सूंघ नहीं सकते तो अच्छा सोच नहीं सकते
मुझे प्राइवेट कंपनियों के दफ्तर बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि अक्सर वे खुले-खुले होते हैं। दीवारों और खिड़कियों के ऊंचे-ऊंचे कांच से अंदर जमकर उजाला आता है। बंद होने के बावजूद अंदर की हवा बड़ी साफ होती है, कोई दुर्गंध नहीं आती। लेकिन इनकम टैक्स, रेलवे या एजी ऑफिस जैसे तमाम सरकारी विभागों के दफ्तर मुझे बहुत गंदे लगते हैं क्योंकि वहां पुरानी फाइलों की दुर्गंध आती है। बंद खिड़कियों के भीतर अजीब-सी गंध घुटती रहती है।
मुझे उन रिश्तेदारों और परिचितों के घरों में दोबारा जाने का कतई मन नहीं होता जहां दरवाज़ा खुलते ही भकसाइन-सी गंध का भभका निकलता है। हालांकि दोस्तों पर ऐसी कोई शर्त लागू नहीं होती क्योंकि दोस्त तो दोस्त होते हैं। फिर मेरे कोई ऐसे दोस्त भी नहीं हैं जो इस तरह बंद दरवाजों और खिड़कियों के बीच रहने के आदी हों। पहले कुछ संघी टाइप दोस्त ऐसे थे, जो धारा बदलते ही अपने-आप किनारे लग गए।
मुझे वे लोग भी कतई अच्छे नहीं लगते जो अपने घर के खिड़की-दरवाज़े हमेशा कसकर बंद रखते हैं। मुझे तो अब लगने लगा है कि ऐसे लोग अच्छा और स्वस्थ सोच ही नहीं सकते। इन लोगों के सोचने-समझने की क्षमता भी खत्म होने लगती होगी क्योंकि हाल ही में मैंने पढ़ा है कि जीवों में मस्तिष्क का विकास सूंघने वाले टिश्यू से ही हुआ है। दक्षिण अफ्रीका में जन्मे प्रकृति-विज्ञानी ल्याल वाट्सन का कहना है कि सबसे पहले गंध थी, शब्द बाद में आए।
वाट्सन ने अपनी किताब ‘जैकबसंस ऑर्गन’ में लिखा है कि 40 करोड़ साल पहले मछली धरती की सबसे महत्वपूर्ण और विकसित जीव थी। इनमें से ज्यादातर मछलियों के पास जबड़े नहीं होते थे। ऐसी मछलियों की नसों में सूंघने के टिश्यू का जो बिंदु था, वही बाद में पहले मस्तिष्क के रूप में विकसित हुआ। उनका सूत्र वाक्य है, “हम सोचते हैं क्योंकि हम सूंघते हैं।” इसी किताब के कुछ अंश पढ़ने के बाद मुझे सूंघने की महत्ता समझ में आई।
लेखक का तर्क बड़ा सीधा है। देखने और सुनने की क्षमता हासिल होने के पहले हम आसपास की चीज़ों को उनकी गंध से ही पहचानते हैं। नवजात बच्चा मां की गोद में जाते ही उसे गंध से पहचान लेता है और रोना बंदकर चुप पड़ जाता है। गाय-भैंस भी अपने बच्चे को गंध से पहचान लेती हैं। दूसरे का उसी उम्र का बछड़ा देखते ही झटक कर दूर भगा देती हैं। किताब में स्त्री-पुरुष संसर्ग के लिए भी शरीर की गंध को काफी अहम माना गया है।
गंध की महत्ता अपने यहां कर्मकांडों में भी मानी गई है। नैवेद्यम् समर्पयामि, पुष्पम् समर्पयामि और आसनम् समर्पयामि के साथ गंधम् समर्पयामि भी आता है। इसलिए मेरा तो यही कहना है कि दिमाग को दुरुस्त रखना है तो अपनी घ्राण शक्ति में कोई अवरोध मत आने दीजिए। दरवाज़ा-खिड़की खोलकर खुले में मस्त रहने की आदत डालिए। बंद कमरे में रहने पर गंध-दुर्गंध का पता ही नहीं चलता। वो तो बाहर से कोई आता है तो उसे अहसास होता कि आप कैसी घुटन में सांस ले रहे थे।
नजला-जुकाम की शिकायत हो तो उसे फौरन दूर कीजिए क्योंकि इससे आपकी नाक ही नहीं, दिमाग भी बंद हो जाता है। मेरी बात भले ही एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दीजिए। लेकिन अपनी नाक सही सलामत रखिए क्योंकि इसी से आपके सूंघने की क्षमता बनी रहेगी। और, सूंघने की क्षमता बनी रहेगी तभी आप अच्छा लिख पाएंगे क्योंकि सबसे पहले ब्रह्म नहीं, गंध थी और शब्द उसके बाद में आए।
मुझे उन रिश्तेदारों और परिचितों के घरों में दोबारा जाने का कतई मन नहीं होता जहां दरवाज़ा खुलते ही भकसाइन-सी गंध का भभका निकलता है। हालांकि दोस्तों पर ऐसी कोई शर्त लागू नहीं होती क्योंकि दोस्त तो दोस्त होते हैं। फिर मेरे कोई ऐसे दोस्त भी नहीं हैं जो इस तरह बंद दरवाजों और खिड़कियों के बीच रहने के आदी हों। पहले कुछ संघी टाइप दोस्त ऐसे थे, जो धारा बदलते ही अपने-आप किनारे लग गए।
मुझे वे लोग भी कतई अच्छे नहीं लगते जो अपने घर के खिड़की-दरवाज़े हमेशा कसकर बंद रखते हैं। मुझे तो अब लगने लगा है कि ऐसे लोग अच्छा और स्वस्थ सोच ही नहीं सकते। इन लोगों के सोचने-समझने की क्षमता भी खत्म होने लगती होगी क्योंकि हाल ही में मैंने पढ़ा है कि जीवों में मस्तिष्क का विकास सूंघने वाले टिश्यू से ही हुआ है। दक्षिण अफ्रीका में जन्मे प्रकृति-विज्ञानी ल्याल वाट्सन का कहना है कि सबसे पहले गंध थी, शब्द बाद में आए।
वाट्सन ने अपनी किताब ‘जैकबसंस ऑर्गन’ में लिखा है कि 40 करोड़ साल पहले मछली धरती की सबसे महत्वपूर्ण और विकसित जीव थी। इनमें से ज्यादातर मछलियों के पास जबड़े नहीं होते थे। ऐसी मछलियों की नसों में सूंघने के टिश्यू का जो बिंदु था, वही बाद में पहले मस्तिष्क के रूप में विकसित हुआ। उनका सूत्र वाक्य है, “हम सोचते हैं क्योंकि हम सूंघते हैं।” इसी किताब के कुछ अंश पढ़ने के बाद मुझे सूंघने की महत्ता समझ में आई।
लेखक का तर्क बड़ा सीधा है। देखने और सुनने की क्षमता हासिल होने के पहले हम आसपास की चीज़ों को उनकी गंध से ही पहचानते हैं। नवजात बच्चा मां की गोद में जाते ही उसे गंध से पहचान लेता है और रोना बंदकर चुप पड़ जाता है। गाय-भैंस भी अपने बच्चे को गंध से पहचान लेती हैं। दूसरे का उसी उम्र का बछड़ा देखते ही झटक कर दूर भगा देती हैं। किताब में स्त्री-पुरुष संसर्ग के लिए भी शरीर की गंध को काफी अहम माना गया है।
गंध की महत्ता अपने यहां कर्मकांडों में भी मानी गई है। नैवेद्यम् समर्पयामि, पुष्पम् समर्पयामि और आसनम् समर्पयामि के साथ गंधम् समर्पयामि भी आता है। इसलिए मेरा तो यही कहना है कि दिमाग को दुरुस्त रखना है तो अपनी घ्राण शक्ति में कोई अवरोध मत आने दीजिए। दरवाज़ा-खिड़की खोलकर खुले में मस्त रहने की आदत डालिए। बंद कमरे में रहने पर गंध-दुर्गंध का पता ही नहीं चलता। वो तो बाहर से कोई आता है तो उसे अहसास होता कि आप कैसी घुटन में सांस ले रहे थे।
नजला-जुकाम की शिकायत हो तो उसे फौरन दूर कीजिए क्योंकि इससे आपकी नाक ही नहीं, दिमाग भी बंद हो जाता है। मेरी बात भले ही एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दीजिए। लेकिन अपनी नाक सही सलामत रखिए क्योंकि इसी से आपके सूंघने की क्षमता बनी रहेगी। और, सूंघने की क्षमता बनी रहेगी तभी आप अच्छा लिख पाएंगे क्योंकि सबसे पहले ब्रह्म नहीं, गंध थी और शब्द उसके बाद में आए।
Comments
वैसे तो कनाडा में चार माह छोड़ कर अगर खिड़की-दरवाजा खोलकर सो जायें तो अगले दिन से घर पर ताला ही लगा मिलेगा और हम धरा के नीचे सो रहे होंगे यहाँ के रिवाज के मुताबिक.
भाई मेरे, कोशिश फिर भी रहेगी कि सर्दी में भी कुछ लिख पायें खुले दिमाग से. बस हमारे लिये शुभकामनायें बनाये रहें. बड़ी घबड़ाहट हो रही है कि सर्दी में मेरे ब्लॉग का क्या होगा.
अभी से लिख कर रख लूँ क्या अगले आठ महिने का स्टॉक..इसके पहले कि दिमाग बंद हो. :)
यानी अगर आपको केसर खिलाया जाये या दूध में पिलाया जाये और आपकी नाक पर क्लिप लगा दिया जाये तो आपको कुछ पता ही नहीं चलेगा कि क्या खाया । इसीलिए जुकाम होने पर कई चीज़ों का स्वाद ही नहीं मिलता । इससे हमें एक बाद समझ में आई ।
नाक वाकई 'बड़ी' चीज़ है । मुंह से भी बड़ी ।
घ्राण शक्ति मेधा का महत्वपूर्ण हिस्सा है. आपने सही फरमाया.