विकास है, पर विकास क्यों नहीं है?
केरल में साक्षरता की दर 90.92 फीसदी है। 1000 पुरुषों पर वहां 1058 महिलाएं हैं। यह देश में भूमि सुधार और शिक्षा सुधार कानून लागू करनेवाला देश का पहला राज्य है। यहां बटाईदारी और जमींदारी का खात्मा हो चुका है। यहां जन्म दर कम है और शिशु मृत्यु दर सबसे कम है। लंबे जीवन की उम्मीद यहां सबसे ज्यादा है। यह देश का इकलौता राज्य है जहां हर गांव में अस्पताल जैसी चिकित्सा सुविधाएं हैं। राज्य में 2700 सरकारी मेडिकल संस्थान हैं। इलाज के लिए हर एक लाख की आबादी पर देश भर में सबसे ज्यादा, 160 बेड हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन जब भी विकास के मॉडल की बात करते हैं तो ज़रूर कहते हैं कि हमें विदेश की तरफ देखने के बजाय देश में ही देखना चाहिए, केरल से सीखना चाहिए।
लेकिन ऐसा क्यों होता है कि करीब पैंतीस सालों से अमेरिका में रह रहा एक भारतीय डॉक्टर जब केरल में अपने गांव पहुंचता है तो देखता है कि वहां कुछ बदला ही नहीं है। न तो वहां सड़क है, न स्कूल, न पानी की सप्लाई और न ही साफ-सफाई की सुविधा। इस सच्चाई ने अमेरिका के बफैलो शहर में बसे डॉ. कुमार बाहुलेयन को कहीं अंदर तक झकझोर कर रख दिया। बाहुलेयन केरल के कोट्टायम ज़िले के चेम्मनकारी गांव में एक दलित परिवार में पैदा हुए थे। उनका बचपन भयानक गरीबी में बीता। लेकिन अपनी मेहनत, गांववालों के सहयोग और सुखद संयोगों की बदौलत वो न्यूरोसर्जन बन गए। आज उनके पास एक रोल्स रॉयस है, पांच मर्सिडीज़ बेंज़ है और एक हवाई जहाज है। न्यूयॉर्क के पास बफैलो शहर में वो शानोशौकत की जिंदगी जीते हैं।
लेकिन डॉ. बाहुलेयन जब अपने गांव पहुंचे तो उन्होंने पाया कि आज भी वहां के लोगों के चेहरों पर वही बेबसी झलकती है, आज भी वो उन्हीं दयनीय हालात में रहने को मजबूर हैं, जैसी उन्होंने खुद इस गांव में रहने के दौरान झेली थी। फिर बाहुलेयन ने तय किया कि वो अपनी कमाई से दो करोड़ डॉलर (80.75 करोड़ रुपए) अपने इस पैतृक गांव को दान में दे देंगे। इससे वहां एक न्यूरो सर्जरी अस्पताल, एक हेल्थ क्लीनिक और एक स्पा रिजॉर्ट बनाया जाएगा। बाहुलेयर बड़ी विनम्रता से कहते हैं, ‘मैं पैदा हुआ था तो मेरे पास कुछ नहीं था। इस गांव के लोगों ने ही मुझे पढ़ाया-लिखाया। तो अब मैं उनका कर्ज उतार रहा हूं।’
बाहुलेयन की इस भावना की जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम है। लेकिन उनके किस्से ने दो सवाल उठाए हैं। पहला यह कि जो 80.75 करोड़ रुपए वे अपने गांव के विकास के लिए दे रहे हैं, उस रकम को खर्च कौन करेगा? फिर इसका फायदा क्या सचमुच गांव वालों को मिल पाएगा? अगर प्रशासन पर इसके अमल का ज़िम्मा छोड़ दिया गया तो इस रकम का क्या होगा, इसका अंदाज़ा कोई भी समझदार भारतीय आसानी से लगा सकता है।
दूसरा सवाल ये है कि अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री जिन संकेतकों को विकास का सूचक मानते हैं, वो लोगों की ज़िंदगी में वाकई बदलाव ला पाते हैं या नहीं? अमर्त्य सेन के एप्रोच के केंद्र में है अवसरों का विस्तार, ताकि लोग सम्मान और गरिमामय ज़िंदगी जी सके। सभी को आगे बढ़ने का समान अवसर मिले। जाति भेद खत्म हो। महिलाओं को दोयम दर्जे से मुक्ति दिलाई जाए, शिक्षा में कोई पिछड़ा न रहे, स्वास्थ्य सेवाएं जन-जन तक पहुंचें। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट भी इन्हीं बातों पर केंद्रित करती है।
इस एप्रोच में निहित कल्याण की भावना से हम-आप क्या, शायद कोई भी इनकार नहीं कर सकता। लेकिन ध्यान दें, इसमें जाति भेद, लिंग भेद, असमानता, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता के लिए संघर्ष की बात नहीं की जाती। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जन-भागीदारी की बात नहीं की जाती। सारा कुछ सरकार के भरोसे छोड़ दिया जाता है। अगर सरकार उपकार करेगी तभी ये काम होगा, नहीं तो तब तक लोगों को इंतज़ार करना होगा।
यही वजह है कि विकास के संकेतकों में तो विकास झलकता है, आंकड़े सुनहरी तस्वीर पेश करने लग जाते हैं। लेकिन आम लोगों की ज़िंदगी जहां की तहां ठहरी रहती है। असल में, किसी भी बदलाव में अगर उन लोगों को शामिल नहीं किया जाता जिनके हित उससे जुड़े हैं, तो वह बदलाव टिकाऊ नहीं होता। देर-सबेर इसको लागू करनेवाली नौकरशाही लोगों की किस्मत का फैसला करने लगती है। जब रूस और चीन में ऐसा हो चुका है तो बाकी देशों की बात ही क्या की जाए।
लेकिन ऐसा क्यों होता है कि करीब पैंतीस सालों से अमेरिका में रह रहा एक भारतीय डॉक्टर जब केरल में अपने गांव पहुंचता है तो देखता है कि वहां कुछ बदला ही नहीं है। न तो वहां सड़क है, न स्कूल, न पानी की सप्लाई और न ही साफ-सफाई की सुविधा। इस सच्चाई ने अमेरिका के बफैलो शहर में बसे डॉ. कुमार बाहुलेयन को कहीं अंदर तक झकझोर कर रख दिया। बाहुलेयन केरल के कोट्टायम ज़िले के चेम्मनकारी गांव में एक दलित परिवार में पैदा हुए थे। उनका बचपन भयानक गरीबी में बीता। लेकिन अपनी मेहनत, गांववालों के सहयोग और सुखद संयोगों की बदौलत वो न्यूरोसर्जन बन गए। आज उनके पास एक रोल्स रॉयस है, पांच मर्सिडीज़ बेंज़ है और एक हवाई जहाज है। न्यूयॉर्क के पास बफैलो शहर में वो शानोशौकत की जिंदगी जीते हैं।
लेकिन डॉ. बाहुलेयन जब अपने गांव पहुंचे तो उन्होंने पाया कि आज भी वहां के लोगों के चेहरों पर वही बेबसी झलकती है, आज भी वो उन्हीं दयनीय हालात में रहने को मजबूर हैं, जैसी उन्होंने खुद इस गांव में रहने के दौरान झेली थी। फिर बाहुलेयन ने तय किया कि वो अपनी कमाई से दो करोड़ डॉलर (80.75 करोड़ रुपए) अपने इस पैतृक गांव को दान में दे देंगे। इससे वहां एक न्यूरो सर्जरी अस्पताल, एक हेल्थ क्लीनिक और एक स्पा रिजॉर्ट बनाया जाएगा। बाहुलेयर बड़ी विनम्रता से कहते हैं, ‘मैं पैदा हुआ था तो मेरे पास कुछ नहीं था। इस गांव के लोगों ने ही मुझे पढ़ाया-लिखाया। तो अब मैं उनका कर्ज उतार रहा हूं।’
बाहुलेयन की इस भावना की जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम है। लेकिन उनके किस्से ने दो सवाल उठाए हैं। पहला यह कि जो 80.75 करोड़ रुपए वे अपने गांव के विकास के लिए दे रहे हैं, उस रकम को खर्च कौन करेगा? फिर इसका फायदा क्या सचमुच गांव वालों को मिल पाएगा? अगर प्रशासन पर इसके अमल का ज़िम्मा छोड़ दिया गया तो इस रकम का क्या होगा, इसका अंदाज़ा कोई भी समझदार भारतीय आसानी से लगा सकता है।
दूसरा सवाल ये है कि अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्री जिन संकेतकों को विकास का सूचक मानते हैं, वो लोगों की ज़िंदगी में वाकई बदलाव ला पाते हैं या नहीं? अमर्त्य सेन के एप्रोच के केंद्र में है अवसरों का विस्तार, ताकि लोग सम्मान और गरिमामय ज़िंदगी जी सके। सभी को आगे बढ़ने का समान अवसर मिले। जाति भेद खत्म हो। महिलाओं को दोयम दर्जे से मुक्ति दिलाई जाए, शिक्षा में कोई पिछड़ा न रहे, स्वास्थ्य सेवाएं जन-जन तक पहुंचें। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्ट भी इन्हीं बातों पर केंद्रित करती है।
इस एप्रोच में निहित कल्याण की भावना से हम-आप क्या, शायद कोई भी इनकार नहीं कर सकता। लेकिन ध्यान दें, इसमें जाति भेद, लिंग भेद, असमानता, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता के लिए संघर्ष की बात नहीं की जाती। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए जन-भागीदारी की बात नहीं की जाती। सारा कुछ सरकार के भरोसे छोड़ दिया जाता है। अगर सरकार उपकार करेगी तभी ये काम होगा, नहीं तो तब तक लोगों को इंतज़ार करना होगा।
यही वजह है कि विकास के संकेतकों में तो विकास झलकता है, आंकड़े सुनहरी तस्वीर पेश करने लग जाते हैं। लेकिन आम लोगों की ज़िंदगी जहां की तहां ठहरी रहती है। असल में, किसी भी बदलाव में अगर उन लोगों को शामिल नहीं किया जाता जिनके हित उससे जुड़े हैं, तो वह बदलाव टिकाऊ नहीं होता। देर-सबेर इसको लागू करनेवाली नौकरशाही लोगों की किस्मत का फैसला करने लगती है। जब रूस और चीन में ऐसा हो चुका है तो बाकी देशों की बात ही क्या की जाए।
Comments
NRIs ki madad se kya sachmuch vikas sambhav hai - is vishay me mera ek ajedaar sansmaran hai. jaldi hi prastut karne ki koshish karoonga. aasha hai ki aap paharenge. ;)
टीआरपी.... वाली टिप्पणी तो अच्छी थी ही, आपकी प्रस्तुति का अंदाज़ भी निराला है.
नौकरशाही के भरोसे सरकारी नीतियों और विकास की योजनाओं को लागू किए जाने की व्यवस्था का हश्र हम बीते साठ वर्षों में देख ही चुके हैं। बमुश्किल एक-दो फीसदी नौकरशाह योजनाओं के जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने में दिलचस्पी लेते हैं। नौकरशाही फाइलों पर निर्णय लेती है, लेकिन उन निर्णयों को लागू कराने के लिए फील्ड में मॉनीटरिंग की समुचित व्यवस्था नहीं है। लालफीताशाही और भ्रष्टाचार ने पूरे तंत्र को निकम्मा बना दिया है। हायरेरकी, प्रोटोकॉल और कैरियर एडवांसमेंट इस नौकरशाही के लिए सबसे अधिक अहम हैं। जवाबदेही, पारदर्शिता और जनसहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए जनता और प्रेस की जागरुकता जरूरी है, लेकिन वह अभी पर्याप्त नहीं है। किसी भी तरह के उग्र प्रदर्शन के खिलाफ सरकार नृशंस बल प्रयोग करती है। न्यायपालिका का रुख भी विरोध-प्रदर्शनों के खिलाफ है। मीडिया कारपोरेट के हाथों की कठपुतली बन चुका है।
अमर्त्य सेन का विकासवादी मॉडल उस तंत्र के लिए तो बढ़िया है जहां प्रशासन जवाबदेह और संवेदनशील हो। लेकिन भारतीय नौकरशाही में गैर-जवाबदेही और संवेदनहीनता चरम पर है। इसके भरोसे विकास संभव नहीं। ज्यादातर एनजीओ और स्वैच्छिक संगठन भी खाने-कमाने के अड्डे बन चुके हैं।
कुल मिलाकर, उपाय आसान नहीं है। लोकतंत्र को मौजूदा स्वरूप में बनाए रखते हुए सही मायने में विकास को सुनिश्चित कर पाना बहुत कठिन है।
काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
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उक्त शीर्षक पढकर अटपटा जरूर लग रहा होगा, लेकिन सच में इस देश को कुछ जिन्दा लोगों की तलाश है। सागर की तलाश में हम सिर्फ सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है।
आग्रह है कि बूंद से सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो निश्चय ही विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।
हम ऐसे कुछ जिन्दा लोगों की तलाश में हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो, लेकिन इस जज्बे की आग से अपने आपको जलने से बचाने की समझ भी हो, क्योंकि जोश में भगत सिंह ने यही नासमझी की थी। जिसका दुःख आने वाली पीढियों को सदैव सताता रहेगा। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।
इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।
अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।
अतः हमें समझना होगा कि आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-ष्भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थानष् (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-
सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?
जो भी व्यक्ति स्वेच्छा से इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्यक्ष
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
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