों में बिना काम का साबित हो जाता है।
लेकिन कुछ ठसक वाले लोग होते हैं जो दुत्कारने पर फुंफकार कर खड़े हो जाते हैं। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है। मेरे एक सहकर्मी ने दूसरी जगह बेहतर मौका और पैसा मिलने पर इस्तीफा दे दिया। बॉस को बताया तो वो फोन पर ही भड़क गए। बोलने लगे – तुम्हारी औकात क्या है, तुम थे क्या, आज जो कुछ तुम हो, मैंने तुम्हें बनाया है, आइंदा से मुझे फोन भी मत करना, आदि-इत्यादि। बंदा बहुत दुखी हो गया। लेकिन अंदर ही अंदर गहरे क्षोभ से भर गया। और कुछ नहीं कर सका तो अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखकर धिक्कार डाला - तुम करो तो रासलीला, हम करें तो छेड़खानी।
मुझे उसकी ये अदा भली लगी। कम से कम उसने अपने आत्मसम्मान को ठेस नहीं लगने दी। मेरे साथ भी करीब आठ साल पहले ऐसा ही हुआ था, जब मेरे बॉस ने मुझसे यही सब कहा था कि तुमको मैंने नौकरी दी थी, वरना तुम्हें हिंदी की बिंदी के अलावा आता ही क्या है। उस समय मैंने डायरी में यह लिखकर अपने आत्मसम्मान को बचाया था कि मैं सरस्वती-पुत्र, सूर्य का बेटा, मैं किसी के अपमान से क्यों परेशान होऊं। कोई अंधकार, कोई अज्ञान मुझे कैसे रोक सकता है। इसके बाद फिर नई जगह पर ऐसा ही कुछ हुआ और एक दिन जब सहने की हद पार हो गई तो मैंने बॉस के मुंह पर इस्तीफा फेंककर दे मारा। क्या करता? मुझे यही लगा कि अगर मैं आत्मदया का शिकार बन गया तो एक दिन दीनहीन बनता-बनता मिट ही जाऊंगा।
आत्मदया और आत्म-प्रशस्ति पेंडुलम के दो छोर हैं। इन्हीं के बीच कहीं रहता है हमारा आत्मसम्मान। हमें किसी को भी इसे तोड़ने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए। न ही किसी की बातों में आकर खुद को अपनी नज़रों में गिरने देना चाहिए। वरना, जिस दिन हम अपनी ही नज़रों में गिरते हैं, उस दिन समझिए हमारी रीढ़ की हड्डी ही टूट जाती है। और आप जानते ही है कि रीढ़ की हड्डी की ज़रा-सा चोट भी लकवे का बड़ा कारण बन जाती है।
Comments
ये सर अजीम है इसे झुकने ना देना ऐ, दोस्त
ज़रा सी जीने की चाहत में कहीं मर ना जाना
भूपेन जी का शेर भी बहुत बढ़िया सन्देश दे जाता है.
दिमाग की दवा मुफ्त ही उप्लब्ध होती रहती है. बहुत बहुत धन्यवाद्
- गौरव
मुद्दा अच्छा है...पर बहस और जरूरी है।
अपने हर हर हर्फ का खुद आईना हो जाऊंगा
उसको छोटा कहकर मैं कैसे बडा हो जाऊंगा ?
बहुत ही पैनी बात कही है. दरअसल जो लोग एहसासे -कमतरी ( inferiority complex) से ग्रसित होते हैं, वही अक्सर ऐसा व्यवहार करते देखे गये हैं.