वो अभिशप्त हैं जो सिर्फ अपनी सोचते हैं

कितनी विचित्र बात है कि जो परहित या परमार्थ आज से चार-पांच सौ साल पहले एक आदर्श हुआ करता था, वही आज संस्थाबद्ध होकर स्वार्थ-सिद्धि का सबसे कारगर साधन बन गया है। तुलसी ने लिखा - परहित सरस धरम नहीं भाई। रहीम ने कहा - तरुवर फल चाखै नहीं, नदी न संचय नीर, परमारथ के कारने साधुन धरा सरीर। हमें बचपन से ही परहित और पर-उपकार की नैतिक घुट्टी पिलाई गई। लेकिन यह नहीं बताया गया कि बेटा, परहित करोगे, तभी अपना हित सधेगा। परोपकार ही आज के ज़माने में स्वार्थ-सिद्धि का अचूक नुस्खा है।
जी हां, आज ज़माना परमार्थ का है। जो जितना बड़ा परमार्थी है, वह उतना ही बड़ा अर्थ-वान है। और, जो लोग महज अपनी भलाई को लेकर कुढ़ते रहते हैं, उसी के लिए चौबीसों घंटे फिक्रमंद रहते हैं, वे सारी ज़िंदगी अर्थाभाव में काटने के लिए अभिशप्त हैं। स्वार्थी लोगों के लिए आज की दुनिया में कोई जगह नहीं है। आज जो जितना औरों की ज़रूरत के बारे में सोचता है, उसके पास अपना स्वार्थ पूरा करने के उतने ही साधन और अवसर जुट जाते हैं। अंबानी अगर आज केवल अपनी ज़रूरत के बारे में सोचने लगें तो उन्हें नए तेल कुओं की खोज और टेलिकॉम क्षेत्र में नई-नई तकनीक लाने की क्या ज़रूरत है!
असल में, अपनी ही भलाई की सोच का आधार पुरानी आत्मनिर्भर कृषि व्यवस्था है, गुजारे के लिए की जानेवाली खेती है। इस सोच की बुनियाद में वह किसान छिपा बैठा है जो अपनी ज़रूरत भर का अनाज-दाल और तिलहन अपने ही खेतों से पैदा कर लेता था। इसी कमाई का एक हिस्सा बेचकर बाकी ज़रूरतें पूरा करता था। इस किसान की जीवन-स्थितियां उसे स्वार्थी सोच के सुरक्षा कवच में डाल देती थीं। लेकिन आप ही बताइए जो किसान औरों के लिए नहीं पैदा करेगा, बाज़ार के लिए नहीं पैदा करेगा, उसके पास पैसा कहां से आएगा और पैसा नहीं होगा तो वह अपने जीवन में सुख-सुविधा कैसे हासिल करेगा?
दूसरी तरफ परमार्थ या परहित की सोच पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का आधार है। इसमें पैसे वाला किसी राजा-महाराजा या धन्नासेठ की तरह महज अपने उपभोग, शानोशौकत और ऐशो-आराम के बारे में ही नहीं सोचता। वह ऐसे उत्पाद या सेवा का पता लगाने में अपनी सारी ताकत झोंक देता है जो औरों के काम की हो। वह लोगों की ज़रूरत, पसंद-नापसंद का पता लगाने के लिए करोड़ों रुपए सर्वे पर खर्च कर देता है।
मुझे लगता है कि किसी दौर के आदर्श आनेवाले दौर के बेहद सांसारिक व्यवहार की ज़मीन तैयार करते हैं। जैसे, 1947 से जिन लोगों ने पढ़ाई-लिखाई छोड़कर आज़ादी के आंदोलन में छलांग लगा दी थी, इसके लिए मां-बाप के ताने सहे थे, उनका इस तरह आदर्शवादी होना देश के आज़ाद होने पर बड़ा व्यावहारिक फैसला साबित हो गया। मेरे नाना को उनके पिता ने बाल-बच्चों समेत खुद लालटेन लेकर आधी रात को घर से बाहर निकाल दिया था। लेकिन आज़ादी के बाद नाना को उत्तर प्रदेश की तराई (अब उत्तराखंड) में 22 एकड़ ज़मीन मिली। उनका परिवार धीरे-धीरे आज बड़ा फार्मर बन गया है। इसी तरह जेपी आंदोलन के छात्रनेता आज किस तरह मलाई खा रहे हैं, आप खुद देख सकते हैं।
कुछ लोग कह सकते हैं कि मेरी ये बातें खाए-पीए-अघाए शख्स का ‘दर्शन’ हैं। लेकिन मैंने बहुत मोटा-मोटी, सामान्यीकृत बात कही है। इसे सूक्ष्मतर रूप देना आपका काम है। मेरा बस इतना भर पूछना है कि अगर आप सिर्फ अपनी बात सोचेंगे तो दूसरे आपको क्यों स्वीकार करने लगे? काफ्का जैसे आत्मकेंद्रित लेखक भी इसलिए सफल होते हैं क्योंकि बहुतों को उनकी रचनाओं में अपना अक्श नज़र आता है। हां, कभी-कभी यह भी होता है कि आप छोटे होते-होते इतने विराट हो जाते हैं कि सभी आपके वजूद में समा जाते हैं। तब अणु की संरचना और ब्रह्माण्ड की संरचना में खास फर्क नहीं रह जाता।

Comments

अपने यहाँ एक बात बहुत पहले से प्रचलित है. कर भला हो भला. इसका मतलब यही है 'परमार्थ से स्वार्थ सधता है.'
....."दूसरी तरफ परमार्थ या परहित की सोच पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का आधार है।"

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सटीक विचार. पर पूंजीवादियों में भी थोड़े पुरनिया विचार के बचे हैं जो जोड़-तोड़ कर अपना भला छल के माध्यम से चाहते हैं. बाजार की सशक्त सोच उन्हे शीघ्र हाशिये पर डाल देगी.
Udan Tashtari said…
कभी-कभी यह भी होता है कि आप छोटे होते-होते इतने विराट हो जाते हैं कि सभी आपके वजूद में समा जाते हैं। तब अणु की संरचना और ब्रह्माण्ड की संरचना में खास फर्क नहीं रह जाता।


--वाह क्या बात कही है. आप तो प्रवचन मोड में आ गये, प्रभु.

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