Friday 29 June, 2007

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो...

जीवन में कुछ ऐसी अवस्थाएं आती हैं, जब स्मृति का लोप होने लगता है, बुद्धि का नाश होने लगता है। वैसे गीता में इसकी कुछ और भी वजहें बताई गई हैं।
ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोञंभिजायते।।
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृति विभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
जब भी किन्हीं वजहों से स्मृति विभ्रमित होने लगे, बुद्धि का नाश होने लगे तो उसे वापस लाने का मेरे पास एक आजमाया हुआ सूत्र है। रामचरित मानस की इस शिव वंदना को जिस दिन आप कंठस्थ कर लेंगे, उसी दिन आपकी स्मृति का लोप होना थम जाएगा। तो आइए, इसका पारायण पाठ करें...
नमामिशमीशान निर्वाण रूपं।
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।।
निजं निर्गुणं निर्किल्पं निरीहं।
चिदाकाशमाकाशवासं भजेहं।।
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं।
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशं।।
करालं महाकाल कालं कृपालं।
गुणागार संसारपारं नतोहं।।
तुषाराद्रि संकाश गौरं गंभीरं।
मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेंदु कंठे भुजंगा।।
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठ दयालं।।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।।
त्रय:शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेहं भवानीपतिं भावगम्यं।।
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी।।
चिदानंदसंदोह मोहपहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी।।
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं। भजंतीह लोके परे वा नराणां।।
न तावत्सुखं शांति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं।।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं।।
जरा जन्म दु:खौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्नमाशीश शंभो।।
छात्र जीवन में मेरे एक मित्र आदित्य बाजपेयी इसको इतनी लय-ताल में सुनाते थे कि मैं इसकी ध्वन्यात्मकता से अभिभूत हो जाता था। वो ध्वनि बराबर मेरे मन में गूंजती रहती थी। तो इसे एक दिन मैंने रामचरित मानस से खोज निकाला और अब आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। इसके लिए आपके आस्तिक होने की जरूरत नहीं है। बस इसकी ध्वन्य़ात्मकता का आनंद लीजिए और देखिए कि कैसे आपकी खोई स्मरण-शक्ति वापस आने लगती है।

5 comments:

Udan Tashtari said...

जरा उसी धुन में कोशिश करके पॉडकास्ट करो न!! मज आयेगा. बस निवेदन है.

अनुनाद सिंह said...

आपका सुझाव अच्छा लगा। मैने किसी विद्वान का शोध पढ़ा था कि संस्कृत के ज्ञान और पठन से बुद्धि की तीव्रता बढ़ती है। किसी और विद्वान का विचार है कि संस्कृत की ध्वन्यामकता में कुछ ऐसी विलक्शण तत्व है जो इन्हें सरलता से याद रखने में सहायक है। और इसी कारण संस्कृत का इतना विशाल साहित्य बिना कागज के भी हजारों वर्षों तक एक पीढ़ी से दूसरी को प्राप्त होता रहा।

Manoj said...

ये कविता/ प्रार्थना मेरे स्कूल मे स्वाध्याय के पहले गायी जाती थी। मैं काफी दिनों से इसे खोज रहा था। यदि आपको कोई आपत्ति ना हो तो मैं इसे अपने ब्लोग मे copy कर सकता हूँ?

Manoj

अनिल रघुराज said...

मनोज जी, ये सार्वजनिक चीज है। इसे आप बेझिझक अपने ब्लॉग पर लगा सकते हैं। वैसे नमामीशमीशान से गूगल में सर्च करने पर पूरा ये पूरा रुद्राष्टक आ जाता है, जहां से आप सीधे कट-पेस्ट कर सकते हैं।

Anonymous said...

बचपन में हमें भी रामचरितमानस का यह अंश याद कराया गया था और हम इसे आरती के रूप में पूरी छान्दस ध्वन्यात्मकता के साथ गाते थे . साथ ही रामचरितमानस में शुरुआत में जो सोरठे हैं,हम उन्हें भी पूरी रागात्मकता के साथ गाया करते थे .