मैं प्रमोद महाजन का इंटरव्यू करना चाहता था
आज बीजेपी नेता प्रमोद महाजन का 58वां जन्मदिन है। मुझे पता है कि कोई भी हिंदी ब्लॉगर इस लांछित नेता पर कुछ नहीं लिखेगा। लेकिन मैं लिखना चाहता हूं क्योंकि प्रमोद महाजन जीते-जी मेरे लिए एक केस स्टडी थे। साल 2004 में बीजेपी की जबरदस्त हार के बाद किसी चैनल ने उनका लंबा इंटरव्यू लिया था, जिसमें प्राइमरी स्कूल मास्टर के इस बेटे ने अपनी पूरी रामकहानी सुनाई थी। तभी से मैं उनसे लंबा और अंतरंग इंटरव्यू करना चाहता था। मैं प्रमोद महाजन के अंदर की उस यात्रा को जानना-समझना चाहता था, जिससे होते हुए बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक आदर्शवादी किशोर ने 50 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते घाघ राजनेता बनने की मंजिल तय की थी।
उहापोह में लगा रहा कि प्रमोद महाजन मुझे इंटरव्यू का समय क्यों देंगे, फिर समय दे भी दिया तो इस तरह की अंतरंग बातें क्यों करेंगे। मार्च 2005 में मैं मुंबई आ गया तो एक मित्र ने बताया कि तुम आत्मकथा लिखने के बहाने उनसे लंबी बात कर सकते हो। साल भर से ज्यादा वक्त गुजर गया। इसी बीच 22 अप्रैल 2006 को प्रमोद महाजन को उनके उसी छोटे भाई प्रवीण महाजन से गोली मार दी, जिसे उन्होंने अपने बेटे की तरह पाला था। मित्र ने बताया कि प्रमोद महाजन अगर बच गए तो समझो कि उनको दूसरी ज़िंदगी मिलेगी और वे पूरी तरह ठीक होने के बाद तुमको अंतरंग इटरव्यू दे सकते हैं। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ क्योंकि हिदुजा अस्पताल में 13 दिन मौत से जूझने के बाद वो हार गए।
इंटरव्यू लेने की मेरी इच्छा हमेशा के लिए अधूरी रह गई। मैं उनसे इसलिए इंटरव्यू लेना चाहता था क्योंकि मैं भी मास्टर का बेटा हूं। मेरे आसपास के बहुत सारे हिंदी पत्रकार भी मास्टर के बेटे हैं। गांवों की आबादी का जो हिस्सा शहरों में राजनीति से लेकर नौकरियों में अच्छी जगह बना पा रहा है, उनमें मास्टरों के बेटों की अच्छी-खासी संख्या है। मैं उनसे इसलिए इंटरव्यू करना चाहता था कि मैं भी बचपन में आदर्शवादी था। शाखा में जाकर नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि मैंने भी गाया था। प्रमोद महाजन काफी वक्त तक आदर्शवादी देशभक्त थे, ऐसा मेरा विश्वास है। इमरजेंसी के कठिन दौर से सक्रिय राजनीति में आना दिखाता है कि वो राजनीति में दुनियादारी के लिए नहीं आए थे।
प्रमोद महाजन ने जिस तरह 21 साल की उम्र में पिता के निधन के बाद मां से लेकर भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी संभाली, वह मेरे लिए बड़ी अनुकरणीय मिसाल थी। मैं समझना चाहता था कि अचानक हादसों के बाद इतनी आंतरिक मजबूती कहां से आ जाती है। प्रमोद ने साइंस और पत्रकारिता में ग्रेजुएशन किया था। पॉलिटिकल साइंस में पोस्ट-ग्रेजुएशन किया। मेरी भी इच्छा थी बीएससी के बाद पॉलिटिकल साइंस पढ़ने की। नहीं पढ़ पाया।
लेकिन यहीं सारी समानताएं खत्म हो जाती हैं। प्रमोद महाजन की ज़िदगी में 1990 के बाद भयंकर तब्दीली आनी शुरू हो गई। वो राजनीति के घाघ बन गए। शायद मरने के वक्त उनसे बड़ा कोई राजनीतिक मैनेजर नहीं था। अमर सिंह जैसे लोग तो उनके पासंग बराबर भी नहीं ठहरेंगे। प्रमोद महाजन ने रिलायंस जैसे समूह को साध कर रखा था। जिस भी कॉरपोरेट घराने को वो चाहते, अपने इशारे पर नचा सकते थे। प्राइमरी स्कूल के बेटा का इस तरह से राजनीतिक घाघ बन जाना मेरे लिए जबरदस्त जिज्ञासा का विषय रहा है। खैर, इस जिज्ञासा को शांत करने का अब कोई उपाय नहीं है। बस कयास लगाए जा सकते हैं।
एक बात मैं आखिर में साफ कर दूं कि राजनीति तो कुछ सालों में बदल जाती है, बदल सकती है। लेकिन किसी देश की संस्कृति सैकड़ों सालों में बदलती है। राजनीति वालों की चौहद्दी हो सकती है। लेकिन संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय हम जैसे लोगों की कोई चौहद्दी नहीं है और न ही राजनीति का कोई ठेकेदार हम सांस्कृतिक कर्मियों को किसी सीमा में बांध सकता है। हम तो नई आत्मा, नए इंसान की रचना करना चाहते हैं। इसलिए हम कहीं से भी सैंपल उठा सकते हैं, कोई भी केस स्टडी ले सकते हैं। आज प्रमोद महाजन का जिक्र मैंने इसी संदर्भ में किया है।
उहापोह में लगा रहा कि प्रमोद महाजन मुझे इंटरव्यू का समय क्यों देंगे, फिर समय दे भी दिया तो इस तरह की अंतरंग बातें क्यों करेंगे। मार्च 2005 में मैं मुंबई आ गया तो एक मित्र ने बताया कि तुम आत्मकथा लिखने के बहाने उनसे लंबी बात कर सकते हो। साल भर से ज्यादा वक्त गुजर गया। इसी बीच 22 अप्रैल 2006 को प्रमोद महाजन को उनके उसी छोटे भाई प्रवीण महाजन से गोली मार दी, जिसे उन्होंने अपने बेटे की तरह पाला था। मित्र ने बताया कि प्रमोद महाजन अगर बच गए तो समझो कि उनको दूसरी ज़िंदगी मिलेगी और वे पूरी तरह ठीक होने के बाद तुमको अंतरंग इटरव्यू दे सकते हैं। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ क्योंकि हिदुजा अस्पताल में 13 दिन मौत से जूझने के बाद वो हार गए।
इंटरव्यू लेने की मेरी इच्छा हमेशा के लिए अधूरी रह गई। मैं उनसे इसलिए इंटरव्यू लेना चाहता था क्योंकि मैं भी मास्टर का बेटा हूं। मेरे आसपास के बहुत सारे हिंदी पत्रकार भी मास्टर के बेटे हैं। गांवों की आबादी का जो हिस्सा शहरों में राजनीति से लेकर नौकरियों में अच्छी जगह बना पा रहा है, उनमें मास्टरों के बेटों की अच्छी-खासी संख्या है। मैं उनसे इसलिए इंटरव्यू करना चाहता था कि मैं भी बचपन में आदर्शवादी था। शाखा में जाकर नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि मैंने भी गाया था। प्रमोद महाजन काफी वक्त तक आदर्शवादी देशभक्त थे, ऐसा मेरा विश्वास है। इमरजेंसी के कठिन दौर से सक्रिय राजनीति में आना दिखाता है कि वो राजनीति में दुनियादारी के लिए नहीं आए थे।
प्रमोद महाजन ने जिस तरह 21 साल की उम्र में पिता के निधन के बाद मां से लेकर भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी संभाली, वह मेरे लिए बड़ी अनुकरणीय मिसाल थी। मैं समझना चाहता था कि अचानक हादसों के बाद इतनी आंतरिक मजबूती कहां से आ जाती है। प्रमोद ने साइंस और पत्रकारिता में ग्रेजुएशन किया था। पॉलिटिकल साइंस में पोस्ट-ग्रेजुएशन किया। मेरी भी इच्छा थी बीएससी के बाद पॉलिटिकल साइंस पढ़ने की। नहीं पढ़ पाया।
लेकिन यहीं सारी समानताएं खत्म हो जाती हैं। प्रमोद महाजन की ज़िदगी में 1990 के बाद भयंकर तब्दीली आनी शुरू हो गई। वो राजनीति के घाघ बन गए। शायद मरने के वक्त उनसे बड़ा कोई राजनीतिक मैनेजर नहीं था। अमर सिंह जैसे लोग तो उनके पासंग बराबर भी नहीं ठहरेंगे। प्रमोद महाजन ने रिलायंस जैसे समूह को साध कर रखा था। जिस भी कॉरपोरेट घराने को वो चाहते, अपने इशारे पर नचा सकते थे। प्राइमरी स्कूल के बेटा का इस तरह से राजनीतिक घाघ बन जाना मेरे लिए जबरदस्त जिज्ञासा का विषय रहा है। खैर, इस जिज्ञासा को शांत करने का अब कोई उपाय नहीं है। बस कयास लगाए जा सकते हैं।
एक बात मैं आखिर में साफ कर दूं कि राजनीति तो कुछ सालों में बदल जाती है, बदल सकती है। लेकिन किसी देश की संस्कृति सैकड़ों सालों में बदलती है। राजनीति वालों की चौहद्दी हो सकती है। लेकिन संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय हम जैसे लोगों की कोई चौहद्दी नहीं है और न ही राजनीति का कोई ठेकेदार हम सांस्कृतिक कर्मियों को किसी सीमा में बांध सकता है। हम तो नई आत्मा, नए इंसान की रचना करना चाहते हैं। इसलिए हम कहीं से भी सैंपल उठा सकते हैं, कोई भी केस स्टडी ले सकते हैं। आज प्रमोद महाजन का जिक्र मैंने इसी संदर्भ में किया है।
Comments
वो प्रमोद थे तो ये प्रवीण हैं
मरने वाला देखो चला गया है
मारने वाला अब भी जिंदा है
यकीनन मुझे उनकी बात रखने का अंदाज़ अच्छा लगता था