गेहूं पर तू-तू मैं-मैं और मूर्ख बनते किसान
बीजेपी ने आयातित गेहूं की क्वालिटी को लेकर कृषि मंत्री शरद पवार पर निशाना साधा तो पलटकर पवार ने बीजेपी की बोलती बंद कर दी। लेकिन दो सांड़ों की लड़ाई में कुछ ऐसे सच सामने आए हैं, जिनसे हमारे-आप जैसे लोगों की आंख खुल जानी चाहिए। पवार की मानें तो इस साल गेहूं आयात करने की नौबत अटल बिहारी की अगुआई वाली एनडीए सरकार और बीजेपी शासित राज्यों की नीतियों के चलते पैदा हुई। वाजपेयी सरकार ने एक तो गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ाकर किसानों को हतोत्साहित किया, ऊपर से सरकारी गोदामों का गेहूं सस्ती दरों पर व्यापारियों को निर्यात करने के लिए बेच दिया। इस फैसले से केंद्र सरकार को 16,245 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है।
बात यहीं तक सीमित नहीं रही। बीजेपी या उसकी साझा सरकारों वाले चार राज्यों – गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार ने इस साल पीडीएस के लिए गेहूं की बेहद मामूली खरीद की है। गुजरात में 2006-07 में गेहूं का उत्पादन 30 लाख टन हुआ, जबकि सरकारी खरीद रत्ती भर भी नहीं हुई। राजस्थान में 69.25 लाख टन गेहूं उत्पादन के मुकाबले सरकारी खरीद हुई सिर्फ 3.8 लाख टन की। मध्य प्रदेश में कुल गेहूं उत्पादन 71.6 लाख टन रहा, जबकि सरकार ने खरीदे सिर्फ 57,000 टन। इसी तरह बीजेपी और जेडी-यू की साझा सरकार वाले बिहार में 35.8 लाख टन गेहूं उत्पादन में से सरकारी खरीद महज 8,000 टन की हुई।
इन चार राज्यों के असहयोग के चलते पीडीएस के लिए सरकारी गोदामों में कुल 111 लाख टन ही गेहूं आ पाया, जबकि ज़रूरत 150 लाख टन की थी। ध्यान देने की बात यह है कि इन राज्यों ने सरकारी खरीद में सहयोग तो नहीं ही दिया, ऊपर से पीडीएस के लिए गेहूं की मांग बढ़ा दी। वैसे पवार का यह खुलासा राजनीतिक प्रेरित है क्योंकि उन्होंने लगे हाथों उत्तर प्रदेश की पुरानी मुलायम सरकार को भी लपेट लिया है। उनका कहना है कि 2005-06 में उत्तर प्रदेश में 250 लाख टन का गेहूं उत्पादन हुआ था, जबकि सरकारी खरीद महज 5.3 लाख टन ही रही।
कम सरकारी खरीद और पीडीएस की बढ़ती मांग के चलते केंद्र सरकार के सामने बाहर से गेहूं मंगाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। नतीजा यह हुआ कि इस साल भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा गेहूं आयातक देश बन गया। उसने 1 जून 2007 को खत्म विपणन वर्ष में 67 लाख टन गेहूं का आयात किया। 39 लाख टन भंडार में कमी को पूरा करने के लिए और 28 लाख टन आगे के इंतज़ाम के लिए। आपको बता दें कि सरकार को हर महीने पीडीएस के लिए 10 लाख टन गेहूं की ज़रूरत पड़ती है।
इस बार गेहूं की जो भी सरकारी खरीद हुई, उसमें सबसे बड़ा योगदान पंजाब और हरियाणा का रहा। सवाल उठता है कि बाकी राज्यों में पैदा हुआ गेहूं गया कहां? जवाब एकदम साफ है कि इन राज्यों का लगभग सारा गेहूं आईटीसी, हिंदुस्तान यूनिलीवर या कारगिल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने खरीद लिया। किसानों को इन कंपनियों ने थोड़ा ज्यादा दाम दिया तो वह अपना गेहूं सरकारी एजेंसियों को क्यों बेचते?
लेकिन पीडीएस के गेहूं की कमी के मनोवैज्ञानिक असर के चलते खुले बाज़ार गेहूं की कीमतें बढ़ गईं। ऊपर से भारत की तरफ से इतनी भारी मांग आने पर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इस साल गेहूं 64 फीसदी महंगा हो गया। अब गेहूं की इन बढ़ी कीमतों को देखकर किसानों को लगने लगा है कि वे इस बार गेहूं की खेती से ज्यादा कमाई कर सकते हैं। सो उन्होंने गेहूं की खेती का रकबा बढ़ा दिया है। जहां पिछले साल 285 हेक्टेयर में गेहूं बोया गया था, वहीं इस साल अनुमान है कि गेहूं का रकबा 290 लाख हेक्टेयर से ज्यादा रहेगा।
मगर हकीकत यह है कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के चेयरमैन आलोक सिन्हा के मुताबिक ताज़ा आयात के बाद सरकार के पास 50 लाख टन का आरक्षित भंडार रहेगा, जबकि ज़रूरत 40 लाख टन की ही है। यानी, सरकार की तरह से ज्यादा मांग नहीं आनेवाली। ऊपर से अनुमान यह है कि ज्यादा क्षेत्रफल में बोवाई से गेहूं उत्पादन 755 लाख टन के आसपास रहने का अनुमान है। जाहिर है सप्लाई बढ़ने और मांग घटने से गेहूं की कीमतें ज्यादा रहने के आसार नहीं हैं। ऐसे में जिन किसानों ने ज्यादा कमाई की उम्मीद में गेहूं का रकबा बढ़ा दिया है, उन्हें अपनी उम्मीदों के टूटने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसे कहते हैं गेहूं के साथ घुन (किसान) का पिसना।
अंत में दो निष्कर्ष। एक, गरीबों के नाम पर सरकार ने गेहूं आयात के लिए सरकारी खज़ाना खाली किया। और दो, बहुराष्ट्रीय कंपनी को फायदा पहुंचाने के चक्कर में बीजेपी की राज्य सरकारों ने गरीबों की रोटी छीनने के साथ ही मध्यवर्ग की जेब में छेद कर दिया।
बात यहीं तक सीमित नहीं रही। बीजेपी या उसकी साझा सरकारों वाले चार राज्यों – गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार ने इस साल पीडीएस के लिए गेहूं की बेहद मामूली खरीद की है। गुजरात में 2006-07 में गेहूं का उत्पादन 30 लाख टन हुआ, जबकि सरकारी खरीद रत्ती भर भी नहीं हुई। राजस्थान में 69.25 लाख टन गेहूं उत्पादन के मुकाबले सरकारी खरीद हुई सिर्फ 3.8 लाख टन की। मध्य प्रदेश में कुल गेहूं उत्पादन 71.6 लाख टन रहा, जबकि सरकार ने खरीदे सिर्फ 57,000 टन। इसी तरह बीजेपी और जेडी-यू की साझा सरकार वाले बिहार में 35.8 लाख टन गेहूं उत्पादन में से सरकारी खरीद महज 8,000 टन की हुई।
इन चार राज्यों के असहयोग के चलते पीडीएस के लिए सरकारी गोदामों में कुल 111 लाख टन ही गेहूं आ पाया, जबकि ज़रूरत 150 लाख टन की थी। ध्यान देने की बात यह है कि इन राज्यों ने सरकारी खरीद में सहयोग तो नहीं ही दिया, ऊपर से पीडीएस के लिए गेहूं की मांग बढ़ा दी। वैसे पवार का यह खुलासा राजनीतिक प्रेरित है क्योंकि उन्होंने लगे हाथों उत्तर प्रदेश की पुरानी मुलायम सरकार को भी लपेट लिया है। उनका कहना है कि 2005-06 में उत्तर प्रदेश में 250 लाख टन का गेहूं उत्पादन हुआ था, जबकि सरकारी खरीद महज 5.3 लाख टन ही रही।
कम सरकारी खरीद और पीडीएस की बढ़ती मांग के चलते केंद्र सरकार के सामने बाहर से गेहूं मंगाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। नतीजा यह हुआ कि इस साल भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा गेहूं आयातक देश बन गया। उसने 1 जून 2007 को खत्म विपणन वर्ष में 67 लाख टन गेहूं का आयात किया। 39 लाख टन भंडार में कमी को पूरा करने के लिए और 28 लाख टन आगे के इंतज़ाम के लिए। आपको बता दें कि सरकार को हर महीने पीडीएस के लिए 10 लाख टन गेहूं की ज़रूरत पड़ती है।
इस बार गेहूं की जो भी सरकारी खरीद हुई, उसमें सबसे बड़ा योगदान पंजाब और हरियाणा का रहा। सवाल उठता है कि बाकी राज्यों में पैदा हुआ गेहूं गया कहां? जवाब एकदम साफ है कि इन राज्यों का लगभग सारा गेहूं आईटीसी, हिंदुस्तान यूनिलीवर या कारगिल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने खरीद लिया। किसानों को इन कंपनियों ने थोड़ा ज्यादा दाम दिया तो वह अपना गेहूं सरकारी एजेंसियों को क्यों बेचते?
लेकिन पीडीएस के गेहूं की कमी के मनोवैज्ञानिक असर के चलते खुले बाज़ार गेहूं की कीमतें बढ़ गईं। ऊपर से भारत की तरफ से इतनी भारी मांग आने पर अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इस साल गेहूं 64 फीसदी महंगा हो गया। अब गेहूं की इन बढ़ी कीमतों को देखकर किसानों को लगने लगा है कि वे इस बार गेहूं की खेती से ज्यादा कमाई कर सकते हैं। सो उन्होंने गेहूं की खेती का रकबा बढ़ा दिया है। जहां पिछले साल 285 हेक्टेयर में गेहूं बोया गया था, वहीं इस साल अनुमान है कि गेहूं का रकबा 290 लाख हेक्टेयर से ज्यादा रहेगा।
मगर हकीकत यह है कि भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के चेयरमैन आलोक सिन्हा के मुताबिक ताज़ा आयात के बाद सरकार के पास 50 लाख टन का आरक्षित भंडार रहेगा, जबकि ज़रूरत 40 लाख टन की ही है। यानी, सरकार की तरह से ज्यादा मांग नहीं आनेवाली। ऊपर से अनुमान यह है कि ज्यादा क्षेत्रफल में बोवाई से गेहूं उत्पादन 755 लाख टन के आसपास रहने का अनुमान है। जाहिर है सप्लाई बढ़ने और मांग घटने से गेहूं की कीमतें ज्यादा रहने के आसार नहीं हैं। ऐसे में जिन किसानों ने ज्यादा कमाई की उम्मीद में गेहूं का रकबा बढ़ा दिया है, उन्हें अपनी उम्मीदों के टूटने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसे कहते हैं गेहूं के साथ घुन (किसान) का पिसना।
अंत में दो निष्कर्ष। एक, गरीबों के नाम पर सरकार ने गेहूं आयात के लिए सरकारी खज़ाना खाली किया। और दो, बहुराष्ट्रीय कंपनी को फायदा पहुंचाने के चक्कर में बीजेपी की राज्य सरकारों ने गरीबों की रोटी छीनने के साथ ही मध्यवर्ग की जेब में छेद कर दिया।
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हरित क्रांति से विषमता भी कम होगी समाज में।