नगई महरा पानी भरो, रोती है नयका नाउनि
कमर से झुकी, दाएं हाथ में दंड पकड़े उस सांवली औरत ने अपने बाएं हाथ से मेरे बंधे हुए हाथों को बस छुआ भर था कि जादू हो गया। अंबेडकरनगर ज़िले के देवलीपुर गांव में बाबू राम उदय सिंह के जिस नए-नवेले घर के बरामदे के बाहर यह वाकया हुआ, वह घर गायब हो गया। पूरे गांव-जवार के घर-बार, पेड़-पौधे, खेत-खलिहान, गाय-बछरू सब गायब हो गए। बस बचा तो मैं और वह सांवली औरत जिसका नाम है नयका नाउनि। सत्तर के पार की नयका नाउनि। नयका मेरे हाथों पर अपना हाथ बड़ी नरमी से रखे रहीं और बोलीं – भइया सब भुलाइ दिह्या। फिर बह निकली आंसुओं की अजस्र धारा। नयका नाउनि रोने लगीं। मेरी भी आंखें पहले नम हुईं, फिर बहने लगीं। सारी धरती, सारा इलाका मां और बेटे के आंसुओं में डूब गया। ताल-तलैया, गढ्ढे-गढ़ही, कच्चे-पक्के तालाब सभी गले तक भरकर बहने लगे। लगा जैसे घाघरा से निकली मडहा नदी में भयंकर बाढ़ आ गई हो।
क्षितिज तक जिधर भी नजर फेरो, पानी ही पानी। दिग-दिगंत तक पानी ही पानी। उसी के बीच चार गज जमीन के द्वीप पर खड़े थे हम दोनों। असली मां और बेटे तो नहीं। लेकिन वह मुझमें एक-एक कर मरते गए अपने चौदह पुत्रों को देख रही थी और मैं उसमें अथाह ममता की आदर्श प्रतिमूर्ति, जो मुझे सांसारिक समीकरणों में उलझे अपनों से नहीं मिली। नयका के आंसुओं की वजह जो भी रही हो, लेकिन मुझे पता है कि मैं अपनों की उलाहना के दंश से रो रहा था। पहले तो मामी ने उलाहना दी कि तुम न पप्पू के मरने पर आए, न ही मामा के गुजरने पर, जबकि मामा तुमको सबसे ज्यादा मानते थे और पप्पू तो तुम पर जान छिड़कता था। उनको कैसे समझाता कि इन दोनों के जाने से मैं कितना तड़पा था। अभी तक पप्पू और मामा सपने में आते रहते हैं। जब उन्हें कोई शिकायत नहीं है तो यह 56 साल की फैशनेबल औरत कौन होती है यह कहनेवाली कि मैं तो सोचकर आई थी कि तुमसे बात ही नहीं करूंगी। अब बगल में बैठे हो तो बोल ले रही हूं।
मामी की इस उलाहना पर बुआ ने तेजाब उड़ेल दिया। उस बुआ ने, जिसने मुझे रातों में अपने बगल में सुलाकर सीत-बसंत जैसे सैकड़ों किस्से सुनाए थे, उसी ने मेरे दुनियादार न हो पाने को झूठ मानकर ताना मारा। जिस मां के लिए मैं सब कुछ कुर्बान करने की अंधश्रद्धा रखता हूं, उस मां ने मुझसे पूछा कि छोटे भाई की बहू को क्या मुंह-दिखाई दे रहे हो। मैंने कहा – तुम बताओ क्या देना है, मैं दे दूंगा। मुझे नहीं पता कि क्या दिया जाता है। मां ने मुंह बिचकाया तो बुआ ने ताना मार दिया। नहीं पता कि किस चाची-ताई ने बचाव किया कि बच्चा दस साल का था तभी से तो बाहर है क्या जाने रीति-रिवाज। लेकिन मां के मुंह घुमाने और बुआ के ताने की चोट इतनी गहरी थी कि नाश्ता बीच में छोड़कर थाली झनाक से फेंकी और बाहर निकल गया। वहीं बरामदे में दिख गईं नयका नाउनि। और, फिर घट गया वह वाकया।
सोचिए, जब हर तरफ पानी ही पानी हो, आंसुओं का हाहाकार हो, तब जानवरों और इंसानों के रुदन की आवाजें गूंजने लगें तो आपकी मनस्थिति क्या हो जाएगी। मैं भी संज्ञाशून्य होते-होते कहीं गुम गया। पहुंच गया उस अतीत में जब नयका मुझे बुकुआ (सरसों का उबटन) लगाकर नहलाती भी थीं। तब तो मैं बकइया-बकइयां भी नहीं चल पाता था। दसई नाऊ की नई बहू आई तो सब उसे नयका-नयका कहने लगे और अधेड़ से बूढ़ी होने तक वह नयका (नई) ही बनी रही। हमारे गांवों में ऐसा ही चलन है। मेरी बुआ का नाम सुरजा है, लेकिन उनकी ससुराल में उन्हें भी नयका ही कहते हैं। यहां तक कि जेठ और देवर के लड़के आज भी उन्हें नयका माई कहते हैं। उनकी कोई आद-औलाद नहीं है।
नयका नाउनि की भी कोई आल-औलाद नहीं है। लेकिन उनकी कोख से चौदह बच्चों ने जन्म लिया था। कोई जन्मते ही मर गया, कोई दो-चार महीने में और कोई पांच-सात साल का होकर। नयका का चौदहवां बेटा तेरह साल का होकर मरा। दसई और नयका उसे बड़ा होता देखकर हमेशा चहकते रहते। टोना-टोटका जाननेवाले बड़े-बूढ़ों के कहने पर पैदा होने के कुछ महीने बाद ही नाक और कान दोनों छेदा दिया और तभी से उसका नाम पड़ गया छेदी। मुझसे छह साल चार महीने ही छोटा था छेदी। वह बात तो मैंने खुद अपनी आंखों से देखी थी और मुझे वो दृश्य यादकर आज भी हंसी छूट जाती है। दसई नाऊ उसे हाथ में लेकर उछाल रहे थे। दोनों हाथों में अपने सिर के ऊपर तक उठाकर लू-लू कर रहे थे कि छेदी ने ऊपर से सू-सू कर दिया और उसकी धार सीधे दसई की आंखों और खुले मुंह में जा पड़ी। दसई बोले – का सारे, मूति दिहे। नयका फौरन आकर छेदी को गोद में भरकर दुलारने लगीं।
नयका नाउनि की आंखों से अब कम दिखता है। लेकिन उन्हें इन्ही आंखों से मुझमें अपने एक-एक बिछुड़े चौदह पुत्रों को देखने में कोई दिक्कत नहीं आई। मुझे लगा कि नयका के आगे गंगा को भी पानी भरना पड़ेगा। गंगा ने बिना शिकन अपने सात नवजात पुत्रों को नदी में बहा दिया था। आठवां पुत्र शांतनु के टोकने से बच गया तो भीष्म बन गया। लेकिन दसई नाऊ का दुख तो शांतनु से भी बड़ा था, जिसने अपनी आंखों के सामने अपने चौदह पुत्रों को बिना किसी बीमारी के बिछुड़ते देखा था। वैसे, दसई नाऊ थे बड़े विचित्र। पता नहीं आंखें कमजोर थीं या अटेंशन डेफिसिट डिसऑर्डर के शिकार थे, सभी के बाल चाईं-चूआं ही काटते थे। कटे हुए बालों में कैची की हर हरकत अपना अलग निशान छोड़ जाती थी। मां-बाप को जिस बच्चे को भी सजा देनी होती, उसे बाल कटाने दसई नाऊ के पास भेज देते थे। मुझे भी दो-चार बार दसई से बाल कटाने पड़े थे। दसई नाऊ को मरे हुए सत्ररह साल हो चुके हैं यानी मेरे पिछली बार गांव जाने से दो साल पहले वे नयका नाउनि और डीह पर बने अपने घर को अकेले छोड़कर चले गए। आज होते तो आमिर खान की गजिनी स्टाइल को मात कर देते। सभी उन्हीं से हेयर-स्टाइलिंग कराने पहुंच जाते अंबेडकरनगर जिले के देवलीपुर गांव में।
तेजतर्रार नयका नाउनि को जीते जी दसई की खास परवाह नहीं थी तो मरने के बाद क्या होगी। लेकिन बच्चों की कसक इन्हें आज भी सालती है। तभी तो मुझ जैसे निर्मोही शख्स में अपने पुत्रों को खोज रही हैं। तो, नयका मेरे बंधे हांथों पर अपना बायां रखकर रो रही थीं, तभी उनके चचेरे देवर अलगू नाऊ की आवाज आई – भइया, कैसे अह्या। यह आवाज आते ही सारा जादू गायब हो गया, सारा तिलिस्म टूट गया। सब कुछ वापस आ गया। घर-बार, खेत-खलिहान, लोग-बाग, गाय-बछरू सब कुछ। बाढ़ का सारा पानी अपने-अपने सोतों में लौट गया। सब कुछ पूर्ववत हो गया। लेकिन मैं अभी तक पूर्ववत नहीं हो पाया हूं। एक अमिट छाप बनकर दर्ज हो गया है यह वाकया मेरे जेहन में।
पुनश्च : मुझे लगता है कि मैं कभी इतमिनान से लिख पाऊंगा तो नयका नाउनि का चरित्र त्रिलोचन शास्त्री के नगई महरा को भी मात कर सकता है। शायद इसी तरीके से मैं अपनी मां तो नहीं, लेकिन उससे भी बहुत-बहुत बड़ी, विराट नयका नाउनि को वाजिब सम्मान दे पाऊंगा।
फोटो सौजन्य: danny george
क्षितिज तक जिधर भी नजर फेरो, पानी ही पानी। दिग-दिगंत तक पानी ही पानी। उसी के बीच चार गज जमीन के द्वीप पर खड़े थे हम दोनों। असली मां और बेटे तो नहीं। लेकिन वह मुझमें एक-एक कर मरते गए अपने चौदह पुत्रों को देख रही थी और मैं उसमें अथाह ममता की आदर्श प्रतिमूर्ति, जो मुझे सांसारिक समीकरणों में उलझे अपनों से नहीं मिली। नयका के आंसुओं की वजह जो भी रही हो, लेकिन मुझे पता है कि मैं अपनों की उलाहना के दंश से रो रहा था। पहले तो मामी ने उलाहना दी कि तुम न पप्पू के मरने पर आए, न ही मामा के गुजरने पर, जबकि मामा तुमको सबसे ज्यादा मानते थे और पप्पू तो तुम पर जान छिड़कता था। उनको कैसे समझाता कि इन दोनों के जाने से मैं कितना तड़पा था। अभी तक पप्पू और मामा सपने में आते रहते हैं। जब उन्हें कोई शिकायत नहीं है तो यह 56 साल की फैशनेबल औरत कौन होती है यह कहनेवाली कि मैं तो सोचकर आई थी कि तुमसे बात ही नहीं करूंगी। अब बगल में बैठे हो तो बोल ले रही हूं।
मामी की इस उलाहना पर बुआ ने तेजाब उड़ेल दिया। उस बुआ ने, जिसने मुझे रातों में अपने बगल में सुलाकर सीत-बसंत जैसे सैकड़ों किस्से सुनाए थे, उसी ने मेरे दुनियादार न हो पाने को झूठ मानकर ताना मारा। जिस मां के लिए मैं सब कुछ कुर्बान करने की अंधश्रद्धा रखता हूं, उस मां ने मुझसे पूछा कि छोटे भाई की बहू को क्या मुंह-दिखाई दे रहे हो। मैंने कहा – तुम बताओ क्या देना है, मैं दे दूंगा। मुझे नहीं पता कि क्या दिया जाता है। मां ने मुंह बिचकाया तो बुआ ने ताना मार दिया। नहीं पता कि किस चाची-ताई ने बचाव किया कि बच्चा दस साल का था तभी से तो बाहर है क्या जाने रीति-रिवाज। लेकिन मां के मुंह घुमाने और बुआ के ताने की चोट इतनी गहरी थी कि नाश्ता बीच में छोड़कर थाली झनाक से फेंकी और बाहर निकल गया। वहीं बरामदे में दिख गईं नयका नाउनि। और, फिर घट गया वह वाकया।
सोचिए, जब हर तरफ पानी ही पानी हो, आंसुओं का हाहाकार हो, तब जानवरों और इंसानों के रुदन की आवाजें गूंजने लगें तो आपकी मनस्थिति क्या हो जाएगी। मैं भी संज्ञाशून्य होते-होते कहीं गुम गया। पहुंच गया उस अतीत में जब नयका मुझे बुकुआ (सरसों का उबटन) लगाकर नहलाती भी थीं। तब तो मैं बकइया-बकइयां भी नहीं चल पाता था। दसई नाऊ की नई बहू आई तो सब उसे नयका-नयका कहने लगे और अधेड़ से बूढ़ी होने तक वह नयका (नई) ही बनी रही। हमारे गांवों में ऐसा ही चलन है। मेरी बुआ का नाम सुरजा है, लेकिन उनकी ससुराल में उन्हें भी नयका ही कहते हैं। यहां तक कि जेठ और देवर के लड़के आज भी उन्हें नयका माई कहते हैं। उनकी कोई आद-औलाद नहीं है।
गंगा ने बिना शिकन अपने सात नवजात पुत्रों को नदी में बहा दिया था। आठवां पुत्र शांतनु के टोकने से बच गया तो भीष्म बन गया। लेकिन दसई नाऊ का दुख तो शांतनु से भी बड़ा था, जिसने अपनी आंखों के सामने अपने चौदह पुत्रों को बिना किसी बीमारी के बिछुड़ते देखा था।
नयका नाउनि की भी कोई आल-औलाद नहीं है। लेकिन उनकी कोख से चौदह बच्चों ने जन्म लिया था। कोई जन्मते ही मर गया, कोई दो-चार महीने में और कोई पांच-सात साल का होकर। नयका का चौदहवां बेटा तेरह साल का होकर मरा। दसई और नयका उसे बड़ा होता देखकर हमेशा चहकते रहते। टोना-टोटका जाननेवाले बड़े-बूढ़ों के कहने पर पैदा होने के कुछ महीने बाद ही नाक और कान दोनों छेदा दिया और तभी से उसका नाम पड़ गया छेदी। मुझसे छह साल चार महीने ही छोटा था छेदी। वह बात तो मैंने खुद अपनी आंखों से देखी थी और मुझे वो दृश्य यादकर आज भी हंसी छूट जाती है। दसई नाऊ उसे हाथ में लेकर उछाल रहे थे। दोनों हाथों में अपने सिर के ऊपर तक उठाकर लू-लू कर रहे थे कि छेदी ने ऊपर से सू-सू कर दिया और उसकी धार सीधे दसई की आंखों और खुले मुंह में जा पड़ी। दसई बोले – का सारे, मूति दिहे। नयका फौरन आकर छेदी को गोद में भरकर दुलारने लगीं।
नयका नाउनि की आंखों से अब कम दिखता है। लेकिन उन्हें इन्ही आंखों से मुझमें अपने एक-एक बिछुड़े चौदह पुत्रों को देखने में कोई दिक्कत नहीं आई। मुझे लगा कि नयका के आगे गंगा को भी पानी भरना पड़ेगा। गंगा ने बिना शिकन अपने सात नवजात पुत्रों को नदी में बहा दिया था। आठवां पुत्र शांतनु के टोकने से बच गया तो भीष्म बन गया। लेकिन दसई नाऊ का दुख तो शांतनु से भी बड़ा था, जिसने अपनी आंखों के सामने अपने चौदह पुत्रों को बिना किसी बीमारी के बिछुड़ते देखा था। वैसे, दसई नाऊ थे बड़े विचित्र। पता नहीं आंखें कमजोर थीं या अटेंशन डेफिसिट डिसऑर्डर के शिकार थे, सभी के बाल चाईं-चूआं ही काटते थे। कटे हुए बालों में कैची की हर हरकत अपना अलग निशान छोड़ जाती थी। मां-बाप को जिस बच्चे को भी सजा देनी होती, उसे बाल कटाने दसई नाऊ के पास भेज देते थे। मुझे भी दो-चार बार दसई से बाल कटाने पड़े थे। दसई नाऊ को मरे हुए सत्ररह साल हो चुके हैं यानी मेरे पिछली बार गांव जाने से दो साल पहले वे नयका नाउनि और डीह पर बने अपने घर को अकेले छोड़कर चले गए। आज होते तो आमिर खान की गजिनी स्टाइल को मात कर देते। सभी उन्हीं से हेयर-स्टाइलिंग कराने पहुंच जाते अंबेडकरनगर जिले के देवलीपुर गांव में।
तेजतर्रार नयका नाउनि को जीते जी दसई की खास परवाह नहीं थी तो मरने के बाद क्या होगी। लेकिन बच्चों की कसक इन्हें आज भी सालती है। तभी तो मुझ जैसे निर्मोही शख्स में अपने पुत्रों को खोज रही हैं। तो, नयका मेरे बंधे हांथों पर अपना बायां रखकर रो रही थीं, तभी उनके चचेरे देवर अलगू नाऊ की आवाज आई – भइया, कैसे अह्या। यह आवाज आते ही सारा जादू गायब हो गया, सारा तिलिस्म टूट गया। सब कुछ वापस आ गया। घर-बार, खेत-खलिहान, लोग-बाग, गाय-बछरू सब कुछ। बाढ़ का सारा पानी अपने-अपने सोतों में लौट गया। सब कुछ पूर्ववत हो गया। लेकिन मैं अभी तक पूर्ववत नहीं हो पाया हूं। एक अमिट छाप बनकर दर्ज हो गया है यह वाकया मेरे जेहन में।
पुनश्च : मुझे लगता है कि मैं कभी इतमिनान से लिख पाऊंगा तो नयका नाउनि का चरित्र त्रिलोचन शास्त्री के नगई महरा को भी मात कर सकता है। शायद इसी तरीके से मैं अपनी मां तो नहीं, लेकिन उससे भी बहुत-बहुत बड़ी, विराट नयका नाउनि को वाजिब सम्मान दे पाऊंगा।
फोटो सौजन्य: danny george
Comments
ये नायिका
वाकई लम्बी कथा समेटे हुए है
मैं भी लिखने की गुहार लगा रहा हूँ....मरे घर में एक नयका दादी थी..भयानक लड़ाका....इकलौता बेटा जोगी हो गया था...
- आनंद
Thank You For Sharing.