कुत्ते का ब्रह्मज्ञान

सुबह-सुबह फालतू बहस में समय क्यों खोटी किया जाए! आइए एक कहानी सुनते हैं। बात बहुत पुरानी है। उस समय कुत्ते आदमी की और आदमी कुत्तों की भाषा जानते थे और कुछ कुत्ते तो सामगान करते हुए भौंकते थे। जो लोग कुत्तों की भाषा समझ लेते थे, वे कुत्तों के ज्ञान पर आदमी के ज्ञान से अधिक भरोसा करते थे। एक खास आध्यात्मिक ऊंचाई पर पहुंचे हुए कुत्ते ऐसे लोगों से उसी तेवर और तर्ज में बात करते थे जैसे ऋषियों में अपने को सीनियर माननेवाले नए स्नातकों से किया करते थे। कहते हैं उन्हीं दिनों एक ऋषिकुमार स्वाध्याय के लिए गांव के बाहर एकांत में बने एक जलाशय के पास आया। जब वह जलाशय के किनारे टहलता हुआ रट्टा मार रहा था, उसी समय उसके सामने एक सफेद कुत्ता प्रकट हुआ। वह कुत्ता या तो पिछले जन्म में सामगान की कोई पाठशाला चलाता था या इस जन्म में किसी सामगायक के आश्रम के आसपास मंडराता रहता था। सामगान सुनते-सुनते उसका स्वर इतना सध गया था कि भले ही ऋषियों का सामगान व्यर्थ चला जाए, उसका कभी नहीं जा सकता था।

वह कम से कम अपनी बिरादरी को देखते हुए विद्वान भी इतना हो गया था कि देश-देशांतर में घूमते हुए दूसरे कुत्तों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारता रहता था। इस अनुमान का कारण यह है कि उसके प्रकट होने के कुछ ही देर बाद दूसरे कई कुत्ते उसके पास आए और बोले, “भगवन, हमें बहुत भूख लगी है। अत: आप हमारे लिए अन्न का आगान कीजिए।” इस बात की पूरी संभावना है कि ये कुत्ते भी आम कुत्ते नहीं, अपितु उसी के शिष्य थे जो उसके साथ ही भ्रमण कर रहे थे और शास्त्रीय संकट आने पर दूसरे कुत्तों को हूट सकते थे। ये सभी कई दिन से भूखे थे।

उस कुत्ते ने यदि तुरंत अन्नवर्षी सामगान कर दिया होता तो उसकी अपनी हैसियत को बट्टा लग जाता। देखने-सुनने वाले समझते कि वह उन कुत्तों का हुक्म बजा रहा है। इस भ्रामक स्थिति को टालने के लिए उसने इस आयोजन को कम से कम चौबीस घंटे के लिए टाल देना उचित समझा। उसने आदेश के स्वर के कहा, “तुम लोग ठीक इसी समय कल आना।”

यह बात जलाशय के किनारे रट्टा मार रहे उस ऋषिकुमार ने भी सुन ली। यह निश्चय ही भूख मिटाने का एक नायाब तरीका था। गान गाओ, भोजन की थाली सामने आ जाए। खेती-बारी और चूल्हे-चक्की के झंझट से छुट्टी। इसे जानना कुत्तों के लिए जितना ज़रूरी था, उतना ही ज़रूरी ऋषियों के लिए भी था क्योंकि इस एक रहस्य का ज्ञान न होने के कारण आपदा के समय में वामदेव और विश्वामित्र को कुत्तों की अंतड़ियां पकाकर खानी पड़ी थीं और उषस्ति चाक्रायण को महावत के जूठे और घुने हुए उड़द।

उस कुमार को यद्यपि अलग से निमंत्रण नहीं दिया गया था, पर इस मंत्र को जानने की उत्सुकता के कारण वह भी ठीक उसी समय पर वहां उपस्थित हो गया। उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कुत्ते ठीक वेदपाठियों की तरह आचरण कर रहे हैं। जिस प्रकार सामगान करनेवाले बहिष्पवान स्तोत्र का पाठ करते हुए एक साथ मिलकर परिक्रमा करते हैं, उसी तरह कुत्तों ने एक दूसरे की पूंछ दांतों में दबाए हुए परिक्रमा की और बैठकर हिंकार करने लगे। वे गा रहे थे : ओम् हम खाते हैं, ओम् हम पीते हैं, ओम् देवता, वरुण, प्रजापति, सूर्यदेव यहां अन्न लाएं। हे अन्नपते, यहां अन्न लाओ, अन्न लाओ, ओम्।

कहानीकार ने यह नहीं बताया है कि अन्न उसके बाद आया भी या नहीं क्योंकि कहानी यहीं पर समाप्त मान ली गई। पर यहां बहुत बड़ा कलात्मक रहस्य छिपा हुआ है। लोग कहते हैं कि कहानी में सब कुछ कहना ज़रूरी नहीं। पाठकों के अनुमान पर भरोसा करते हुए कुछ छोड़ भी दिया जा सकता है।

- भगवान सिंह रचित और नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘उपनिषदों की कहानियां’ से इसी शीर्षक की कहानी के संपादित अंश

Comments

DesignFlute said…
यह किताब मेरे पास भी थी. अभी कुछ कहानिया ही पढ़ी थी कि कोई ले गया. अच्छी किताब के बारे में याद दिलाने के लिए धन्यवाद. इसे फिर से खरीदूगां.
Udan Tashtari said…
मन कर रहा है कि यह किताब मिल जाये और इसे पूरी पढ़ पाऊँ.

उपनिषदों की कहानियां-प्रयास करुँगा. आपका आभार यह अंश प्रस्तुत करने का.
Anonymous said…
अनिल जी आपने यह कहानी इस टिप्पणी के साथ शुरु की है कि सुबह-सुबह फालतू बहस में समय क्यो खोटी किया जाय.. पर आपने इसे अपने खरी-खोटी वाले लेबल में भी डाला.....क्यों !!
मैं आप लोगों की तरह विचारों की मर्मज्ञ नहीं हूं एक विद्यार्थी की तरह हूं और सीखने समझने की कोशिश कर रही हूं। मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में 'आइसा' में सक्रिय भागीदारी की है पर अब कुछ निजि कारणों के चलते ऐसा नहीं कर पा रही हूं। वहां मैने देखा है कि वैचारिक रुप से मजबूत लोग बीच रास्ते से अपने निजि कारणों के चलते भाग खडे नहीं हुए हैं बल्कि दोनों ही स्तर पर (वैचारिक औऱ समाजिक)पर ज्यादा समझदारी के साथ डटे रहे हैं। कुछ जो समझ को उम्र और परिवार का मोहताज मानते हैं वे उससे अलग होने के बाद अपने अलगाव को सही साबित करने के लिए उन्ही सपनों का मजाक उडाते हैं जिसे कभी उन्होने भी देखा था। मतभेद होना एक बात है पर कहानी के बहाने भडास निकालना.....आप खुद ही अनुमान लगा लिजिए.....।
अभिव्यक्ति जी, मैं आपकी भावनाओं और पारखी दृष्टि की कद्र करता हूं। लेकिन जितना है उतना ही देखिए। ऐसा संभव नहीं हो सकता कि उपनिषद की कोई कथा सदियों पहले ही लिख इसलिए दी गई थी कि साल 2007 में अनिल रघुराज नाम का कोई शख्स अपनी भडांस निकालेगा तो इस कहानी का शब्दश: इस्तेमाल कर सकता है। मुझे भडांस निकालनी होगी तो मेरे पास बहुत सारा कुछ है कहने के लिए। क्यों आप लोग छेड़ते जा रहे हैं ताकि मैं संयम तोड़कर अनाप-शनाप लिखने पर उतारू हो जाऊं, जिससे फायदा किसी का नहीं होगा, ताली बजाकर मजा लेने वालों की मौज हो जाएगी।
वैसे, खरी-खोटी का टैग आप जैसी संशयात्माओं को परखने के लिए ही लगाया था, सायास।

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