ऐसे ज्ञानी भी न बनो!
एक जंगल में बहुत ऊंचे स्तर की आईक्यू वाला चीता रहा करता था। बड़ा विद्वान, बुद्धिजीवी, आत्मज्ञानी। दिक्कत बस इतनी थी कि वह दूसरे चीतों की तरह 120 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से नहीं दौड़ पाता था। इसके चलते हिरन कुलांचे भरते निकल जाते और वह उन्हें पकड़ नहीं पाता। तेजी से दौड़ते-भागते जानवरों का शिकार उसके लिए नामुमकिन हो गया तो क्या करता वह बुद्धिजीवी बेचारा। चूहों, खरगोश, सांप और मेढक जैसे जानवरों को खाकर किसी तरह गुजारा करने लगा। लेकिन उसे यह सब छिपकर करना पड़ता क्योंकि अगर कोई और चीता देख लेता तो यह शर्म के मारे डूब मरनेवाली बात हो जाती। है कि नहीं। आप ही बताएं।
वह अक्सर सोचता रहता कि दुनिया का सबसे तेज दौड़नेवाला जानवर होने से आखिर क्या फायदा? मैं तो कुलांचे मारते हिरन तक का शिकार नहीं कर पाता। इसी सोच और उधेड़बुन में डूबा वह एक दिन जंगल के दूसरे चीते के पास जा पहुंचा जो अपनी शानदार रफ्तार के लिए आसपास के सभी जंगलों में विख्यात था। दुआ-सलाम के बाद फटाक से बोला – मेरे पास विकासवादी अनुकूलन की वे सारी खूबियां हैं जिसने हमारी प्रजाति को सबसे तेज दौड़नेवाला जानवर बनाया है। मेरी नाक की नली काफी गहरी है जो मुझे ज्यादा ऑक्सीजन सोखने की क्षमता देती है। मेरे पास काफी बड़ा हृदय और फेफड़े हैं जो ऑक्सीजन को पूरे शरीर में बेहद दक्षता से पहुंचा देते हैं। इसके साथ ही जब दौड़ने के दौरान मैं मात्र तीन सेकंड में इतना त्वरण हासिल कर लेता हूं कि मेरी रफ्तार शून्य से 100 किलोमीटर प्रति घंटे तक पहुचाती है, तब मेरी सांस लेने की गति 60 से बढ़कर 150 प्रति सेकंड हो जाती है।
दौड़ने में मेरे अर्ध-आयताकार पंजे बड़े उपयोगी हैं। ऊपर से अपनी लंबी पूंछ का इस्तेमाल मैं रडर की तरह कर सकता हूं और दौड़ते-दौड़ते बड़ी तेजी से मुड़ सकता हूं। यानी शिकार को हर दिशा से दबोच सकता हूं। फिर भी...उसने लंबी सांस भरकर कहा – मैं चाहे जितनी कोशिश कर लूं, 120 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार नहीं हासिल कर पाता। सामनेवाला चीता आंख फाड़कर उसकी बात सुनता रहा और जब उसकी बात खत्म हो गई तो बोला – वावो, बड़ी दिलचस्प जानकारियां आपने दीं। मैं तो अभी तक यही समझता था कि मेरी नाक केवल सूंधने के लिए है। मेरे हृदय और फेफड़े मुझे जिंदा रखने के लिए हैं। और शिकार का पीछा करने के दौरान तो मुझे कुछ और दिखता ही नहीं कि पूंछ कहां जा रही है, पंजे कहां उठ रहे हैं। पता ही नहीं चलता। हां, सांस फूल जाती है, इसका अहसास रहता है। लेकिन तब तक तो शिकार मेरे जबड़े में आ चुका होता है।
दूसरा चीता बोलता रहा – बड़ा मजा आया आपकी दिलचस्प और चौंकानेवाली बातें सुनकर। वाकई आप तो बड़े आत्मज्ञानी हैं। तो ऐसा करते हैं कि हम अब एक साथ रहते हैं। मैं आपके हिस्से का भी शिकार करता रहूंगा और आप मुझे मेरे स्व और जगत का ज्ञान कराते रहना ताकि मैं भी आपकी तरह ज्ञानवान और विद्वान बन जाऊं। बुद्धिजीवी बन जाऊं। आत्मज्ञानी बन जाऊं।
पहले चीते ने उसकी बात मान ली। दोनों चीते एक साथ रहने लगे। धीरे-धीरे इस तरह उस जंगल में दो चीते हो गए जो 120 किलोमीटर प्रति घंटे की अधिकतम रफ्तार नहीं हासिल कर पाते थे और दूसरों की नजरों से छुपते-छिपाते खरगोश, चूहे, सांप, नेवले, मेढक, गोजर, केकड़े, कॉकरोच, बिच्छू आदि-इत्यादि खाकर जिंदा रहते थे। यह कहानी एक बनारसी ने सुनी तो फटाक से बोल पड़ा – अरे धत! बड़े-बड़े विद्वान, तुम्हारी...
आधार : इकनॉमिक टाइम्स
वह अक्सर सोचता रहता कि दुनिया का सबसे तेज दौड़नेवाला जानवर होने से आखिर क्या फायदा? मैं तो कुलांचे मारते हिरन तक का शिकार नहीं कर पाता। इसी सोच और उधेड़बुन में डूबा वह एक दिन जंगल के दूसरे चीते के पास जा पहुंचा जो अपनी शानदार रफ्तार के लिए आसपास के सभी जंगलों में विख्यात था। दुआ-सलाम के बाद फटाक से बोला – मेरे पास विकासवादी अनुकूलन की वे सारी खूबियां हैं जिसने हमारी प्रजाति को सबसे तेज दौड़नेवाला जानवर बनाया है। मेरी नाक की नली काफी गहरी है जो मुझे ज्यादा ऑक्सीजन सोखने की क्षमता देती है। मेरे पास काफी बड़ा हृदय और फेफड़े हैं जो ऑक्सीजन को पूरे शरीर में बेहद दक्षता से पहुंचा देते हैं। इसके साथ ही जब दौड़ने के दौरान मैं मात्र तीन सेकंड में इतना त्वरण हासिल कर लेता हूं कि मेरी रफ्तार शून्य से 100 किलोमीटर प्रति घंटे तक पहुचाती है, तब मेरी सांस लेने की गति 60 से बढ़कर 150 प्रति सेकंड हो जाती है।
दौड़ने में मेरे अर्ध-आयताकार पंजे बड़े उपयोगी हैं। ऊपर से अपनी लंबी पूंछ का इस्तेमाल मैं रडर की तरह कर सकता हूं और दौड़ते-दौड़ते बड़ी तेजी से मुड़ सकता हूं। यानी शिकार को हर दिशा से दबोच सकता हूं। फिर भी...उसने लंबी सांस भरकर कहा – मैं चाहे जितनी कोशिश कर लूं, 120 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार नहीं हासिल कर पाता। सामनेवाला चीता आंख फाड़कर उसकी बात सुनता रहा और जब उसकी बात खत्म हो गई तो बोला – वावो, बड़ी दिलचस्प जानकारियां आपने दीं। मैं तो अभी तक यही समझता था कि मेरी नाक केवल सूंधने के लिए है। मेरे हृदय और फेफड़े मुझे जिंदा रखने के लिए हैं। और शिकार का पीछा करने के दौरान तो मुझे कुछ और दिखता ही नहीं कि पूंछ कहां जा रही है, पंजे कहां उठ रहे हैं। पता ही नहीं चलता। हां, सांस फूल जाती है, इसका अहसास रहता है। लेकिन तब तक तो शिकार मेरे जबड़े में आ चुका होता है।
दूसरा चीता बोलता रहा – बड़ा मजा आया आपकी दिलचस्प और चौंकानेवाली बातें सुनकर। वाकई आप तो बड़े आत्मज्ञानी हैं। तो ऐसा करते हैं कि हम अब एक साथ रहते हैं। मैं आपके हिस्से का भी शिकार करता रहूंगा और आप मुझे मेरे स्व और जगत का ज्ञान कराते रहना ताकि मैं भी आपकी तरह ज्ञानवान और विद्वान बन जाऊं। बुद्धिजीवी बन जाऊं। आत्मज्ञानी बन जाऊं।
पहले चीते ने उसकी बात मान ली। दोनों चीते एक साथ रहने लगे। धीरे-धीरे इस तरह उस जंगल में दो चीते हो गए जो 120 किलोमीटर प्रति घंटे की अधिकतम रफ्तार नहीं हासिल कर पाते थे और दूसरों की नजरों से छुपते-छिपाते खरगोश, चूहे, सांप, नेवले, मेढक, गोजर, केकड़े, कॉकरोच, बिच्छू आदि-इत्यादि खाकर जिंदा रहते थे। यह कहानी एक बनारसी ने सुनी तो फटाक से बोल पड़ा – अरे धत! बड़े-बड़े विद्वान, तुम्हारी...
आधार : इकनॉमिक टाइम्स
Comments
अनिल भाई , आज की तो सुबह बना दी आपने । मज़ा आ गया। क्या पोल खोली है। भाई लोग इसे पढ़ कर कहीं दुबक गए होंगे। मेंढ़की-ब्रेकफास्ट भी गया पंजे से....
ही ही ही....
बहुत मस्त लिखा है..
दीपक भारतदीप
घुघूती बासूती
वास्तव में बिना व्यवहारिकता के किताबी ज्ञान की कोई उपयोगिता नहीं.
कम्प्यूटर के मामले में तो ये एकदम फिट है अनिल भाई
विचार और कर्म में समानता होनी चाहिए। केवल विचार ही नहीं उन के साथ कर्म भी करते रहना चाहिए। गंदगी के विरुद्ध भाषण देने वालों को अपने टायलट को साफ रखने से शुरू कर कम से कम मुहल्ले तक अवश्य पहुंचना चाहिए।
वाह...क्या बात है !
यह पोस्ट प्रहार के बावजूद
उद्धारक है भाई.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
नीरज