गुप्ता जी को अब कोई नहीं बचा सकता!!
गुप्ता जी मेरे गांव से पांच कोस दूर के एक बाज़ार के रहनेवाले हैं। लेकिन पिछले 22 साल से पूर्वी दिल्ली में दिलशाद गार्डन के जनता फ्लैट्स में गुप्ता जनरल स्टोर चलाते हैं। 35 साल पहले मां के मरने के बाद जब पिता ने दूसरी शादी कर ली और नई मां से इनकी नहीं बनी तो घर छोड़कर दिल्ली चले आए थे। तीन साल बाद बीवी को भी साथ ले आए। पहले डीडीए से एक कमरे का फ्लैट एलॉट हुआ था। लेकिन ‘बिजनेस’ चल निकला तो बगल वाला फ्लैट भी खरीद लिया और ऊपर एक मंजिल और बना ली। सात साल पहले बड़ी बेटी की शादी धूमधाम से की। एक बेटा एमए कर रहा है, जबकि छोटी बेटी आईटीआई में वोकेशनल कोर्स कर रही है।
दुकान सुबह छह बजे से रात के 11-12 बजे तक खुली रहती है, जब तक आसपास के सभी लोग सो नहीं जाते। गुप्ता जी खुद तो अब भी उसी फैक्टरी में सुपरवाइजर का काम करते हैं, जहां 35 साल पहले मजदूर थे। शिफ्ट की ड्यूटी है। कभी 7 से 3, कभी 3 से 11 तो कभी नाइट शिफ्ट। दुकान पर ज्यादातर गुप्ता जी की पत्नी ही बैठती हैं। वैसे, बेटा-बेटी जब भी पढ़ाई से खाली होकर घर आते हैं, मां को अंदर के कमरे में भेजकर खुद दुकान पर बैठ जाते हैं। रविवार को ऑफ के दिन खुद गुप्ता जी भी बैठते हैं।
सात साल पहले उनकी बड़ी बेटी की शादी के बाद मैं गुप्ता जी से आज तक नहीं मिला और अब तो मुंबई आ जाने के बाद हाल-फिलहाल मिलने की गुंजाइश भी नहीं है। लेकिन इधर जिस तरह किराना से लेकर रोजमर्रा के खाने-पीने की चीज़ें बेचनेवाले मॉल बढ़ते जा रहे हैं, मुझे गुप्ता जी की चिंता सताने लगी है। नौकरी तो वे बस आदतन और फैक्टरी मालिक के लिहाजन कर रहे हैं। उनका और उनके परिवार का वजूद पूरी तरह दुकान पर टिका हुआ है। अगर ग्राहकों ने मॉल्स का रुख कर लिया तो इनका बिजनेस चौपट हो सकता है, दुकान बंद हो सकती है। फिर गुप्ता जी का क्या होगा?
अच्छा हुआ मैंने गुप्ता जी की सलाह नहीं मानीं। जब 10-12 साल पहले मैं खुद दिलशाद गार्डन के एलआईजी फ्लैट में किराए पर रहता था तो गुप्ता-गुप्ताइन दोनों ने सलाह दी थी कि कहीं ग्राउंड फ्लोर का मकान खरीद लो और उसमें बालकनी को घिरवाकर दुकान खोल दो। बच्चे स्कूल जाएंगे और बहू दुकान पर बैठेगी। टाइमपास हो जाएगा और कमाई ऊपर से। हम लोगों के साथ क्या है कि ज्यादातर शादियां आठवी-दसवीं पास लड़कियों से ही होती हैं और लड़की बीए-एमए हो, तब भी उसकी पढ़ाई का स्तर आठवीं-दसवीं का ही होता है। तो, पत्नी भी तैयार हो गई थीं। लेकिन आइडिया मेरे जेहन में नहीं उतरा। नहीं तो आज मैं भी अपने बिजनेस के बैठ जाने के खतरे में जी रहा होता।
आज गुप्ता जी और उनके परिवार जैसे दस करोड़ लोगों की रोजीरोटी पर खतरा मंडरा रहा है। देश-विदेश की बड़ी कंपनियां सब्जियों से लेकर दाल-चावल वगैरह बेचने के धंधे में उतरती जा रही हैं। उनका कहना है कि वे व्यापार में बिचौलियों को खत्म कर किसानों को ज्यादा कीमत देंगी और निर्माताओं से मोलतोल करके ग्राहकों को सस्ता माल उपलब्ध कराएंगी। फिर, सारी दुनिया की रीत यही है। अमेरिका में 80 फीसदी बाज़ार इस तरह के संगठित रिटेल उद्योग के हाथ में है। यूरोप में 70 फीसदी, ब्रिटेन में 60 फीसदी, ब्राजील-थाईलैंड में 40 फीसदी और चीन में 20 फीसदी खुदरा व्यापार बड़ी कंपनियों के पास है, जबकि भारत में केवल तीन फीसदी।
इसके चलते ग्राहकों को ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है। ज़रा-सी किल्लत होने पर कालाबाज़ारी शुरू हो जाती है। देशी-विदेशी कंपनियां इस धंधे में उतरेंगी तो किसानों की आमदनी बढ़ेगी, रोज़गार के नए अवसर पैदा होंगे और सरकार को टैक्स भी ज्यादा मिलेगा। लेकिन इन कंपनियों के पैरोकार यह नहीं बताते कि संगठित रिटेल के चलते अमेरिका और यूरोप में किसानों-व्यापारियों का सफाया हो गया है। आज महज एक फीसदी आबादी को वहां की खेती में रोज़गार मिला हुआ है।
फिर क्या चारा है? क्या विकास के छलावे के नाम पर करोड़ों लोगों के पेट पर लात मार दी जाए? या कोई बीच का रास्ता भी है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किराना और खाने-पीने के धंधे में मॉल्स के आने पर रोक लगा दी जाए? फैसला आम आदमी की दुहाई देनेवाली सरकार को करना है। मैं तो अपनी तरफ से यही कहना चाहूंगा कि जो विकास मेरे गुप्ता जी की दुकान पर ताला लगा दे, मुझे वैसा विकास किसी भी कीमत पर नहीं चाहिए।
दुकान सुबह छह बजे से रात के 11-12 बजे तक खुली रहती है, जब तक आसपास के सभी लोग सो नहीं जाते। गुप्ता जी खुद तो अब भी उसी फैक्टरी में सुपरवाइजर का काम करते हैं, जहां 35 साल पहले मजदूर थे। शिफ्ट की ड्यूटी है। कभी 7 से 3, कभी 3 से 11 तो कभी नाइट शिफ्ट। दुकान पर ज्यादातर गुप्ता जी की पत्नी ही बैठती हैं। वैसे, बेटा-बेटी जब भी पढ़ाई से खाली होकर घर आते हैं, मां को अंदर के कमरे में भेजकर खुद दुकान पर बैठ जाते हैं। रविवार को ऑफ के दिन खुद गुप्ता जी भी बैठते हैं।
सात साल पहले उनकी बड़ी बेटी की शादी के बाद मैं गुप्ता जी से आज तक नहीं मिला और अब तो मुंबई आ जाने के बाद हाल-फिलहाल मिलने की गुंजाइश भी नहीं है। लेकिन इधर जिस तरह किराना से लेकर रोजमर्रा के खाने-पीने की चीज़ें बेचनेवाले मॉल बढ़ते जा रहे हैं, मुझे गुप्ता जी की चिंता सताने लगी है। नौकरी तो वे बस आदतन और फैक्टरी मालिक के लिहाजन कर रहे हैं। उनका और उनके परिवार का वजूद पूरी तरह दुकान पर टिका हुआ है। अगर ग्राहकों ने मॉल्स का रुख कर लिया तो इनका बिजनेस चौपट हो सकता है, दुकान बंद हो सकती है। फिर गुप्ता जी का क्या होगा?
अच्छा हुआ मैंने गुप्ता जी की सलाह नहीं मानीं। जब 10-12 साल पहले मैं खुद दिलशाद गार्डन के एलआईजी फ्लैट में किराए पर रहता था तो गुप्ता-गुप्ताइन दोनों ने सलाह दी थी कि कहीं ग्राउंड फ्लोर का मकान खरीद लो और उसमें बालकनी को घिरवाकर दुकान खोल दो। बच्चे स्कूल जाएंगे और बहू दुकान पर बैठेगी। टाइमपास हो जाएगा और कमाई ऊपर से। हम लोगों के साथ क्या है कि ज्यादातर शादियां आठवी-दसवीं पास लड़कियों से ही होती हैं और लड़की बीए-एमए हो, तब भी उसकी पढ़ाई का स्तर आठवीं-दसवीं का ही होता है। तो, पत्नी भी तैयार हो गई थीं। लेकिन आइडिया मेरे जेहन में नहीं उतरा। नहीं तो आज मैं भी अपने बिजनेस के बैठ जाने के खतरे में जी रहा होता।
आज गुप्ता जी और उनके परिवार जैसे दस करोड़ लोगों की रोजीरोटी पर खतरा मंडरा रहा है। देश-विदेश की बड़ी कंपनियां सब्जियों से लेकर दाल-चावल वगैरह बेचने के धंधे में उतरती जा रही हैं। उनका कहना है कि वे व्यापार में बिचौलियों को खत्म कर किसानों को ज्यादा कीमत देंगी और निर्माताओं से मोलतोल करके ग्राहकों को सस्ता माल उपलब्ध कराएंगी। फिर, सारी दुनिया की रीत यही है। अमेरिका में 80 फीसदी बाज़ार इस तरह के संगठित रिटेल उद्योग के हाथ में है। यूरोप में 70 फीसदी, ब्रिटेन में 60 फीसदी, ब्राजील-थाईलैंड में 40 फीसदी और चीन में 20 फीसदी खुदरा व्यापार बड़ी कंपनियों के पास है, जबकि भारत में केवल तीन फीसदी।
इसके चलते ग्राहकों को ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है। ज़रा-सी किल्लत होने पर कालाबाज़ारी शुरू हो जाती है। देशी-विदेशी कंपनियां इस धंधे में उतरेंगी तो किसानों की आमदनी बढ़ेगी, रोज़गार के नए अवसर पैदा होंगे और सरकार को टैक्स भी ज्यादा मिलेगा। लेकिन इन कंपनियों के पैरोकार यह नहीं बताते कि संगठित रिटेल के चलते अमेरिका और यूरोप में किसानों-व्यापारियों का सफाया हो गया है। आज महज एक फीसदी आबादी को वहां की खेती में रोज़गार मिला हुआ है।
फिर क्या चारा है? क्या विकास के छलावे के नाम पर करोड़ों लोगों के पेट पर लात मार दी जाए? या कोई बीच का रास्ता भी है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किराना और खाने-पीने के धंधे में मॉल्स के आने पर रोक लगा दी जाए? फैसला आम आदमी की दुहाई देनेवाली सरकार को करना है। मैं तो अपनी तरफ से यही कहना चाहूंगा कि जो विकास मेरे गुप्ता जी की दुकान पर ताला लगा दे, मुझे वैसा विकास किसी भी कीमत पर नहीं चाहिए।
Comments
why do you think mall cultur will not bring in growth
every change takes time to settle in and change is the only key to growth
people move from small towns to bigger towns and grow
people migrate from one continent to other to grow
Rachna
जो हुआ, सो हुआ ही! मोह छोड़ देना चाहिये शायद।
अभी पिछले दिनों मैं रिलायंस से सब्जी खरीद कर आया, सब्जियाँ ताजी और सस्ती थी सो खरीद ली म क्यों कि सब्जी मंडई पास नहीं थी। किराना का सामान सस्ते होते हुए भी नहीं खरीदा क्यों कि घर के सामने ही किराना की दुकान है।
मुझ जैसे और भी कई लोग सोचते होंगे, तब तक किराना की छोटी दुकानों का भविष्य अंधकार में नहीं होगा।
एक बात और भी है, छोटी दुकान वाले उधार में माल दे देते हैं जब कि फ़्रेश या मॉल्स वाले नहीं.........