यूरेका यूरे-का, फॉर्मूला हिट का
तकनीकी अल्पज्ञता, अज्ञानता और जटिलता से कैसा भरभंड हो जाता है, यह मुझे कल की पोस्ट लिखने के बाद पता चला। चिट्ठाजगत ने इतनी परिष्कृत सेवा दे रखी है, लेकिन मैं उसे समझ नहीं सका। उल्टा उसी पर बरस पड़ा। अगर मैं चिट्ठाजगत के पारंपरिक प्रारूप में अपनी पोस्ट देखता रहता तो मुझे शिकायत का कोई मौका मिलता ही नहीं। लेकिन अनजाने में गड़बड़ हो गई। इससे चिट्ठाजगत के व्यवस्थापकों को जो भी परेशानी हुई है, उसके लिए मैं तहेदिल से माफी चाहता हूं। लेकिन इस प्रकरण से मुझे ऐसा ज्ञान मिला है कि मैं आर्किमिडीज की तरह यूरेका-यूरेका कह उठा।
वह यह कि हम हिंदी ब्लॉगरों का जो कॉमन सूत्र है, उसी को पीटने लगें तो हर कोई उचक-उचक देखने लगेगा। नतीजतन, उस पोस्ट पर आपके हिट सनसनाने लगेंगे। आप ही देखिए ना कि जहां जुलाई के बाद से सक्रिय होने के बाद मेरे ब्लॉग के औसत विजिटर 90 और पेज व्यू 200 के आसपास रहते थे, वहीं कल यह गैर-ज़रूरी सी पोस्ट लिखने पर विजिटर का आंकड़ा 170 और पेज व्यू का आंकड़ा 398 पर पहुंच गया। तीन महीनों से रोज़ दो से तीन पोस्ट लिखने के बावजूद कभी-कभार ही मेरे विजिटर 100 से ऊपर जा पाते थे, मगर एक छोटी-सी पोस्ट कमाल कर गई।
इससे तीन बातें साफ हुई हैं। एक, हिंदी ब्लॉगिंग में अभी तक ब्लॉगर समुदाय के बाहर के पाठक बहुत मामूली हैं। ज्यादातर ब्लॉगर विंडो-शॉपिंग तक नहीं करते। वे दूसरे के ब्लॉग पर तभी जाते हैं, जब वहां पर कोई सनसनी परोसी गई होती है। वे अक्सर उसी पोस्ट को पढ़ते हैं जहां से उन्हें अपने ब्लॉग को चमकाने का मसाला मिल सके। इसीलिए एग्रीगेटर से जुड़े विवादों और हिट के सूत्रों में उनकी ज्यादा दिलचस्पी होती है।
इस सिलसिले में दो पुराने उदाहरण मेरे पास हैं। जब मैंने गणेश विसर्जन की विद्रूप मूर्तियों पर पोस्ट बनाई और शीर्षक दिया कि ये तस्वीरें आपको विचलित कर सकती हैं तो अचानक ब्लॉग पर धड़ाधड़ विजिटर आने लगे। इससे पहले एनडीटीवी से दिबांग की छुट्टी की खबर लगाई तब भी एकबारगी विजिटर संख्या 100 के ऊपर चली गई थी।
दो, अपने अंदर के सवालों को सुलझाने या बाहर की समस्याओं को समझने में ज्यादातर हिंदी ब्लॉगरों की रुचि काफी कम है। वे अच्छा शीर्षक देखकर भी अंदर जाकर नहीं झांकते कि इस पोस्ट में लिखा क्या गया है। उनको यह तो शिकायत रहती है कि दूसरे उनकी बातों को तवज्जो नहीं दे रहे। न उनके ब्लॉग पर आ रहे हैं और न ही आने पर टिप्पणी कर रहे हैं। लेकिन खुद वे दूसरों का काम का लिखा पढ़ते तो नहीं ही हैं, झांक कर देखना भी गवारा नहीं करते।
तीन, अधिकांश हिंदी ब्लॉगर अपने-अपने शून्य में रह रहे हैं। अंदर-अंदर इस शून्य को तोड़ने की इच्छा तो है, लेकिन उनके अहं को तिनका भी छू जाए तो बरदाश्त नहीं कर पाते। सच कहूं तो हम ब्लॉगरों में कहीं न कहीं से हिंदी के टुटपुंजिया, लघु पत्रिकाओं वाले साहित्यकारों की आत्मा घुस आई है। वही लेखक, वही पाठक, वही समीक्षक। एक दूसरे को चाटकर नमकीन कहने का वही अंदाज।
मैं नहीं कहता कि सारे के सारे हिंदी ब्लॉगर ऐसे ही हैं। सारथी जी ने करीब 50 हिंदी ब्लॉगरों की जो सूची दिखाई है, उसके अलावा इतने ही ब्लॉग और होंगे जो काफी गंभीरता से लिखते हैं कविताओं से लेकर निवेश की सलाह तक। और, सृजन-शिल्पी, फुरसतिया, रवि रतलामी, अनामदास, उड़न तश्तरी, अंतरिम (राजीव), सारथी, प्रत्यक्षा, ई-पंडित, अजय ब्रह्मात्मज, निर्मल आनंद, अज़दक, मोहल्ला, संजय तिवारी, कस्बा, काकेश, संजय बेंगानी, पंकज बेंगानी, सागरचंद नाहर, नीरज दीवान और प्रतीक पांडे की संजीदगी की दाद देने से कोई बच नहीं सकता। लेकिन बहुत सारे ब्लॉगर अब भी सनसनी पसंद करते हैं, इसमें भी कोई दो राय नहीं है।
वह यह कि हम हिंदी ब्लॉगरों का जो कॉमन सूत्र है, उसी को पीटने लगें तो हर कोई उचक-उचक देखने लगेगा। नतीजतन, उस पोस्ट पर आपके हिट सनसनाने लगेंगे। आप ही देखिए ना कि जहां जुलाई के बाद से सक्रिय होने के बाद मेरे ब्लॉग के औसत विजिटर 90 और पेज व्यू 200 के आसपास रहते थे, वहीं कल यह गैर-ज़रूरी सी पोस्ट लिखने पर विजिटर का आंकड़ा 170 और पेज व्यू का आंकड़ा 398 पर पहुंच गया। तीन महीनों से रोज़ दो से तीन पोस्ट लिखने के बावजूद कभी-कभार ही मेरे विजिटर 100 से ऊपर जा पाते थे, मगर एक छोटी-सी पोस्ट कमाल कर गई।
इससे तीन बातें साफ हुई हैं। एक, हिंदी ब्लॉगिंग में अभी तक ब्लॉगर समुदाय के बाहर के पाठक बहुत मामूली हैं। ज्यादातर ब्लॉगर विंडो-शॉपिंग तक नहीं करते। वे दूसरे के ब्लॉग पर तभी जाते हैं, जब वहां पर कोई सनसनी परोसी गई होती है। वे अक्सर उसी पोस्ट को पढ़ते हैं जहां से उन्हें अपने ब्लॉग को चमकाने का मसाला मिल सके। इसीलिए एग्रीगेटर से जुड़े विवादों और हिट के सूत्रों में उनकी ज्यादा दिलचस्पी होती है।
इस सिलसिले में दो पुराने उदाहरण मेरे पास हैं। जब मैंने गणेश विसर्जन की विद्रूप मूर्तियों पर पोस्ट बनाई और शीर्षक दिया कि ये तस्वीरें आपको विचलित कर सकती हैं तो अचानक ब्लॉग पर धड़ाधड़ विजिटर आने लगे। इससे पहले एनडीटीवी से दिबांग की छुट्टी की खबर लगाई तब भी एकबारगी विजिटर संख्या 100 के ऊपर चली गई थी।
दो, अपने अंदर के सवालों को सुलझाने या बाहर की समस्याओं को समझने में ज्यादातर हिंदी ब्लॉगरों की रुचि काफी कम है। वे अच्छा शीर्षक देखकर भी अंदर जाकर नहीं झांकते कि इस पोस्ट में लिखा क्या गया है। उनको यह तो शिकायत रहती है कि दूसरे उनकी बातों को तवज्जो नहीं दे रहे। न उनके ब्लॉग पर आ रहे हैं और न ही आने पर टिप्पणी कर रहे हैं। लेकिन खुद वे दूसरों का काम का लिखा पढ़ते तो नहीं ही हैं, झांक कर देखना भी गवारा नहीं करते।
तीन, अधिकांश हिंदी ब्लॉगर अपने-अपने शून्य में रह रहे हैं। अंदर-अंदर इस शून्य को तोड़ने की इच्छा तो है, लेकिन उनके अहं को तिनका भी छू जाए तो बरदाश्त नहीं कर पाते। सच कहूं तो हम ब्लॉगरों में कहीं न कहीं से हिंदी के टुटपुंजिया, लघु पत्रिकाओं वाले साहित्यकारों की आत्मा घुस आई है। वही लेखक, वही पाठक, वही समीक्षक। एक दूसरे को चाटकर नमकीन कहने का वही अंदाज।
मैं नहीं कहता कि सारे के सारे हिंदी ब्लॉगर ऐसे ही हैं। सारथी जी ने करीब 50 हिंदी ब्लॉगरों की जो सूची दिखाई है, उसके अलावा इतने ही ब्लॉग और होंगे जो काफी गंभीरता से लिखते हैं कविताओं से लेकर निवेश की सलाह तक। और, सृजन-शिल्पी, फुरसतिया, रवि रतलामी, अनामदास, उड़न तश्तरी, अंतरिम (राजीव), सारथी, प्रत्यक्षा, ई-पंडित, अजय ब्रह्मात्मज, निर्मल आनंद, अज़दक, मोहल्ला, संजय तिवारी, कस्बा, काकेश, संजय बेंगानी, पंकज बेंगानी, सागरचंद नाहर, नीरज दीवान और प्रतीक पांडे की संजीदगी की दाद देने से कोई बच नहीं सकता। लेकिन बहुत सारे ब्लॉगर अब भी सनसनी पसंद करते हैं, इसमें भी कोई दो राय नहीं है।
Comments
2. सनसनी तो जीवन में आये - पोस्ट में इतनी जरूरी नहीं! :-)
सही कह रहे हैं -
सनसनी सनसनाती है सभी को-
--अपने तो यह टीवी न्यूज चैनेल टाईप की चीज दीखे है-हल्ला मचाओ, सब भागे चले आयेंगे. मगर बड़ा शार्ट माहौल होता है इस तरह से.
-आपका एनालिसिस बिल्कुल सही है और चिट्ठाजगत की सार्थकता और उत्कृष्टता पर तो खैर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं है. बहुत मेहनत की गई है और की जा रही है. वही ब्लॉगवाणी के साथ भी सत्य है.
यह कटु सत्य है पर हम चिट्ठाकार भी इससे अछूते नहीं है और इसी का लाभ चिट्ठाकार उठाते हैं और शीर्षक इस तरह के रखते हैं जिससे लोग खिंचे चले आते हैं; भले ही फिर किसी अच्छे लेख वाले ने अपना शीर्षक अच्छा ना रखा हो तो कोई पास नहीं फटकता।
धन्यवाद
आपने कहा तो सोच कर देखा....शायद यह सच है। और अगर यही सच है तो चिन्ता की बात है।
रही बात ब्लॉगरों की सोच की तो इसमें आशा करनी चाहिये। अभी तो और भी आयेंगे, कारवाँ बढ़ेगा ही। तब कुछ और भी विविध लेखन होगा। मेरी भी एक चिंता है - वह यह कि चिट्ठों का विषय-विशेष के आस पास केन्द्रित न होना (मैं तो शायद सबसे कम पोस्ट वाला होउँ, पर मेरा भी चिट्ठा कोई विषय विशेष के आस पास नहीँ)। यह कोई बुराई नहीँ है - चिट्ठा तो स्वतंत्र है, परंतु चिट्ठे की दीर्घकालिक उपयोगिता और उससे पाठकों का लम्बे अरसे तक जुड़ाव होने का यह मूलभूत आधार हो शायद। हम लोगों को मानक अल्पकालिक न हो, वही बेहतर होगा। इस संदर्भे में मुझे "शब्दों का सफर" एक बहुत जीवंत और आदर्श चिट्ठा जान पड़ता है। देखिये 2 वर्ष और उसके बाद भी उस पर कितने पाठक प्रतिदिन होंगे।
इंटरनेट पर आपका लिखा सदा-सर्वदा के लिए रहने वाला है और वह हर उस पाठक को सर्च इंजन के मार्फत हमेशा उपलब्ध हो जाएगा, जो उस विषय पर कुछ महत्वपूर्ण और उपयोगी पढ़ना चाहेगा।
इंटरनेट पर किसी एक वेब पेज पर पाठक के अटकने की अवधि बहुत कम होती है। ब्लॉग के माध्यम से लोग अपने को अभिव्यक्त करने को जितने अधिक आतुर होते हैं, उतना ग्रहण करने के लिए नहीं। यह स्वाभाविक है कि लोग गंभीर किस्म के विषयों, सवालों पर अधिक ध्यान न दें।
अपने लेखन के मामले में मेरी धारणा यह है कि यदि पूरी दुनिया में यदि किसी एक पाठक तक भी मेरी बात सही ढंग से पहुंच जाए तो मुझे अपनी मेहनत सार्थक लगती है।