45 से काउंट-डाउन और 50-55 तक खल्लास
उम्र बढ़ती है या साफ कहें कि उम्र घटती है तो जीने की इच्छा बढ़ती जाती है। कितनी अजीब बात है कि जब आपके पास जीने को पूरी ज़िंदगी पड़ी होती है तो अक्सर आपके मन में मरने का भाव आता है। और, जब चलाचली की बेला आती है तो आप ज़िंदगी को और कसकर पकड़ लेते हैं। आपने कभी नोटिस किया है कि अपनी जान खुद लेनेवालों में ज्यादातर की उम्र 25 से 35 या अधिक से अधिक 40 के आसपास रहती है। इसके बाद के लोग अपनी मौत मरते हैं बीमारी से या एक्सिडेंट से, खुदकुशी नहीं करते। 65 के ऊपर के तो इक्का-दुक्का लोग ही कहीं कूद-कादकर अपनी जान लेते हैं। वैसे भी ऐसे सीनियर सिटीजन देश की आबादी का महज 4 फीसदी हैं।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में औसत जीवनकाल 62 साल का है और दस साल बाद 69 तक पहुंच जाएगा। यानी अभी ज्यादातर लोग 62 से पहले ही टपक लेते हैं। वैसे, जहां तक मैं देख पा रहा हूं, इस समय उम्र को लेकर अपने यहां बड़ा घपला चल रहा है। मां-बाप के जमाने में लोग 35 साल के बाद से बूढ़े होना शुरू हो जाते थे, जबकि इस समय 40 के बाद लोगों पर हीरोगिरी चढ़ रही है। आमिर, शाहरुख, सलमान, शेखर सुमन सभी 40 के पार जा चुके हैं। लेकिन उन्हें अब जाकर सिक्स पैक का चस्का लगा है और 20-22 साल के छोरों की तरह बॉडी और एब्स बना रहे हैं।
मगर, दूसरी तरफ जिन काबिल और मेधावी बच्चों ने किसी मल्टीनेशनल या नेशनल कंपनी में 25 साल में अपना करियर शुरू किया था, वो तो 35 साल तक पहुंचते-पहुंचते ही हांफने-डांफने लग रहे हैं। लेकिन यह हिंदुस्तानी होने के नाते इनका जीवट और किसी भी कीमत पर मंजिल हासिल करने की जिद ही है कि ये लोग कामयाबी की सीढ़ियां दनादन चढ़ते हैं। यहां तक कि विदेशी कंपनियों तक में ऐसे भारतीय एग्जीक्यूटिव्स की मांग जबरदस्त तरीके से बढ़ गई है। वैसे, विदेश में तो हमारी क्रूर शिक्षा प्रणाली की भी खूब तारीफ की जाती है।
लेकिन इसी जीवट और जिद के चलते 35 से 40 के बीच के ज्यादातर कामयाब नौजवान डायबिटीज, हाई ब्लडप्रेशर जैसी लाइफस्टाइल-जनित बीमारियों के शिकार होने लगे हैं। 14-14, 18-18 घंटे काम, ऊपर से प्रतिस्पर्धा में लगातार जीतने की फितरत। फिर, खाना-पीना भी फास्ट फूड के हवाले। ऐसे में ये नौजवान 45 साल के होते-होते अपने करियर के शिखर पर पहुंच तो जाते हैं, लेकिन इस दौरान उनका शरीर खोखला हो जाता है। उनके पास अपना घर, गाड़ी, अच्छा-खासा बैंक बैलेंस सब कुछ होता है। पर, कुछ ही वक्त में शिखर की बोरियत उन्हें सताने लगती है।
अब या तो कुछ लोग शिखर को लात मारकर नया रिस्क लेते हैं। कुछ क्रिएटिव करने की ठान लेते हैं। एनजीओ बना डालते हैं। गांवों में, जंगलों में घर ले लेते हैं। अजीबो-गरीब सा धंधा शुरू कर देते हैं। या, फिर 45 साल की उम्र में ही अपनी ज़िदगी की उल्टी गिनती शुरू कर देते हैं। मगर, इन बहादुरों को पस्त या लस्त होना कतई बरदाश्त नहीं होता। तो चाहते हैं कि बुढ़ापा पूरी तरह उन्हें धर दबोचे, वो 50-55 तक पहुंचें, इससे पहले ही दुनिया से कूच कर जाएं तो अच्छा। उन्हें बुढ़ापे की असहायता से भय लगता है। वो इस एहसास के साथ दुनिया से विदा होना चाहते हैं कि जवान ही रहकर जिए और जवान ही रहकर मरे।
आप कहेंगे कि इस तस्वीर से गांव-गिरांव और कस्बे के करोड़ों सामान्य नौजवान गायब हैं। वह नौजवान गायब है जो 20 का होने के बाद अचानक 45 का हो जाता है। हां, यह सच है। लेकिन यहां मैं उनकी बात कर ही नहीं रहा क्योंकि उनका तो पूरा मामला ही अलग है। वो तो इस भारतवर्ष से ही निर्वासित हैं। यहां मैंने मध्यवर्गीय नौजवान की जो तस्वीर पेश की है, उसका मकसद यह दिखाना है कि इसमें जबरदस्त उद्यमशीलता है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहूं तो वह, ‘पहाड़ों को तोड़कर, चट्टानी दीवारों को काटकर, कगारों को ढहाकर, गूंजकर और गुंजाकर’ आगे बढ़ रहा है। उसके उतावलेपन पर मत जाइए। उसकी ऊर्जा की दाद दीजिए।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में औसत जीवनकाल 62 साल का है और दस साल बाद 69 तक पहुंच जाएगा। यानी अभी ज्यादातर लोग 62 से पहले ही टपक लेते हैं। वैसे, जहां तक मैं देख पा रहा हूं, इस समय उम्र को लेकर अपने यहां बड़ा घपला चल रहा है। मां-बाप के जमाने में लोग 35 साल के बाद से बूढ़े होना शुरू हो जाते थे, जबकि इस समय 40 के बाद लोगों पर हीरोगिरी चढ़ रही है। आमिर, शाहरुख, सलमान, शेखर सुमन सभी 40 के पार जा चुके हैं। लेकिन उन्हें अब जाकर सिक्स पैक का चस्का लगा है और 20-22 साल के छोरों की तरह बॉडी और एब्स बना रहे हैं।
मगर, दूसरी तरफ जिन काबिल और मेधावी बच्चों ने किसी मल्टीनेशनल या नेशनल कंपनी में 25 साल में अपना करियर शुरू किया था, वो तो 35 साल तक पहुंचते-पहुंचते ही हांफने-डांफने लग रहे हैं। लेकिन यह हिंदुस्तानी होने के नाते इनका जीवट और किसी भी कीमत पर मंजिल हासिल करने की जिद ही है कि ये लोग कामयाबी की सीढ़ियां दनादन चढ़ते हैं। यहां तक कि विदेशी कंपनियों तक में ऐसे भारतीय एग्जीक्यूटिव्स की मांग जबरदस्त तरीके से बढ़ गई है। वैसे, विदेश में तो हमारी क्रूर शिक्षा प्रणाली की भी खूब तारीफ की जाती है।
लेकिन इसी जीवट और जिद के चलते 35 से 40 के बीच के ज्यादातर कामयाब नौजवान डायबिटीज, हाई ब्लडप्रेशर जैसी लाइफस्टाइल-जनित बीमारियों के शिकार होने लगे हैं। 14-14, 18-18 घंटे काम, ऊपर से प्रतिस्पर्धा में लगातार जीतने की फितरत। फिर, खाना-पीना भी फास्ट फूड के हवाले। ऐसे में ये नौजवान 45 साल के होते-होते अपने करियर के शिखर पर पहुंच तो जाते हैं, लेकिन इस दौरान उनका शरीर खोखला हो जाता है। उनके पास अपना घर, गाड़ी, अच्छा-खासा बैंक बैलेंस सब कुछ होता है। पर, कुछ ही वक्त में शिखर की बोरियत उन्हें सताने लगती है।
अब या तो कुछ लोग शिखर को लात मारकर नया रिस्क लेते हैं। कुछ क्रिएटिव करने की ठान लेते हैं। एनजीओ बना डालते हैं। गांवों में, जंगलों में घर ले लेते हैं। अजीबो-गरीब सा धंधा शुरू कर देते हैं। या, फिर 45 साल की उम्र में ही अपनी ज़िदगी की उल्टी गिनती शुरू कर देते हैं। मगर, इन बहादुरों को पस्त या लस्त होना कतई बरदाश्त नहीं होता। तो चाहते हैं कि बुढ़ापा पूरी तरह उन्हें धर दबोचे, वो 50-55 तक पहुंचें, इससे पहले ही दुनिया से कूच कर जाएं तो अच्छा। उन्हें बुढ़ापे की असहायता से भय लगता है। वो इस एहसास के साथ दुनिया से विदा होना चाहते हैं कि जवान ही रहकर जिए और जवान ही रहकर मरे।
आप कहेंगे कि इस तस्वीर से गांव-गिरांव और कस्बे के करोड़ों सामान्य नौजवान गायब हैं। वह नौजवान गायब है जो 20 का होने के बाद अचानक 45 का हो जाता है। हां, यह सच है। लेकिन यहां मैं उनकी बात कर ही नहीं रहा क्योंकि उनका तो पूरा मामला ही अलग है। वो तो इस भारतवर्ष से ही निर्वासित हैं। यहां मैंने मध्यवर्गीय नौजवान की जो तस्वीर पेश की है, उसका मकसद यह दिखाना है कि इसमें जबरदस्त उद्यमशीलता है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहूं तो वह, ‘पहाड़ों को तोड़कर, चट्टानी दीवारों को काटकर, कगारों को ढहाकर, गूंजकर और गुंजाकर’ आगे बढ़ रहा है। उसके उतावलेपन पर मत जाइए। उसकी ऊर्जा की दाद दीजिए।
Comments
घुघूती बासूती
७० हम चाहतें नहीं है,
६० आएगा नहीं और
४५-५० कहीँ जायेगा नहीं.
उम्र के साथ मेरी सक्रियता बढ़ती जा रही है। यही नहीं स्मृति में भी गिरावट की जगह गुणात्मक सुधार हो रहा है। तुलसी के शब्दों में
देह दिनउ दिन दूबरि होई
घटइ तेज बल मुख छवि सोई।
सुनीता(शानू)
आप तो डरा रहे हैं, मुझे भी ३४ पूरे हो गये हैं। क्या सचमुच ३५ का होने के बाद हांफने लगूंगा मैं भी?