अफसोस! न कोई मुस्लिम दोस्त है, न पड़ोसी
यूं तो दोस्तों को जाति या धर्म में बांटकर मैंने कभी नहीं देखा। लेकिन आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ था कि ईद की सेवइयां कहीं न कहीं से मिल न गई हों। इस बार ऐसा नहीं हुआ तो अचानक ध्यान गया कि मुंबई में न तो मेरा कोई मुस्लिम दोस्त है और न ही कोई पड़ोसी। देश की लगभग 110 करोड़ की आबादी में करीब 15 करोड़ मुसलमान हैं (पाकिस्तान की पूरी आबादी के बराबर) यानी हर दस हिंदुस्तानियों में कम से कम एक मुस्लिम है। फिर ऐसा क्यों है कि करीब दो सौ परिवारों की हमारी हाउसिंग सोसायटी में एक भी मुस्लिम नहीं है?
हां, ये सच है कि बंटवारे की राजनीति और दंगों ने हमारे शहरों में धार्मिक आधार पर मोहल्लों और बस्तियों का धुव्रीकरण कर दिया है। इसने हम से विविधता का वो चटख रंग छीन लिया है, बचपन से ही हम जिसके आदी हो चुके थे। मैं राम जन्मभूमि और अवध के उस इलाके से आता हूं जहां हमारे चाचा, ताऊ और पिताजी आजी सलाम, बड़की माई सलाम और बुआ सलाम कहा करते थे। ताजिया के मौके पर आजी हम बच्चों को धुनिया (जुलाहों की) बस्ती में भेजती थी, मन्नत मांगती थी। बकरीद पर मुसलमानों के घर से हमारे यहां भी खस्सी का गोश्त आता था।
अम्मा-बाबूजी बाद में कस्बे में रहने चले गए तो वहां भी चुड़िहारिन से लेकर दर्जी और साइकिल का पंचर लगानेवाले तक मुसलमान थे। प्राइमरी स्कूल में पांचवीं क्लास में मौलवी साहब की मार मैंने भी खाई है। हां, ये ज़रूर है कि वसी अहमद के यहां कपड़े सिलाने जाता था तो अम्मा कहती थीं कि उनके यहां चाय-पानी मत पीना क्योंकि उनके घरों की औरतें उसमें थूक देती हैं। लेकिन हम बच्चे इससे बेफिक्र थे और पंडितों की तरह जहां खाने-पीने को मिलता था, मना नहीं कर पाते थे। बड़ा बुजुर्ग चाहे मुसलमान हो या पंडित जी, सबका आदर करने का संस्कार हमारे अंदर कूट-कूट भरा था।
एक ऐसा अपनापा अचेतन में बैठ गया था कि यूनिवर्सिटी में पहुंच गया, तब तक मुझे अजान की आवाज़ बहुत अच्छी लगती थी। किन्हीं क्षणों में तो मुझे यहां तक लगा था कि मैं पिछले जन्म में मुसलमान था और सबीना नाम की कोई महिला मेरी मां, बहन या बीवी हुआ करती थी।
मेरे चाचा-चाची अयोध्या में रहते हैं। 1992 में बाहर से आए रामभक्त उनके भी घर में रुके थे तो कस्बे के मेरे घर में भी रात काटकर गए थे। लेकिन हमारे घरों की रामभक्ति कभी भी मुस्लिम-विरोध में नहीं बदल पाई। रामनाम पर चली राजनीति ने देश भर में जितनी भी नफरत फैलाई हो, लेकिन अयोध्या से लेकर अवध इलाके के गांवों में आम ज़िंदगी पर इसका कोई खास असर नहीं दिखाई पड़ा।
इसलिए मुझे एक बात समझ में आती है कि मुस्लिम-विरोध और दंगों की राजनीति का कोई ज़मीनी आधार नहीं है। ये हमारी राजनीति के लिए एक एलियन जैसी चीज़ है। यह ग्योबेल्स की उस चाल पर आधारित है जो कहता था कि एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच बन जाता है। इस राजनीति को उन दंगों से खुराक मिलती है जो होते नहीं, कराए जाते हैं। प्रायोजित झूठ के आधार होनेवाली इस राजनीति की नफरत का ज़मीनी आधार न होना साबित कर देता है कि अवाम और राष्ट्र के हितों से इसका कोई वास्ता नहीं है।
फिर यह राजनीति किसका हित कर रही है? अंग्रेजों ने फूट-डालो, राज करो की नीति अपनी लूट को चलाने के लिए चला रखी थी। लेकिन इनकी फूट-डालो की नीति के पीछे कौन-सी लूट छिपी है, कौन-सा खतरनाक इरादा छिपा है, इसको बेनकाब करने की ज़रूरत है। यह बेहद ज़रूरी है क्योंकि इसने हमारे सहज संबंधों की सरसता को छीन लिया है, हमारी मीठी सेवइयों को हमसे छीन लिया है।
हां, ये सच है कि बंटवारे की राजनीति और दंगों ने हमारे शहरों में धार्मिक आधार पर मोहल्लों और बस्तियों का धुव्रीकरण कर दिया है। इसने हम से विविधता का वो चटख रंग छीन लिया है, बचपन से ही हम जिसके आदी हो चुके थे। मैं राम जन्मभूमि और अवध के उस इलाके से आता हूं जहां हमारे चाचा, ताऊ और पिताजी आजी सलाम, बड़की माई सलाम और बुआ सलाम कहा करते थे। ताजिया के मौके पर आजी हम बच्चों को धुनिया (जुलाहों की) बस्ती में भेजती थी, मन्नत मांगती थी। बकरीद पर मुसलमानों के घर से हमारे यहां भी खस्सी का गोश्त आता था।
अम्मा-बाबूजी बाद में कस्बे में रहने चले गए तो वहां भी चुड़िहारिन से लेकर दर्जी और साइकिल का पंचर लगानेवाले तक मुसलमान थे। प्राइमरी स्कूल में पांचवीं क्लास में मौलवी साहब की मार मैंने भी खाई है। हां, ये ज़रूर है कि वसी अहमद के यहां कपड़े सिलाने जाता था तो अम्मा कहती थीं कि उनके यहां चाय-पानी मत पीना क्योंकि उनके घरों की औरतें उसमें थूक देती हैं। लेकिन हम बच्चे इससे बेफिक्र थे और पंडितों की तरह जहां खाने-पीने को मिलता था, मना नहीं कर पाते थे। बड़ा बुजुर्ग चाहे मुसलमान हो या पंडित जी, सबका आदर करने का संस्कार हमारे अंदर कूट-कूट भरा था।
एक ऐसा अपनापा अचेतन में बैठ गया था कि यूनिवर्सिटी में पहुंच गया, तब तक मुझे अजान की आवाज़ बहुत अच्छी लगती थी। किन्हीं क्षणों में तो मुझे यहां तक लगा था कि मैं पिछले जन्म में मुसलमान था और सबीना नाम की कोई महिला मेरी मां, बहन या बीवी हुआ करती थी।
मेरे चाचा-चाची अयोध्या में रहते हैं। 1992 में बाहर से आए रामभक्त उनके भी घर में रुके थे तो कस्बे के मेरे घर में भी रात काटकर गए थे। लेकिन हमारे घरों की रामभक्ति कभी भी मुस्लिम-विरोध में नहीं बदल पाई। रामनाम पर चली राजनीति ने देश भर में जितनी भी नफरत फैलाई हो, लेकिन अयोध्या से लेकर अवध इलाके के गांवों में आम ज़िंदगी पर इसका कोई खास असर नहीं दिखाई पड़ा।
इसलिए मुझे एक बात समझ में आती है कि मुस्लिम-विरोध और दंगों की राजनीति का कोई ज़मीनी आधार नहीं है। ये हमारी राजनीति के लिए एक एलियन जैसी चीज़ है। यह ग्योबेल्स की उस चाल पर आधारित है जो कहता था कि एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच बन जाता है। इस राजनीति को उन दंगों से खुराक मिलती है जो होते नहीं, कराए जाते हैं। प्रायोजित झूठ के आधार होनेवाली इस राजनीति की नफरत का ज़मीनी आधार न होना साबित कर देता है कि अवाम और राष्ट्र के हितों से इसका कोई वास्ता नहीं है।
फिर यह राजनीति किसका हित कर रही है? अंग्रेजों ने फूट-डालो, राज करो की नीति अपनी लूट को चलाने के लिए चला रखी थी। लेकिन इनकी फूट-डालो की नीति के पीछे कौन-सी लूट छिपी है, कौन-सा खतरनाक इरादा छिपा है, इसको बेनकाब करने की ज़रूरत है। यह बेहद ज़रूरी है क्योंकि इसने हमारे सहज संबंधों की सरसता को छीन लिया है, हमारी मीठी सेवइयों को हमसे छीन लिया है।
Comments
अभी फिलहाल मेरा भी कोई मुसलमान दोस्त नहीं है तो हम भी सेवैइयों से महरूम है.
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मेरे दोस्त इकबाल और मुजीब और हाँ कासिफ यदि कहीं नैट पे हो तो बताओ. वो सेवैइयां याद आ रही हैं.
घुघूती बासूती
और महाराज यह क्या कह रहें है,"हमारी हाउसिंग सोसायटी में एक भी मुस्लिम नहीं है". रविशकुमार सुन लेंगे तो... :) आप नरपिशाचों के गुजरात में तो नहीं रहते होंगे?
हम तो पूर्ण शाकाहारी थे/हैं पर गांव में भी बन्धुत्व और ईद मुबारक का माहौल रहता था।
थोक वोट बैंक की राजनीति ने बहुत गन्द मचाया है। समाज की समरसता बिगाड़ने में।
हम एक एक महीने के लिए ईरानी मित्रो के घर रह आते है जहाँ राह चलते अंजान लोग भी भारत देश का नाम सुनते ही आदर से सर झुका लेते हैं.देश से दूर साउदी अरब मे हमारे दुख सुख के साथी मुसलमान मित्र ही थे.