Friday 13 June, 2008

फुटपाथ तो बना नहीं पाते, शहर क्या बनाएंगे?

क्या खेती-किसानी का घाटे का सौदा बन जाना एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है? क्या छोटी जोतों का किसी एसईजेड में समा जाना या किसी बड़े कॉरपोरेट घराने की जागीर बन जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है? क्या खेतों से किसानों का उजड़ जाना ऐतिहासिक नियति है? हमारे वित्त मंत्री पी. चिदंबरम शायद ऐसा ही मानते हैं। 31 मई 2008 के तहलका में छपे एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है, “My vision of a poverty-free India will be an India where a vast majority, something like 85 percent, will eventually live in cities.” चिदंबरम ने इसके अगले ही वाक्य में साफ किया कि वो महानगरों की नहीं, शहरों की बात कर रहे हैं। उनका कहना है कि 6 लाख गांवों की बनिस्बत शहरी माहौल में लोगों को पानी, बिजली, शिक्षा, सड़के, मनोरंजन और सुरक्षा मुहैया कराना ज्यादा आसान होता है।

चिदंबरम साहब, अभी तो आप मौजूदा शहरों की ही व्यवस्था दुरुस्त कर लीजिए, फिर 85 फीसदी अवाम को शहरों में पहुंचाने की बात कीजिएगा। सड़क, पानी और बिजली जैसी जिन सुविधाओं की बात आपने की है, उनकी हकीकत जानने के लिए आप बिना किसी लाव-लश्कर के दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद या मुंबई के उपनगरों की यात्रा कर लीजिए। उसके बाद आगरा जाइए, मेरठ जाइए, कानपुर जाइए, बनारस जाइए, बरेली जाइए, इलाहाबाद जाइए। पटना हो आइए। देश के किसी भी शहर का जायज़ा ले लीजिए। बजबजाती नालियां, बदबू के भभके से घिरे कचरों के ढेर, आवरा कुत्ते और सूअर, सड़कों के गढ्ढे या गढ्ढ़ों की सड़क, हाथी से भी धीमी गति से चलता ट्रैफिक। कहीं न जा पाएं तो दिल्ली के सीलमपुर, शाहदरा, नारायणा या सीमापुरी का ही दौरा कर लीजिए। सारा सूरतेहाल सामने आ जाएगा। फिर बताइए, आप किसको शहरों का सब्ज़बाग दिखा रहे हैं।

शहरों में फुटपाथ तो हैं, लेकिन बस कहने भर को, पैदल चलनेवालों के लिए नहीं। फुटपाथ दुकानों के भीतर समा गए हैं। जहां कहीं बचे हैं तो हमेशा खुदे रहते हैं। दिल्ली के कनॉट प्लेस जैसे कुछ इलाकों को छोड़ दें तो बाकी जगहों पर हर साल फुटपाथ तोड़े जाते हैं, बनाए जाते हैं। हर साल लाखों इन पर खर्च किए जाते हैं। फिर भी ये इस्तेमाल करने लायक नहीं रहते। मुंबई में भी फोर्ट या मरीन ड्राइव के अलावा बाकी शहर की यही हालत है। मजे की बात है कि वही इंजीनियर कनॉट प्लेस, फोर्ट या मरीन ड्राइव में जानदार फुटपाथ बना लेते हैं, जबकि बाकी इलाकों में वो हर साल टूटनेवाला फुटपाथ ही बनाते हैं। इसका कारण किसी से छिपा नहीं है। सवाल उठता है जो सरकार काम के फुटपाथ नहीं बना सकती, वह शहरी तंत्र कैसे खड़ा सकती है?

अब पानी की बात लेते हैं। दिल्ली के वसंत विहार इलाके में हज़ारों सरकारी कर्मचारियों के आवासीय परिसर हैं। लेकिन यहां पानी दिन में चंद घंटे ही आता है। अपनी टंकियां लगाना या बड़े-बड़े पीपे रखना लोगों की मजबूरी है। जब सरकारी कर्मचारियों के परिसर का ये हाल है तो बाकी इलाकों की हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। सवाल उठता है जिस शहर में झमाझम बारिस होती हो, जहां पुरानी बावड़ियों का जाल फैला हुआ है, वहां क्या रेन हार्वेस्टिंग के जरिए पानी बचाकर लोगों को बारहों महीने चौबीसों घंटे पानी नहीं सप्लाई किया जा सकता? आखिर दूरदराज की नदियों से पानी खींचकर लाने की ज़रूरत ही क्या है? देश का कोई भी शहर ऐसा नहीं है जहां ज़रूरत भर का पानी न बरसता हो, लेकिन पानी की मारामारी हर जगह मची रहती है।

शहरों में मल्टीस्टोरी बिल्डिंगें बनाने का फैशन चला हुआ है। इन बिल्डिंगों में लोग नाम से नहीं, फ्लैट के नंबर से जाने जाते हैं। 67-बी नंबर वाले तो 107-एफ वाले तो ई-513 वाले। गांव की किसी पगडंडी से आप बिना परिचित से टकराए नहीं गुजर सकते। लेकिन नगरों-महानगरों की भीड़ में परिचित चेहरा ढूंढने से भी नहीं मिलता। पड़ोसी हैं, लेकिन परिचित नहीं। अपराधी परिचित पड़ोसियों के गुम हो जाने की इसी ‘सहूलियत’ का फायदा उठाते हैं। यही वजह है कि ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों में गार्ड के रहते हुए भी आएदिन हत्या की वारदातें होती रहती हैं। चिदंबरम जी, आप शहरों में किस सुरक्षा की बात कर रहे हैं?

जहां तीन-चार मंजिल तक के आवासीय परिसर हैं, वहां गार्ड के न होने के बावजूद अपराधी घुसने से डरते हैं। लेकिन बिल्डर लॉबी तो इन्हें गिराकर बहुमंजिलें इमारतें बनाना चाहती है। उसे लोगों की सुरक्षा और सहूलियत की परवाह नहीं है और सरकार सुव्यवस्थित शहरीकरण में नहीं, इस बिल्डरों को खुश करने की कवायत में लगी हुई है। आज़ादी के बाद के साठ सालों में पुराने शहरों की व्यवस्था बरबाद हो गई है। गांवों से शहरों की तरफ आबादी का पलायन जारी है। और, सी-लिंक से फ्लाईओवरों के बनने के बावजूद शहरों का बुनियादी तंत्र चरमरा रहा है। ऐसे में 85 फीसदी आबादी को शहरों में लाने की बात वित्त मंत्री का कोई विजन नहीं, बल्कि अंधापन है, एक क्रूर मज़ाक है।
आधार: बिजनेस लाइन में छपा एक लेख

11 comments:

pj37 said...

Unfortunately, one can't blame teh govt. for everything. We should also list the blame on us the very own residents of teh city, thsi includes teh shopowners, service classs people and what not. Do we care about the systems and regulations put in place by the govt. Its very easy to blame others, but what about us. As a shop owner do we ever think that we are occupying teh very footpath/walkway on which our neighbors, friends, and family members may feel walking instead of getting crunched by the oncoming traffic. Do we ever care how is our household waste is segregated in the (non)recycled forms for effective waste. Don't most of the people clean their home and dump the garbage either on the street or outside the dumpster, for which the poor janitor (cleaner a govt. employee) has to come and clean it and waste time to collect and dispose it off correctly to move the dumpster to a dumping ground far away from the city. Essentially we the educated people of the city (small/big) feel proud in either ignoring or flaying the rules set by the regulatory authorities. They do not have the manpower and money/revenue investment to do everything. It has to be a people's movement. More important education provided by the people who know how to do things properly. Many people coming from smaller towns and villages do not know the basic regulations on how to keep the city clean and live in a better way. They come with expectations and little knowledge of their own town/village and try their best to use them, but that those may not be enough for a city life. Is there an attempt by the residential society/the neighbors to educate the new residents. No. there is none. Everybody is happy with their own stuff and happy to blame the govt. Similarly how many business owners pay the sales and income tax. Hardly any. So if we do not pay taxes how do we expect the govt. to have revenue to invest in infrastructure. Those (big businesses) who pay call the shots and ask for favors and they get it, because they have invested in it. So there has to be a moral responsibility on us first and expectation from others later.

दिनेशराय द्विवेदी said...

भारत का विकास का आधार जनता है ही नहीं। उस का आधार है कैसे पूंजी अधिक से अधिक मुनाफा कमाए, पूंजी बढ़ाए। इन्सान का विकास केवल चुनावी नारा भर है।

Udan Tashtari said...

आभार इस आलेख को यहाँ प्रस्तुत करने का.

Gyan Dutt Pandey said...

इस इण्टरव्यू ने कोड़ा तलाशते लोगों को प्रसन्न कर दिया है।

Sandeep Singh said...

"शहरों में मल्टीस्टोरी बिल्डिंगें बनाने का फैशन चला हुआ है। इन बिल्डिंगों में लोग नाम से नहीं, फ्लैट के नंबर से जाने जाते हैं। 67-बी नंबर वाले तो 107-एफ वाले तो ई-513 वाले। गांव की किसी पगडंडी से आप बिना परिचित से टकराए नहीं गुजर सकते।"
.....
बिलकुल सही कहा आपने। पहले भी किसी ने कहा है कि किसी भी राष्ट्र को खत्म करना हो तो सबसे पहले उसकी भाषा पर प्रहार करो...धीरे-धीरे उसका सांस्कृतिक ढांचा खुद-ब-खुद चरमरा जाता है। लेकिन अपने अर्थशास्त्र विद कैविनेट मंत्री साहब तो ग्रामवासियों के सामने पहचान का ही संकट खड़ा करने के फिराक में हैं।

Ghost Buster said...

आपसे आंशिक सहमति है.

बालकिशन said...

आपसे पूरी सहमति है.
कलकत्ते का भी यही हाल है.
और ये व्वास्तव में एक क्रूर मजाक ही है.
दिनेश जी ने भी सुंदर बात कहीं है.
उनसे गुजारिश है इन पंक्तियों को आधार बनाकर एक पोस्ट जरुर लिखें.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

बचपन में आकाशवाणी गोरखपुर से प्रसारित ‘देश हमार’ नामक आंचलिक कार्यक्रम में एक कविता सुनी थी- “हमार गँउआं शहर हो गइल। जइसे अमृत जहर हो गइल॥” आपकी पोस्ट पढ़कर सहसा ये पंक्तियाँ मन में कौंध गयीं। बड़ा करारा चोट किया है आपने चिदम्बरम साहब की ‘यूटोपिया’ पर।

महेन said...

कितना सरकार को और कितना अपने सामाजिक व्यवहार को दोषी ठहराएँ? वित्तमंत्री का सपना एक बात है और उसपर अमल दूसरी चीज़। यदि शहरों में फ़ुटपाथ नहीं हैं तो इसमें वित्तमंत्री कुछ नहीं कर सकता, यह काम म्युनिसिपैलिटी का है। विज़न का होना तो पहली शर्त है। मगर फ़िर भी आपकी बातों से काफ़ी हद तक सहमत हूँ क्योंकि आजतक की असफलताओं को देखते हुए यह बहस का मुद्दा तो है ही।

संजय दुबे said...

अनिल जी तहलका अब नेट पर हिंदी में भी उपलब्ध है और वित्त मंत्री का इंटरव्यू नीचे लिखे लिंक पर मौजूद है... http://www.tehelkahindi.com/Sakshaatkar/Mulaquaat/659.html

अनुराग द्वारी said...

kya sir mughe bhool hi gaye ...is lekh ke bare main comment kya doon ek ek harf se itefaakh rakhta hoon ...
Khair mugh gareeb ke blog par bhi ghoom aayen kabhi kabhi bahut dino baat kuch likha tha ...
anurag